अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

इन्वेस्टमेंट

Written By: AjitGupta - Mar• 12•16

तुम्हारे पिता ने एक इंवेस्टमेंट किया था, मुझे एक बीज, अपनी कोख रूपी बैंक में सुरक्षित रखने को दिया था। कहा था कि यह मेरा बहुमूल्य इंवेस्टमेंट है, जब हम बूढ़े हो जायेंगे तब यह हमें जीवन का आधार देगा। मैंने इसे अपना मन दिया, आत्मा का अंश दिया और इस बीज के संवर्धन के लिये रस, रक्त, मांस, मज्जा सभी कुछ बिना कृपणता के दिया। जब उस बीज का साक्षात स्वरूप दिखायी दिया तब तुम्हारे पिता ने अपने सुरक्षित हाथों से उसका पालन-पोषण किया। हमारा तन-मन-धन इसी इंवेस्टमेंट के इर्द-गिर्द घूमता रहा, बस एक ही सपना था कि इसे सबल बनाया जाये जिससे हमारा भविष्य सुरक्षित हो सके।

इस भौतिक संसार में अनेक लालच भी आये, जब कहा गया कि दूसरे क्षेत्र में भी इंवेस्ट कर लो लेकिन हमने पुरखों की इस रीति को नहीं बदला। लोगों ने कहा कि जमाना बदल गया है, अब संतान रूपी इंवेस्टमेंट सुरक्षित नहीं हैं, लेकिन हमें यकीन नहीं हुआ कि जमाना ऐसे भी बदल जाता है! हमने बरगद का पेड़ लगाया था तो उसकी जड़े तो आत्मसात होने के लिये ही बनी थी। लेकिन लोग कहने लगे कि अब जमाना बरगद का नहीं है, अब तो बौंजाई लगाये जाते हैं। इन बौंजाइयों के पास अपनी जमीन नहीं होती, ये किसी भी गमले में अपना जीवन बना ही लेते हैं। इनका फैशन विदेश में बहुत है तो गमलों में रुपकर ये अक्सर विदेश ही चले जाते हैं। तुम्हारा वंश-वृक्ष तुम्हारी जमीन से काल के हाथों उखाड़ लिया जायेगा। जिस छांव की तुम उम्मीद लगाये बैठे हो वह वृक्ष तो बौंजाई बनकर छांव देने के लायक ही नहीं रहेगा।

मैं घर-घर तलाश रही हूँ बरगद के पेड़ों को, बस कहीं-कहीं ही मिलते हैं ये, बाकि तो बौंजाई ही अधिक हैं। सारे ही घर धूप से तप रहे  हैं, छांव कहीं दिखती नहीं। सभी अपनी हुण्डियों को टटोलते रहते हैं शायद ये कभी सिकर जाये! कभी कोई बूढ़ गुस्सा भी हो जाता है, पूछता है अपनी पत्नी से – तूने मेरे बीज में कितना मन डाला था और कितनी आत्मा डाली थी? जरूर तू ने ही ध्यान नहीं रखा होगा। बुढ़िया को भी गुस्सा आ जाता और बोल देती – तुम्हारे बीज में ही खोट रही होगी। झगड़े के बाद वे फिर अपने काम पर लग जाते. ढूंढने लगते अपने किसी और इंवेस्टमेंट को। तभी कोई घर की घण्टी बजा देता, दरवाजा खोलने पर किसी सुदर्शन युवक को खड़ा पाते। मकान खाली है क्या, इसकी पड़ताल को आया था। उन्हें लगता कि फिर किसी ने उनके आंगन में पेड़ रोप दिया है। वे उसी छांव में अपना सुख खोजने लग जाते।

You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.

4 Comments

  1. संतान अगर इन्वेस्टमेंट होती तो वानप्रस्थ और सन्यासआश्रमों का विधान नहीं हुआ होता .और आज की दुनिया में तो और भी नहीं. पितरों का ऋण चुकाने का दायित्व पूरा कर देने में संतोष कर अपने-अपने ढंग से जीवनयापन करने को तैयार रहना ,मुझे लगता है ,अधिक शान्तिमय हो सकता है .

  2. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, ” लोकसभा चैनल की टीआरपी – ब्लॉग बुलेटिन ” , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !

Leave a Reply to ब्लॉग बुलेटिन Cancel reply