द्वितीय कड़ी –
उनके पिता सफल एडवोकेट थे और वे अपनी वकालात के सिलसिले में कलकत्ता से बाहर अक्सर जाते रहते थे। एक बार वे रायपुर गए और उनके एक मुकदमें में उन्हें वहाँ कई वर्षों तक रहना पड़ा। ऐसे में उनके पिता ने भुवनेश्वरी देवी और परिवार को रायपुर ही बुला लिया। दो वर्ष तक नरेन्द्र रायपुर रहे। उनकी विद्यालयीय शिक्षा छूट गयी। रायपुर से लौटने के बाद जब वे पुन: विद्यालय गए तब उन्हें दसवीं की परीक्षा देने से वंचित कर दिया गया। लेकिन नरेन्द्र ने विद्यायल के प्रधानाध्यापक श्री ईश्वर चन्द विद्यासागर को विश्वास दिलाया कि वे परीक्षा में अच्छे नम्बरों से पास होकर दिखाएंगे। नरेन्द्र के विश्वास दिलाने के बाद आखिर नरेन्द्र को परीक्षा देने की अनुमति मिली और वे अकेले ही कक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। इन वर्षों में उन्होंने अनेक पुस्तकों का अध्ययन किया। उन्होंने कभी भी शिक्षा को अर्थोपार्जन का साधन नहीं माना इसी कारण वे परीक्षा के समय पर ही पाठ्यपुस्तकों को पढ़ते थे, शेष समय में वे केवल ज्ञान प्राप्त करते थे। एक बार परीक्षा सर पर थी और एक पुस्तक को उन्होंने हाथ भी नहीं लगाया था। पुस्तक बड़ी भी थी और गूढ़ भी। उनके सभी साथियों को नरेन्द्र से उस विषय में जानकारी प्राप्त करनी थी, इसी कारण वे उदास थे। लेकिन नरेन्द्र ने उस पुस्तक को लिया और एक छोटी सी कोठरी में घुसकर पुस्तक का अध्ययन प्रारम्भ किया। तीन दिन तक उन्होंने उसे पढ़ा और दोस्तों के समक्ष उपस्थित हो गए। अब बोले कि पूछो तुम्हें क्या पूछना है? दोस्त हैरान थे कि इतनी बड़ी पुस्तक को भला तीन दिन में कोई कैसे पढ़ सकता है? लेकिन उन्होंने उसकी वृहत् व्याख्या की।
उनके पिता उन्हें एडवोकेट बनाना चाहते थे, लेकिन उनकी इसमें कोई रुचि नहीं थी। परिवार में भी विपत्ति आने लगी थी। सारे घर का भरण-पोषण करने वाले उनके पिता समाज में “दाता” के नाम से प्रसिद्ध थे। लेकिन उनके काका ने ही उनकी सम्पत्ति को हड़पना प्रारम्भ कर दिया था। उस समय उनका परिवार संयुक्त परिवार था इसी कारण वे अपनी सम्पूर्ण आय अपने काका के हाथ में रखते थे। इसीकारण उनके पास कुछ शेष नहीं बचता था। काका की मृत्यु के बाद उनकी काकी ने एक दिन कोर्ट से उन्हें नोटिस भिजवा दिया कि विश्वनाथ दत्त एक विधवा के मकान पर कब्जा किये हुए हैं। वे शर्म से गड़ गए और उन्होंने अपना पैतृक घर छोड़ दिया और एक छोटे से किराए के मकान में आ गए। नरेन्द्र की पढ़ाई में व्यवधान ना आए इस कारण उसके लिए एक कमरा अलग से किराए पर लिया गया। नरेन्द्र सारा दिन ब्रह्म समाज आदि में अपना दिन व्यतीत करते थे और केवल रात्रि में अपने कमरे में आते थे। वहाँ वे घण्टों ध्यान लगाते थे और अध्ययन करते थे। उनके छोटे से कक्ष में केवल पुस्तकों के अतिरिक्त और कुछ नहीं था।
नरेन्द्र के कक्ष के सामने एक भवन था, वहाँ एक बाल विधवा युवती रहती थी। उसने खिड़की से नरेन्द्र को देखा और उनपर आसक्त हो गयी। उसे लगा कि नरेन्द्र का भी उसे आमन्त्रण है और एक रात वह उनके कक्ष के सामने उपस्थित हो गयी। उसने नरेन्द्र के कक्ष का दरवाजा खटखटाया, दरवाजा खुला हुआ ही था। नरेन्द्र ने एक युवती को अपने समझ खड़े पाया तो वे घुटनों के बल बैठकर बोले कि – माँ आपको क्या चाहिए? युवती शर्मिन्दा हुई और तत्काल ही वहाँ से चले