जिन्दगी में आप कितना बदल जाते हैं, कभी गौर करके देखना। बचपन से लेकर जवानी तक और जवानी से लेकर बुढ़ापे तक हमारी सूरत ही नहीं बदलती अपितु हमारी सोच भी बदल जाती है। कई बार हम अधिक सहिष्णु बन जाते हैं और कई बार हम अधीर। बुढ़ापे के ऐप से तो अपनी फोटो मिलान करा ली लेकिन हमारी सोच में कितना बदलाव आया है, इसकी भी कभी गणना करना। मेरा बचपन में खिलंदड़ा स्वभाव था, अन्दर कितना ही रोना छिपा हो लेकिन बाहर से हमेशा हँसते रहना ही आदत थी। कठोर अनुशासन में बचपन बीता लेकिन अपना स्वभाव नहीं बदला। लेकिन जब जिन्दगी के दूसरे पड़ाव में आए तब स्वभाव बदलने लगा। जो काम कठोर अनुशासन नहीं कर पाया वही काम हमारी लकीर को छोटी करने का हर क्षण करते प्रयास ने कर डाला। नौकरी करना ऐसा ही होता है जैसे गुलामी करना, जहाँ गुलाम को कभी अहसास नहीं होने दिया जाता कि तू कुछ काम का है, वैसे ही नौकरी में हर क्षण सिद्ध किया जाता है कि तुम बेकार हो। हमें भी लगने लगा कि वाकयी में हम कुछ नहीं जानते। जैसे ही आपको लगता है कि आप कुछ नहीं जानते, बस उसी क्षण आपका खिलंदड़ा स्वभाव कहीं पर्दे के पीछे छिपने लगता है। स्वाभाविकता कहीं खो जाती है। हम महिलाओं के साथ स्वाभाविकता खोने के दो कारण होते हैं, एक नौकरी और दूसरा पराया घर। नौकरी तो आप छोड़ सकते हैं लेकिन पराये घर को तो अपनाने की जिद होती है तो अपनाते रहते हैं, बस अपनाते रहते हैं। इस अपनाने में हम पूरी तरह अपना स्वभाव बदल देते हैं।
पराया घर तो होता ही है, हमें बदलने के लिये। तभी तो कहा जाता है कि इस घर में ऐसा नहीं चलेगा। इस संसार में हर व्यक्ति एक काम जरूर करता है और वह है कि दूसरे पर खुद को थोपना। जैसे ही हमें अंश मात्र अधिकार मिलता है, हम दूसरों को बदलने के लिये आतुर हो जाते हैं। बच्चों को हम अपनी मर्जी का बनाना चाहते हैं। पति पत्नी को अपनी राह पर चलने को मजबूर करता है और पत्नी भी पति को बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ती। हमारा प्रत्येक व्यक्ति से मिलना प्रेम और आनन्द के लिये नहीं होता, अपितु दूसरे को परिवर्तन के लिये होता है। हम हर क्षण दूसरे को प्रभावित करने की फिराक में रहते हैं।
हमने अपने जीवन में क्या किया? यदि इस कसौटी पर खुद को जाँचे तो बहुत सारी खामियाँ हम में निकल जाएंगी। हम मुक्त नहीं कर पाते हैं। अपना अधिकार मान लेते हैं कि इन पर शासन करना हमारा अधिकार है। मैं बचपन को अनुशासन से इतनी संतृप्त थी कि मैंने प्रण लिया कि बच्चों को खुली हवा में सांस लेने दूंगी। वे जो बनना चाहे बने, जैसा जीवन जीना चाहे जीएं, मेरा हस्तक्षेप नहीं होगा। लेकिन फिर भी ना चाहते हुए भी हमने न जाने कितनी बातें उनपर थोपी होंगी। कई बार मैं आश्चर्य में पड़ जाती हूँ जब बच्चों के बीच होती हूँ। उनके पास शिकायत रहती ही है, जिसकी आपको कल्पना तक नहीं होती, वह शिकायत पालकर बैठे होते हैं। तब मैं और बदल जाती हूँ। घर परिवार के किसी सदस्य से बात करके देख लीजिये, उनके पास एक नई कहानी होगी। आप क्या सोचते हैं उसके परे उनकी कहानी है। आपकी करनी पर उनकी कहानी भारी पड़ने लगती है और बदलने लगते हैं। आप चाहे बदले या नहीं, लेकिन मैं जरूर बदल जाती हूँ।
जिन्दगी भर देखा कि यहाँ हर व्यक्ति को ऐसे व्यक्ति की तलाश रहती है, जिसे वह अपना अनुयायी कह सके, उसे अपने अनुरूप उपयोग कर सके। लेकिन कोई किसी को आनन्द के लिये नहीं ढूंढता है। मुझे यह व्यक्ति अच्छा लगता है, इसकी बाते अच्छी लगती है, इसकारण कोई किसी के पास नहीं फटकता बस उपयोग ढूंढता है। बहुत कम लोग हैं जो जिन्दगी भर आनन्द का रिश्ता निभा पाते हैं नहीं तो उपयोग लिया और फेंक दिया वाली बात ही अधिकतर रहती है। मैं जब भी किसी व्यक्ति से मिलती हूँ तो मुझे लगता है कि मैं इसके लिये क्या कर सकती हूँ लेकिन मेरा अनुभव है कि अक्सर लोग मुझसे मिलते हैं तो यही सोचते हैं कि मैं इसका उपयोग कैसे ले सकता हूँ। मैं कुछ लोगों से प्रभावित होकर निकटता बनाने का प्रयास करती हूँ तो क्या पाती हूँ कि लोग मुझे अपना अनुयायी बनाने में जुट गये हैं। कुछ दिनों बाद वे अचानक ही मुझसे दूर हो गये! मैं आश्चर्य में पड़ जाती हूँ कि क्या हुआ! पता लगता है कि मुझे अनुयायी बनाने की कुव्वत नहीं रखते तो किनारा कर लिया। ऐसे में मैं बदलने लगती हूँ।
मैं आज जमाने की ठोकरों से इतना बदल गयी हूँ कि अपना बदला रूप देखने के लिये मुझे किसी ऐप की जरूरत नहीं पड़ती, मुझे खुद को ही समझ आता है कि मेरा खिलंदड़ा स्वभाव कहीं छिप गया है। खो गया है या नष्ट हो गया है, यह तो नहीं लिख सकती, बस छिप गया है। मन का आनन्द कम होने लगा है। रोज नए सम्बन्ध बनाने में रुचि नहीं रही, क्योंकि मैं शायद अब किसी के उपयोग की वस्तु नहीं रही। लेकिन फिर भी एकान्त में लेखन ही मुझे उस खिलंदड़े स्वभाव को याद दिला देता है, मन के आनन्द की झलक दिखा देता है और कभी कोई महिला हँसती हुई दिख जाती है तो सुकुन मिल जाता है कि अभी हँसी का जीवन शेष है।
यह पोस्ट फालतू तो बिलकुल भी नहीं है अजित जी. इतनी ईमानदारी से जिस पीड़ा को आपने शब्द दिए हैं वह शायद हर उस स्त्री की पीड़ा है जिसका अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व है।
परमेश्वरी जी आभार आपका।