कभी नारीवाद के नाम पर, कभी राष्ट्रवाद के नाम पर, कभी सत्ता की नजदीकियों के कारण, कभी अन्ना हजारे और रामदेव आन्दोलन के कारण ऐसे ही न जाने कितनी बहसें हम ब्लाग पर करते आए थे। लेकिन आज सभी खामोश हैं। क्या बहस चुक गयी या फिर उसे निरर्थक मान लिया गया? या शायद सभी ने मान लिया है कि हम सब अपने-अपने पक्षों को लेकर दृढ़ हैं इसलिए ऐसे विषयों पर बहस ही नहीं करना चाहते। जो लोग भी ब्लाग से गायब हुए हैं वे शायद यह सोचकर गायब हुए हैं कि हम अपनी बात की सत्यता को सिद्ध करने यहाँ आए थे, लेकिन नहीं कर पाए, इसलिए अब नहीं आते। आज आप कैसी भी पोस्ट लिख दो, बस लोग खानापूर्ति के लिए अपनी टिप्पणी करते हैं। बस गिने-चुने लोग, जो शायद अभी भी अड़े हुए हैं कि नहीं हम ब्लाग जगत में टिके रहेंगे। क्या लेखन विविधरूपा नहीं होना चाहिए?
सभी प्रकार की मान्यताएं, चाहे वे समाज के लिए उचित हो या फिर अनुचित, उनका स्वरूप समाज में सदैव बना रहता है। प्रकृति शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष दोनों को ही मानती है। इस विविधरूपा प्रकृति के कारण ही मनुष्य को आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है। सभी कुछ एकसा होने पर क्यों अनुसंधान होंगे? क्या आप हमेशा मीठा ही खा सकते हैं, या खट्टा ही खा सकते हैं? नहीं हमें भोजन में षड़रस चाहिए। तो फिर जीवन में हम विभिन्न मतों से भागते क्यों हैं? इतिहास उठाकर देख लीजिए – रामायण काल सर्वाधिक प्राचीन हैं, लेकिन वहाँ भी राम थे तो रावण भी था, महाभारत काल में कृष्ण थे तो कंस भी था। परिवार में भी हमेशा ही विवधि सोच के लोग रहते आए हैं। लेकिन लेखक सभी सोचों को आत्मसात करता हुआ समाज के सम्मुख अपने विचार रखता है। लेखक का प्रयास होता है कि समाज में सकारात्मकता बनी रहे। समाज में चाहे कितनी भी विद्ररूपता आ जाए लेकिन लेखक उसे सही मार्ग दिखाएगा। लेखक ही ऐसा व्यक्ति है जिसमें लोग सत्य के दर्शन करते हैं। जब हम कहीं भी कुछ लिखा पढ़ते हैं तब उसे सत्य मानकर, उसका उल्लेख करते हैं। इसलिए लेखक की जिम्मेदारी समाज को सत्य के दर्शन कराना है। सत्य वही है जो समाज के लिए उपयोगी हो, मनुष्य के लिए उपयोगी हो। इसलिए लेखक विविधरूपा होते हुए भी सत्य का अनुवेषी होता है। वह प्रत्येक विचार में सत्य की खोज करता है। उसका कार्य स्वार्थ पूर्ति नहीं है अपितु उसका धर्म सत्य को उजागर करना है। इसलिए बहसों के माध्यम से सत्य की खोज नहीं होनी चाहिए?