गयी। लेकिन नरेन्द्र समझ चुके थे कि उनका इस प्रकार अकेले कक्ष लेकर रहना उचित नहीं है। उन्होंने दूसरे दिन प्रात:काल में ही अपना सामान समेटा और अपनी नानी के घर जा पहुँचे। घर वालों ने उनसे बहुत पूछा कि कमरा छोड़ने का कारण क्या है, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं बताया। अब वे नानी के साथ रहने लगे थे। ऊनके पिता अपना घर वापस लेने के लिए एक तरफ मुकदमा लड़ रहे थे तो दूसरी तरफ आर्थिक संकट से भी घिरने लगे थे। उन्होंने अपने मित्र के साथ मिलकर कम्पनी बनायी थी, रायपुर जाने के बाद उनके मित्र ही उस कम्पनी को चला रहे थे। उनके मित्र ने उस कम्पनी को नुक्सान में पहुंचाया और बड़ी मात्रा में ॠण भी ले लिया। यह ॠण श्री विश्वनाथ दत्त के नाम पर लिया गया और उसकी जिम्मेदारी भी विश्वनाथ दत्त पर ही डाल दी। इस कारण नरेन्द्र के पिता पर दोहरा भार आ गया था। उनके पास नरेन्द्र के विवाह का प्रस्ताव आया और वधु-पक्ष उन्हें दस हजार रूपए के साथ ही नरेन्द्र को विलायत में पढ़ाने की सुविधा प्रदान कर रहे थे। उन्हें लगा कि यदि यह सम्बन्ध हो जाए तो मैं सारी कठिनाइयों से बच जाऊँगा और नरेन्द्र भी एडवोकेट हो जाएगा। लेकिन नरेन्द्र तो विवाह के लिए ही तैयार नहीं थे। उन्होंने स्पष्ट मना कर दिया।
नरेन्द्र को परिवार की स्थिति के बारे में कुछ भी ज्ञान नहीं था, वे अपनी साधना में ही रत थे। विभिन्न कार्यक्रमों में उनके संगीत के बिना सबकुछ फीका था इसलिए हमेशा उनके भजनों की मांग बनी रहती थी। इस बीच ठाकुर (रामकृष्ण परमहंस) का भी विशेष स्नेह नरेन्द्र को मिलने लगा था। ठाकुर उनके बिना तड़पने लगते थे और वे अपने भक्तों के माध्यम से नरेन्द्र को दक्षिणेश्वर बुला लेते थे। वहाँ जाकर नरेन्द्र घण्टों ठाकुर को भजन सुनाते थे। कई बार ठाकुर उन्हें रात को भी वहीं रोक लेते थे। लेकिन इतना होने के बाद भी नरेन्द्र कभी भी काली मन्दिर नहीं गए थे। ना ही उन्होंने ठाकुर को अपना गुरु माना था। ठाकुर कहते थे कि शिष्य को अपने गुरु को दिन में भी परखना चाहिए और रात को भी परखना चाहिए। ठाकुर शिक्षित नहीं थे लेकिन उनका ज्ञान सदैव नरेन्द्र को प्रभावित करता था। नरेन्द्र के प्रति उनका वात्सल्य समझ के परे था। वे कहते थे कि मेरे प्रभु नरेन्द्र की आत्मा में बसते हैं। इसका अनुभव उन्होंने नरेन्द्र को भी कराया था। कई बार ऐसा हुआ कि नरेन्द्र दक्षिणेश्वर नहीं जाना चाहते थे लेकिन किसी शक्ति के अधीन वे वहाँ चले जाते थे। वे चुपचाप एक कोने में बैठ जाते थे लेकिन ठाकुर उन्हें अपने पास बुलाकर अपने हाथों से मिठाई खिलाते थे।
एक रात विश्वनाथ दत्त घर लौटे और बैचेनी का अनुभव करने लगे। विश्राम के बाद थोड़ा भोजन भी उन्होंने लिया लेकिन कुछ ही देर बाद उन्हें वमन हुई और प्राण त्याग दिए। नरेन्द्र उस समय अपने किसी मित्र के घर पर थे। उन्हें वहीं समाचार दिया गया। अब नरेन्द्र की दुनिया बदल चुकी थी। उन्होंने अर्थ की कभी चिन्ता नहीं की थी लेकिन पिता की मृत्यु के बाद ऐसी विकट स्थिति की कल्पना उन्हें नहीं थी। उन्होंने अपनी माता से प्रश्न भी किया कि तुमने मुझे कभी बताया क्यों नहीं? माँ ने कहा कि सभी कुछ तो तुम्हारे समाने हो रहा था लेकिन तुम्हारा ध्यान तो परिवार में था ही नहीं। अब उनके परिवार की एकमात्र चिन्ता थी की कैसे भी घर का मुकदमा जीता जाए