अभी सुबह कोहरा छाया हुआ है, सूरज देवता को रजाई से निकलने का मन नहीं हो रहा है, चिड़ियाएं भी पहले की तरह चहचहा नहीं रही हैं। शायद सूरज को सर्दियों की छुट्टिया मिली हैं। लेकिन की-बोर्ड की खटरागियों को छुट्टी का प्रावधान नहीं है। चाहे कोहरा हो या फिर चिलचिलाती धूप हो, सदा लिखने को आतुर बने रहते हैं। घर में घुसे रहते हैं तब भी की-बोर्ड खटखट करता है और बाहर घूमने जाते हैं तब भी लेपटॉप को चैन नहीं। आजकल तो मोबाइल में भी सुविधा है अपने मन की खुन्नस निकालने की, जब चाहे मन हलका किया जा सकता है। हमारे पूर्वज मूड बनाते थे, सुबह पूजा-पाठ करके कागज-कलम लेकर बैठते थे और अपने मन को स्याही द्वारा बाहर निकालते थे। लेकिन आजकल मामला आनन-फानन का है, इधर विचार आता है और उधर विचार फेसबुक पर चिपक जाता है। उसके परिपक्व होने का इंतजार भी नहीं रहता। मजेदार बात तो यह है कि जैसे ही आपने अपने विचारनुमा फल को फेसबुक नामक पेड़ पर टांका, बस वैसे ही दुनाली चलने लगती है, कुछ देखकर कहते हैं कि अच्छा है और लाइक बोलकर आगे बढ़ जाते हैं लेकिन कुछ अपनी दुनाली तान लेते हैं। निशाना साधकर फल को तोड़ने का प्रयास करते हैं। बेचारा लेखक उसके बचाव में निकल आता है, चारो तरफ से मेड़-बन्दी करने लगता है। जैसे तैसे उस फल की सुरक्षा कर पाता है। कभी-कभी तो चतुर-सुजान उसे टपका भी देते हैं। लेकिन आज कोहरा है, फल को लेकर लेखक भी रजाई में दुबक रहा है। बस हम जैसे खिटपिटये रजाई से निकल गए हैं और अपने शब्दों को जाँचने में लगे हैं कि वे जमे तो नहीं हैं। खिड़की से कोहरे का आनन्द लेते हुए शब्द धीरे-धीरे सकुचाते हुए बाहर आ रहे हैं। अरे डरो मत, तुम्हें पाला नहीं पड़ेगा, पाला पड़ना ही है तो बाहर पेड़ों पर पड़ जाएगा, तुम तो निश्चिंता से बाहर निकलो।
सड़क पर आवागमन भी कम है, हार्न की चिल्लाहट भी कभी-कभी ही कान फोड़ती है। रिवर्स गियर के हार्न जो कौवे की तरह काँव-काँव करके कर्कशता का परिचय देते हैं, वे तो अभी ना के बराबर ही हैं। बस दुख तो सरकारी कर्मचारियों को है कि उनकी सी-एल समाप्त हो गयी हैं, और उन्हें दफ्तर जाना ही पड़ेगा। प्राइवेट वाले आज खुश हैं कि अब ये सरकारी कर्मचारी भी ऊँट की तरह पहाड़ के नीचे आ ही गया। कोहरे ने बच्चों को भी सूरज की तरह आराम दे दिया है, स्कूल अब सूरज के साथ ही खुलेंगे। बच्चे घर पर ही धमा-चौकड़ी करके गर्माहट पैदा कर रहे हैं। गृहणियों ने रसोई को सम्भाल लिया है, अब वे चूल्हे को याद कर रही हैं। पहले चूल्हे से पूरा रसोईघर गर्म हो जाता था लेकिन अब इस गैस वाले चूल्हे से 6 इंच दूर भी गर्मी नहीं आती। गुड़ और तिल के ठाट हो रहे हैं, बस सभी इनकी चाहत में पगला रहे हैं। मक्की, बाजरा आदि पुरातन धान भी अब नवीन कपड़ों के साथ चमक रहे हैं। तरह-तरह के पकवान में वे थाली पर आकर बिराज जाते हैं। आधुनिक लोग चाहे कितने ही केक और पेस्ट्री के दीवाने हों, लेकिन अभी तो हलुवे के ही दिन हैं। बचपन में अंगीठी होती थी, ऊपर कढ़ाई में हलुवा बनता था और नीचे मूंगफली सिकती थी। इमामदस्ते में तिल और गुड़ भी कुटता था। कभी पिण्ड-खजूर भी अपनी छटा बिखरेती हुई कटोरी में आ जाती थी। जब सूरज भाईसाहब को ठण्ड उड़ती थी और उनकी रजाई छूटती थी तब हम सब भी खटिया पर धूप सेंकने आ ही जाते थे। अब कहां से लाएं खटिया और कहां से लाएं खटिया डालने की जगह? अभी कुछ वर्ष पहले