अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

एकला चलो रे

Written By: AjitGupta - Feb• 04•18

रवीन्द्र नाथ टैगोर ने हम सबको सिखा दिया कि – एकला चलो रे! हमें भी लगा कि बात तो ठीक है, दुनिया की किच-किच से अच्छा है एकला चलो रे। लेखन ही ऐसा माध्यम हमें समझ आया जिसमें एकला चलो रे, का उद्घोष हम कर सकते थे और फिर रवीन्द्र बाबू तो लेखक के नाते ही कहकर गये थे – एकला चलो रे। हमने मन बना लिया कि अब एकला चलो रे – ही को मंत्र बनाएंगे, लेकिन हम एकला तो एक कदम भी नहीं चल पाए। अपने लिखे को जब तक कोई पढ़े नहीं तब तक लिखने का फायदा क्या है? जैसे ही लोगों को पता लगा कि हम लिखते हैं, लोग हमें खुशी-खुशी अपनी संस्था में स्वागत करने लगे, दो चार बार तो हमें ठीक लगा फिर देखा कि यहाँ तो हमारी पहचान भारतीयता और हिन्दुत्व को ही गरियाया जा रहा है, कुछ लोग गरिया रहे हैं, बाकि चुप है, हम अकेले कुलबुला रहे हैं। हमें रास नहीं आया, समूह में रहना, फिर वही मंत्र अपना लिया एकला चलो रे। तब तक सोशल मीडिया का जन्म हो चुका था और हमने ब्लाग की राह पकड़ी। यहाँ भी तत्काल ही समूह बनने प्रारम्भ हुए और उनका भी वही मिजाज कि हिन्दुत्व को गरियाओ। हमें लगा कि ये तो हमें ही गरिया रहे हैं, हम फिर समूह से छिटक गए। उन दिनों फेसबुक का फैशन भी चल निकला था, हमने यहीं एकला चलो रे को साधने की सोची। लेकिन देखते क्या हैं कि जो लोग बाहर भारतीयता को गरिया रहे थे, वे यहाँ भी थे, लेकिन अन्तर इतना था कि एक दूसरा समूह भी था जो भारतीयता का समर्थन कर रहा था। हमने सोचा चलो लेखन जारी रह सकेंगा, लेकिन यहाँ भी पेच फंस गया। एक वर्ग भारतीयता को गिरयाने के एवज में सत्ता से टुकड़े पा रहा था तो दूसरे वर्ग को यह बात अखर रही थी। अब वे भी भारतीयता वाली सरकारों को धमकाने लगे थे, कि ऐसा करो तो हम तुम्हें माने नहीं तो तुम्हें गरियाएंगे। कुल मिलाकर बात यह थी कि वे भी टुकड़ा मांग रहे थे।
जो वर्ग सालों से खाया-पीया था, उसे समझ आ गया कि इनको हमारे उपयोग में कैसे ले जिससे हमारी सरकारों की दुकानदारी वापस बनी रहे। वे कुछ भी सुरसुरी छोड़ देते और सबसे पहले यह हिन्दुत्ववादी शेर उस सुरसुरी को लपक लेते और एक सुर में हुँआ-हुँआ करने लगते। जब खूब शोर मचा लेते तब समझ आता कि हमने क्या किया! फिर चुप हो जाते। सामने वाले को खेल समझ आ गया और वे जहाँ भी चुनाव होने होते, बस कोई न कोई जाल बिछा देते। हर प्रान्त में नया जाल, लेकिन मंशा एक। पंजाब, दिल्ली से लेकर गुजरात में यह प्रयोग कर लिया गया। अब राजस्थान, मध्य-प्रदेश – छत्तीसगढ़ की बारी है, प्रयोग शुरू हो गया है। ऐसे में हमारा मंत्र एकला चलो रे वापस लौटने की जिद कर रहा है। लेकिन अकेले लेखन कैसे हो? सारी सोशल मीडिया पर तो अपनों के ही खिलाफ फतवा जारी किया हुआ है। कदम-कदम पर छावनी बना दी गयी है, हम उसे ही अपना नेता मानेंगे जो हमें टुकड़े डालेगा। अब टुकड़े तो बड़े नेताओं को मिलेंगे लेकिन बेचारे छोटे कार्यकर्ता समझ ही नहीं पा रहे हैं कि इनका खेल क्या है? बड़े कब एक हो जाएंगे और सत्ता की मलाई खाएंगे। खैर जिसकी जो इच्छा हो वह करे, लोकतंत्र है, हम तो अपनी अलख जलाते रहेंगे। जिसे भी भारतीयता और हिन्दुत्व याने खुद में स्वाभिमान दिखायी देता है, वह हमारे साथ आए, नहीं तो एकला चलो रे, का मंत्र तो साथ है ही। हम तो सामाजिक प्राणी है और समाज की ही बात करते हैं, इसलिये कभी भारतीयता की भी बात कर लेते हैं, देखते हैं हमारे साथ कौन आता है?

You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.

Leave a Reply