और परिवार-संचालन के लिए अर्थ की व्यवस्था की जाए। भुवनेश्वरी देवी ने अपने गहने भी कर्जदारों को दे दिए और अब उनके पास शेष कुछ नहीं बचा था। समाज में जिस पुरुष की “दाता” के नाम से पहचान थी उसकी यह दशा है, कोई नहीं समझ सकता था। नरेन्द्र पर पुन: विवाह का दवाब पड़ने लगा। उन्हें नौकरी के लिए भी बाध्य किया गया। लेकिन उन्हें नौकरी मिली ही नहीं। आखिर वे ईश्वर चन्द विद्यासागर के पास गए और वहाँ एक शिक्षक की नौकरी पर लगे। उनकी माँ ने उन्हें विवाह के लिए बहुत समझाया आखिर वे परिवार की स्थिति देखकर मौन हो गए। उनकी मौन स्वीकृति मान ली गयी लेकिन इस बार लड़की वालों ने ही उनके परिवार की गरीबी को जानकर रिश्ते को ठुकरा दिया। ठाकुर नरेन्द्र से मिलने घर आए और उनसे कहा कि दक्षिणेश्वर आना। एक दिन नरेन्द्र दक्षिणेश्वर गए और ठाकुर के सामने अपने परिवार की चिन्ता व्यक्त की। ठाकुर ने इससे पूर्व भी अपने भक्तों से नरेन्द्र की नौकरी ने लिए कहा था लेकिन कहीं भी सफलता हाथ नहीं लगी। ठाकुर ने कहा कि मैं कौन होता हूँ कुछ देने वाला, यदि मांगना ही है तो जा माँ से मांग। नरेन्द्र पहली बार काली मन्दिर गए और माँ के समक्ष चरणों में लौट गए। उन्होंने माँ से ज्ञान, साधना और भक्ति ही मांगी। वे धन नहीं मांग सके। ठाकुर के पास आकर नरेन्द्र ने बताया कि मैंने भक्ति ही मांगी है तब ठाकुर हँसे और कहा कि जा दोबारा जा, और मांग। नरेन्द्र दोबारा गए लेकिन इस बार भी वह ज्ञान और भक्ति ही मांग कर आ गए। ठाकुर ने उन्हें तीसरी बार माँ के समक्ष भेजा लेकिन नरेन्द्र इस बार भी असफल रहे। आखिर वे हारकर ठाकुर से बोले कि मैं नहीं मांग सकता, यदि देना है तो आप ही मुझे दीजिए। तब ठाकुर ने उनके सर पर हाथ रखकर कहा कि जा, तेरे परिवार को मोटे अनाज और मोटे वस्त्र की कमी नहीं रहेगी।
लेकिन कुछ दिनों बाद ही पता लगा कि ठाकुर के गले में केंसर हो गया है। अब उनके युवा भक्तों की चिन्ता बढ़ गयी। वे ठाकुर की चिकित्सा कराना चाहते थे और यह भी जानते थे कि यह रोग असाध्य है। लेकिन ठाकुर को बिना चिकित्सा के तो नहीं छोड़ा जा सकता था। नरेन्द्र और उनके साथियों ने निश्चय किया कि ठाकुर को कलकत्ता लाया जाए क्योंकि दक्षिणेश्वर कलकत्ता से दूर था और कोई भी डॉक्टर वहाँ जाने को तैयार नहीं होगा। लेकिन समस्या थी कि कलकत्ता में कहाँ रखा जाए? इस युवा टोली के सभी सदस्य सम्पन्न परिवारों के नहीं थे। दो-तीन भक्तों ने उत्तरदायित्व लिया कि हम ठाकुर के लिए आर्थिक सहायता उपलब्ध कराएंगे। लेकिन किसी भी भक्त के यहाँ ठाकुर को ज्यादा दिन रखना कठिन हो गया। अब यह निश्चित किया गया कि अलग से मकान किराए पर लेकर ठाकुर को वहाँ रखा जाए। इस स्थिति में धन की भी आवश्यकता थी और सेवाभावी शिष्यों की भी। नरेन्द्र ने कहा कि मैं रात-दिन ठाकुर की सेवा करने को तैयार हूँ। सभी ने उसे समझाया कि तुम्हारी अभी नयी नौकरी है, परिवार है और तुम्हें कोर्ट के चक्कर भी लगाने पड़ते हैं। तुम्हारी अभी पढ़ाई भी चल रही है। लेकिन नरेन्द्र ने स्पष्ट कर दिया कि मैं ठाकुर के लिए एक नौकरी तो क्या सबकुछ छोड़ सकता हूँ। उन्होंने अपने मित्र को कहा कि वो स्कूल जाकर विद्यालय के प्राचार्य श्री ईश्वर चन्द विद्यासागर को बता आए कि मैं अनिश्चित काल तक विद्यालय नहीं आ सकता। यदि उन्हें स्वीकार हो तो ठीक नहीं तो मेरा त्यागपत्र मान लें। आखिर उनकी नौकरी छूट गयी। नरेन्द्र अब पूर्णतया: ठाकुर की सेवा में लग गए। उनका घर जाना भी छूटता जा रहा था। कचहरी की जब पेशी होती थी तब वे वकील से मिल आते थे। उनकी कानून की पढ़ाई भी चल रही थी तो वह दिन में जब भी समय मिलता था, थोड़ा समय पढ़ाई के लिए निकाल लेते थे।