प्रत्येक पीढ़ी, अपने विचारों को सत्य मानती है। आगामी पीढ़ी को उपदेश देती है और उनके विचारों को खारिज करती है। इसी के कारण क्या दोनों पीढ़ियों को अलग हो जाना चाहिए? शान्ति की चाह में हमने पृथकीकरण कर लिया। अनावश्यक बहस हो इससे अच्छा है दूर रहो और प्रेम से रहो, अब यह सिद्धान्त बन गया है। लेकिन उससे समाज की प्रगतिशीलता थम गयी है। एक पीढ़ी में जो मेन्टल ब्लाक्स आ जाते हैं उसे दूसरी पीढ़ी तोड़ती है, लेकिन यदि दूसरी पीढ़ी कह दे कि नहीं हम इन्हें नहीं बदल सकते तो दो ध्रुव बन जाएंगे। बदलाव नवीन पीढ़ी को ही लाना होगा। हमारी पीढ़ी रेल में यात्रा करती थी, स्लीपर क्लास हुआ करते थे। जब एसी कोच चले तो हमारी पीढ़ी ने उसे अपनाया और स्वयं को प्रगतिशील माना। लेकिन तभी नवीन पीढ़ी हवाई यात्रा लेकर आ गयी। वह रेल यात्रा को समय बर्बादी बताने लगे। हमारी पीढ़ी जो साठ के ऊपर हो चुकी थी, उसे हर समय की हवाई यात्रा रास नहीं आयी। क्योंकि उसके आप इतने पैसे नहीं थे कि वह हमेशा हवाई यात्रा कर सके। लेकिन यदि नवीन पीढ़ी यह कहकर उसका अपमान करे कि वह रेल यात्रा करके पुरानी लकीर को पीट रहे हैं तब कैसे बदलाव होगा? यह एक उदाहरण है, ऐसे ही कितने ही उदाहरण हैं जो हमारी पीढ़ी और वर्तमान पीढ़ी में संघर्ष देखते हैं। लेकिन इन्हीं उदाहरणों से जब नवीन पीढ़ी हमारी पीढ़ी को अपने साथ लेकर चलती है तब मेन्टल ब्लाक्स टूटने लगते हैं। बेटा पिता से कहता है कि मैं आपको हवाई यात्रा का टिकट भेज रहा हूँ, बस इसी बात पर पिता की छाती चौड़ी हो जाती है और वह हवाई यात्रा के गुण गाने लगता है और फिर वह भी अपनी सुविधा से कभी यात्रा कर लेता है। इसलिए किसी भी विचार को बदलने के लिए नवीनता को अपनी जगह त्याग से बनानी होती है। यह त्याग लेखक करता है। वह नवीन विचारों को सकारात्मक रूप से समाज के सामने प्रस्तुत करता है और नवीनता अपनी जगह बना लेती है। इसलिए नवीनता के लिए लेखकों को केवल सत्य की बात सुननी चाहिए। क्या हम सब मिलकर नवीन सत्य का अन्वेषण नहीं कर सकते? क्या हमारे विचार इतने दृढ़ हैं कि हमारे मेन्टल ब्लाक्स टूटते ही नहीं? इसलिए लेखक को पुन: जुटना होगा सार्थक बहस के लिए। क्या हम सार्थक बहस के लिए फिर वापस नहीं आ सकते?
विचारणीय आलेख
बात एकदम दुरुस्त है…..ब्लॉग पर लेखन में कुछ कमी आने लगी है….हालांकि मैं रोजाना लिखने वाला कभी नहीं रहा….महीने में दो से चार पोस्ट…मगर सक्रिय निरंतर रहता हूं..कहीं कहीं टिप्पणी भी करता हूं…दरअसल कविता, निजी अनुभव और यात्रा वृतांत तो नियमित रुप से किसी न किसी ब्लॉग पर लिखे जा रहे हैं….महिला ब्लॉग भी अपडेट तो होते हैं..हालांकि कई पोस्ट औऱ उन आई प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि अब भी कई मुद्दे पर लोगो की सोच अस्सी के दशक पर ही अटकी हुई है…खैर ये तो होता रहेगी..इसलिए उससे भागना उचित नहीं…अपनी पोस्ट ब्लॉग पर चुप्पी तो बनती है (www.boletobindas.blogspot.in/2013/09/blog-post_3854.html) पर मैं लिख भी चुका हूं….
अब ये सारी बहसें फेसबुक पर शिफ्ट हो गयी हैं ..लम्बी बहसें चलती हैं वहां
ओह वोह बहस-मुबाहिसे, लड़ने-झगड़ने, मिलने-बिछड़ने, रूठने-मनाने के पुराने दिन…
ब्लॉगिंग भी एक शौक है जो अधिकांश लोगों मे जल्दी ही पूरा हो गया लगता है . इसलिये अब निरर्थक और सार्थक दोनो तरह की बहस से दूर रहने लगे हैं लोग . लेकिन ब्लॉगिंग को तिलांजलि देना उचित नहीं है .
बदलाव है, चलता ही रहता है.
सार्थक बहस सदा ही प्रसंशनीय है फ़िर चाहे फ़ेसबुक पर हो या ब्लाग पर. वैसे ब्लागिंग आजकल सूनी सूनी सी हो गई लगती है.
दीपावली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं.
रामराम.