वृन्दावन गए थे, ऐसा ही ठण्डा मौसम था। कोहरा अपनी छटा के साथ उपस्थित था, घूमने के लिए जैसे ही होटल से बाहर निकले तो देखा कि ठेले पर मूली सजी है। इतनी ठण्ड में मूली भी आकर बिराज गयी ठेले पर? लेकिन उसकी शान कुछ ऐसी थी कि हम अपने आपको रोक नहीं पाए और ठेले तक जा पहुंचे। जब ठेले वाले ने बड़े सलीके से उसे काटकर मसाला और चटनी डालकर दिया तो मुँह तो पानी से भर गया। देखते ही देखते हमारे साथियों की भीड़ ठेले पर थी और जैसे लूट मची हो, उसी अंदाज में मूली को पाने की होड़ लग गयी थी। ठण्ड में सफेद पड़ी मूली ने सभी को ताजा कर दिया था। भगवान भी मूली, सन्तरा आदि को ठण्ड में भेज दिया कि इन रजाई ओढ़ने वालों को बाहर निकालो। वाकयी में सर्दी के दिन हो और धूप खिली हो उस समय मूली और संतरे खाने का आनन्द ही कुछ और है।
सारे खिड़की-दरवाजे बन्द है फिर भी ठण्ड अन्दर घुस आयी है और की-बोर्ड पर खटखट करती अंगुलियां अब ठण्डी पड़ने लगी हैं। इसलिए विराम। नहीं तो सर्दी और कोहरे का मौसम तो ऐसा बना है कि लिखते ही रहो, बस लिखते ही रहो। चलो आप सब मिलकर आगे की बात लिखना, मै तो चली रसोई में। कुछ गर्मी लेने। राम राम।
छाया कोहरा और सर्दी – ब्लॉग्गिंग में गर्मी लाएगी.
डॉक्टर दी, सर्दियाँ भी ब्लॉगर्स के लिये एक लिखने का बहाना बन जाती है बजाए इसके कि आराम से रजाई में बैठकर पुरानी यादों की गर्मी महसूस की जाए!!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति…!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शुक्रवार (03-01-2014) को “एक कदम तुम्हारा हो एक कदम हमारा हो” (चर्चा मंच:अंक-1481) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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ईस्वीय सन् 2014 की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
लो जी, यहाँ भी यही हाल है बस इसी की कमी थी पिछले दो-तीन दिन से लगातार बारिश हो रही थी। आज बड़े दिनों बाद सूर्य नारायण ने अपना सोणा मुखड़ा दिखया था। और “झलक दिखला जा” में भाग लिया ही था कि हमारे मुँह से निकली हुई उनकी तारीफ उन्हें बरदाश नहीं हुई और गुस्सा होकर मुँह फुलाकर बादलों की रज़ाई लिए कहीं छिप गए महाराज और हम कहते ही रह गए…. आखियाँ हरी दर्शन को तरसें…:)
पल्लवी जी, यहां केवल आँख-मिचौनी है। सूरज भैया एकदम से हड़ताल नहीं करते हैं।
ठण्ड में ही तो रजाई और कम्बल प्रिय लगता है ! सूरज को भी ….
नया वर्ष २०१४ मंगलमय हो |सुख ,शांति ,स्वास्थ्यकर हो |कल्याणकारी हो |
नई पोस्ट विचित्र प्रकृति
नई पोस्ट नया वर्ष !
हम तो सिर्फ याद नहीं करते , याद ताजा कर लेते हैं। चूल्हे पर बाजरे का खिचड़ा पका कर 🙂
वाणीजी आपने तो सर्दी में हमारे मन में ललक पैदा कर दी, बाजरे का खिचड़ा तो बस जयपुर जाने पर ही मिलता है। आप तो चूल्हे पर बना रही हैं वाह।
waah kya chitran hai! aapki kalam me kisi bhi situation ka khaka sakaar karne ki adbhut taakat hai, Ajit Ji!
अर्चना, लेखक तो पाठकों की वाह वाह से ही बनता है। तुम्हारे एक वाह की कीमत लाखों रूपये हैं। आभार।
ठण्ड ,रजाई , कोहरा ,खटिया और धुप सेकना हम लोगो के लिए तो अजनबी से है ,ये सब हम मुम्बई वालो के नसीब में नहीं , अभी भी पंखा अपनी रफ़्तार पर है 🙁
ठंड का अपना अलग ही मजा है।घर में बनी मटर की कचोडीयां,मेवे के लड्डू,का आनंद बाहर कंहा हैै़?