अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

काश पैसा भी बासी होने लगे

Written By: AjitGupta - Apr• 04•17

हमारी एक भाभी हैं, जब हम कॉलेज से आते थे तब वे हमारा इंतजार करती थीं और फिर हम साथ ही भोजन करते थे। उनकी एक खासियत है, बहुत मनुहार के साथ भोजन कराती हैं। हमारा भोजन पूरा हो जाता लेकिन उनकी मनुहार चलती रहती – अजी एक रोटी और, हम कहते नहीं, फिर वे कहतीं – अच्छा आधी ही ले लो। हमारा फिर ना होता। फिर वे कहतीं कि अच्छा एक कौर ही ले लो। आखिर हम थाली उठाकर चल देते जब जाकर उनकी मनुहार समाप्त होती। कुछ दिनों बाद हमें पता लगा कि इनके कटोरदान में रोटी है ही नहीं और ये मनुहार करने में फिर भी पीछे नहीं है, जब हम हँसकर कहते कि अच्छा दो। तब वे हँस देती।
दूसरा किस्सा यह भी है कि एक अन्य भाभी कहती कि रोटी ले लो, हम कहते नहीं। फिर वे कहती कि देखो ले लो, नहीं तो सुबह कुत्ते को डालनी पड़ेगी।
कहने का तात्पर्य यह है कि रोटी है या नहीं लेकिन मनुहार अवश्य है। रोटी बेकार होगी इससे अच्छा है कि इसका उपयोग हो जाए। लेकिन कभी किसी ने सुना है कि जेब में धेला नहीं और कोई कह रहा हो कि ले पैसे ले ले। या कोई कह रहा हो कि ले ले पैसे, नहीं तो बेकार ही जाएंगे। रोटी तो बेकार नहीं जाती लेकिन पैसे हमेशा बेकार ही जाते हैं। मनुहार तो छोड़ो, हिम्मत ही नहीं होती पैसे खर्च करने की। कल मुझे एक चीज मंगानी थी, ऑनलाइन देखी, मिल रही थी। फिर कीमत देखी तो कुछ समझ नहीं आया, ऐसा लगा कि 500 रू. की आधाकिलो है। मैंने पतिदेव को बताया कि यह चीज लानी है, यदि बाजार में मिल जाए तो ठीक नहीं तो ऑनलाइन मंगा लूंगी। जैसे ही 500 रू. देखे, एकदम से उखड़ गये, मैंने कहा कि क्या हुआ। ऐसा लगा कि सेट होने में कुछ समय लगा लेकिन फिर मैंने देखा कि 90 रू.की 200 ग्राम है। 90 रूपये देखते ही बोले कि कल ही ले आऊंगा। यह है हम सबकी मानसिकता, पैसे का पाई-पाई हिसाब और मन का कोई मौल नहीं। इतना ही नहीं यदि कोई वस्तु गुम हो गयी और वह मंहगी है तो चारों तरफ ढिंढोरा और सस्ती है तो चुप्पी। हमें चीज खोने का गम नहीं लेकिन मंहगी चीज खोने का गम है।
हम सब पैसे के पीछे दौड़ रहे हैं, जितना संचय कर सकते हैं करने में जुटे हैं लेकिन यह भी बासी होगा और इसका उपयोग कौन करेगा, कोई चिंतन ही नहीं है। कोई नहीं कहता कि खर्च कर लो नहीं तो बेकार ही जाएगा। रोटी तो बासी हो जाती है, कुत्ते को डालनी पड़ती है लेकिन पैसा बासी नहीं होता। पैसे की मनुहार भी हम अपने बच्चों से ही करते हैं – बेटा रख ले, काम आएगा, माँ अपने पल्लू से निकालकर बेटे की जेब में डालती जाती है। लेकिन यदि बेटे को जरूरत नहीं है तो इसका क्या उपयोग होगा हम समझना ही नहीं चाहते। बस संग्रह में लगे हैं, उसका समुचित उपयोग करने में भी हम पीछे हट जाते हैं। अपने मन की नहीं करने पर हमारा मन कितना पीड़ित हुआ इसका हिसाब कोई नहीं लगाता लेकिन करने पर कितना पैसा खर्च हुआ, हर आदमी गाता फिरता है। हम घूमने गये, वहाँ कितना खर्चा किया और कितना हम वसूल पाये, इसका तो हिसाब लगाते रहे लेकिन हमारा मन कितना तृप्त हुआ ऐसा हिसाब नहीं लगा पाए। हमारे मन को जो हमारी आत्मा से जुड़ा है, अतृप्त छोड़ देते हैं और पैसे को जोड़-जोड़कर संचय करते रहते हैं। मन क्षीण होता जाता है और पैसे के ढेर लग जाते हैं। काश पैसा भी बासी होने लगे, कुत्ते की जगह अपनों को ही खिलाने का रिवाज बन जाये या फिर सभी परिवारजन को मनुहार से देने का मन बन जाए।

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2 Comments

  1. वाह! एकदम मौलिक चिंतन. सचमुच पैसे को बासी हो जाना चाहिए. पर, लोगबाग बासी, सड़ांध युक्त (कालाधन) पैसे को गले में लटकाकर अधिक सुकून महसूसते हैं!

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