आपका आह्वान असर दिखाये, दीपावली की शुभकामनाओं के साथ यह कामना भी।
हम शायद चर्चा करना ही नहीं चाहते, सभी अपने दायरों में कैद हो गए हैं। अब हमें किसी के विचारों की आवश्यकता नहीं। थम गए हैं हम। लेकिन कभी तो भोर होगी। जब तक इन्तजार करेंगे। हम तो डटे रहेंगे।
Blogger dr kiran mala jain said…
गरमा गरम बहसें ,कहीं खो गई है ।आजकल तो घर हो या बाहर बहुत सोच समझ कर बोलना पड़ता है ,बहुत फौरमल हो गई है बातें ,सामने वाले को क्या
पंसद आयेगा वही बोलना पड़ता है ,नहीं तौ संमबंध ख़राब होने का डर ,बिल्कुल अपनों से भी पहले सोच कर हिम्मत करके कुछ बोला जाता है ,वो ज़माने गये बिन्दास जो मनमे आया बोला कोइ चिंता नहीं ,शाम को फिर साथ बैठे है एक दूसरे के बिना चैन नहीं ।थोड़ा बोलते ही उपदेश लगता है
आजकल ।सबसे मज़ेदार बात सब बहस और बतियाने के लिय तरस रहे है ।
November 1, 2013 at 3:37 PM Delete
ब्लॉग सूने हो गए हैं … ब्लॉग पर बहस तो छोडिये पढ़ने लिखने वाले भी कम हो गए हैं … शायद ये समय का बदलाव है … तेज़ी के ज़माना है और लोग और विचार भी त्वरित हो रहे हैं ….
बदलते समय की कहानी। वैसे अपन तो अब भी जमें हैं ब्लॉग पर। आपका ये लेख देखा था आज पढ़ने आये हैं।
मुझे लगता है गरमा-गरम बहसें लुप्तप्राय होने के कुछ कारण हैं :
१- सम्बन्धों की गरमाहट में कमी आना।
२- बहसों का एक समय के बाद विषय से हट कर व्यक्तिगत हो जाया करना।
३- अपने-अपने अहम् लिए रहना। अपने ब्लॉग को ‘SWEET HOME’ जैसा बनाये रखने के लिए मीठे-मीठे कमेंट को ही प्रवेश देना और घुस आये असहमति रखने वाले हुड़दंगी कमेंट पर ताबड़तोड़ हमले करके भविष्य के सम्भावित मधुर रिश्तों की गुंजाइश न छोड़ना।
४- ब्लॉग-जगत में गुटबाजी साफ़-साफ़ दिखने लगी थी इसलिए भावुक ब्लॉगर अन्य ब्लॉग पर जाने में कुछ घबराने लगे।
५- काफी समय तक तो यह माना जाता रहा कि अपने ब्लॉग के सिवा सुरक्षित स्थान कोई नहीं। फिर यह धारणा भी बदलने लगी। लोग ब्लॉग पर अभिव्यक्त होने से भी कतराने लगे अंदरूनी हो गए या कहें फेसबुकिया हो गए। लाइक-रिजेक्ट-शेयर करने वाले होने में ही ब्लॉग साहित्य (विचार-विमर्श) की सेवा मानने लगे।
प्रतुल जी, आपकी टिप्पणी देखी, बाहर गयी हुई थी इसलिए विलम्ब हुआ। आपकी सारी ही बाते सही हैं बस समाधान कैसे हो, चिन्ता का विषय यही है। आप भी गायब हुए है, लौट आएंगे तो विचारों को सम्बल मिलेगा।
६- एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि ब्लॉग-लेखन के जुनूनी चर्चाकार सोचते हैं कि उनकी १०० में एक-आद हलकी बात में भी बिना तर्क के ‘हामी’ भर दी जाए। ऐसा न होने पर उपयोगी चर्चाओं से अच्छे विचारक दफा हो जाते हैं।
आप कहें तो साफ़-साफ़ नाम लेकर उन चर्चाकारों की बात की जा सकती है जो ब्लॉग जगत लिए बहुत उपयोगी थे और अब भी उनकी उपयोगिता कम नहीं हुई है।
‘नारी’-पुरुष, ‘नास्तिक’-आस्तिक, धर्म-अधर्म, ‘निरामिष’-आमिष, वेद-कुरआन, विश्वास-अंधविश्वास, मान्यताएँ, संस्कार, पहनावे जैसे न जाने कितने ही विषयों पर लम्बी-लम्बी चर्चाओं ने दिन-रात ब्लॉगरों को व्यस्त रखा है। इन चर्चाओं के बहाने न केवल काफी कुछ सीखने को मिला था अपितु सामाजिक व्यवहार एक नए रूप में बनने लग गया था। टिप्प्णीकार ब्लॉगर परस्पर मिलने मिलाने की चाह रखने लगे।
एक सच को स्वीकार करने में मुझे आज कतई संकोच नहीं —– ब्लॉग लेखन मेरे लिए ‘आत्महीनता’ दूर करने वाला और आत्मबल बढ़ाने वाला मार्गदर्शक रहा है।
इन मार्गदर्शकों में भी कुछ ब्लॉगर्स का नाम मेरे मानस में अमिट रहेगा।
और हाँ, यदि सच में कहीं चर्चा हो रही हो तो अवश्य सूचित करियेगा, अवश्य पहुँचूँगा। और मुझे लगता है कि कोई चर्चा आपसे अछूती चली जा रही है तो सूचना पहुँचाने का धर्म मैं निभाऊँगा।