लेकिन ठाकुर का रोग असाध्य था और उनकी स्थिति सुधरने के स्थान पर खराब होती जा रही थी। नरेन्द्र और उनके साथी पूर्ण मनोयाग पूर्वक ठाकुर की सेवा में लगे थे। लेकिन उन सभी की साधना भी जारी थी, वे जब भी समय मिलता था, ध्यान लगाने बैठ जाते थे। नरेन्द्र तो रात-रातभर ध्यान लगा सकते थे। एक दिन नरेन्द्र ध्यान लगाने बैठे और उनकी साँस गति रूक गयी, हाथ की नाड़ी में भी स्पन्दन नहीं था। उनके मित्र नरेन्द्र की यह स्थिति देखकर घबरा गए और सीधे दौड़कर ठाकुर के पास गए। ठाकुर ने कहा कि उसे कुछ नहीं होगा। उनके मित्र रो रहे थे, कि नरेन्द्र हमें छोड़कर चले गया लेकिन ठाकुर निश्चिंत थे। कुछ मिनटों बाद ही नरेन्द्र ने आँखें खोल दी। ठाकुर ने एक दिन अपने शिष्यों को बुलाया और कहा कि आज मैं तुम्हें वो देना चाहता हूँ जिसके तुम हकदार हो। उनके पास सभी के लिए पीत वस्त्र थे और उन्होंने सभी को संन्यास के वस्त्र देकर सभी को दीक्षित कर दिया। एक दिन ठाकुर ने नरेन्द्र को ध्यान लगाने को कहा और ध्यानावस्था में नरेन्द्र को अनुभव हुआ कि कोई ज्योति उनके अन्दर प्रवेश कर गयी है। नरेन्द्र ठाकुर के पास आए और ठाकुर बेसुध से पड़े थे। उन्होंने कहा कि मैंने सबकुछ तुझे दे दिया है। सभी शिष्यों को बुलाकर भी कह दिया कि अब नरेन्द्र के नेतृत्व में तुम्हें रहना है। नरेन्द्र को भी कहा कि इन शिष्यों का ध्यान रखना अब तुम्हारा कर्तव्य है।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस के स्वर्गवास के बाद सारे शिष्यों के लिए चिन्ता का विषय था कि उनके अस्थि कलश को कहाँ रखा जाए और गुरु-माता के रहने की क्या व्यवस्था की जाए? वे सभी चाहते थे कि एक मठ की स्थापना हो, लेकिन इसके लिए आवश्यक धन का अभाव था। उनके सम्पन्न शिष्यों ने ठाकुर पर एकाधिकार जताने का प्रयास किया तो यह नरेन्द्र और अन्य शिष्यों को स्वीकार नहीं हुआ। आखिर वे सब संन्यास के वस्त्र पहनकर भिक्षा के लिए नगर में निकल पड़े। जो भी समाज से मिला उसी से अपना भरण-पोषण करने लगे। इसमें अधिकतर उपवास ही होता था। आखिर एक शिष्य को आभास हुआ कि ठाकुर उससे कह रहे हैं कि मठ स्थापना तुम करो। तब उनके उस शिष्य ने मठ के लिए एक किराये का मकान लिया और अपनी तरफ से 40-50 रूपये का प्रतिमाह सहयोग करने का वचन दिया। नरेन्द्र का अब अपने घर जाना लगभग छूट चुका था लेकिन तब भी उन्हें अपनी माँ की चिन्ता थी। उन्होंने अपनी माँ को नानी के पास जाकर रहने का परामर्श दिया और माँ आखिरकार अपना स्वाभिमान त्यागकर अपनी माँ के पास अपने दो बेटों को लेकर चले गयी। मठ की स्थापना हो चुकी थी और स्वामी रामकृष्ण परमहंस का अस्थि-कलश भी वहाँ स्थापित कर दिया गया था। नरेन्द्र ने संन्यास लेने के कारण अपने सभी गुरु-भाइयों के नाम परिवर्तित कर दिए लेकिन स्वयं का नाम नरेन्द्र ही रहने दिया। उनका कहना था कि अभी मैं अपने मकान के केस में उलझा हुआ हूँ इस कारण मेरे नाम परिवर्तन से उस केस पर विपरीत असर पड़ेगा और माँ को उनका जायज अधिकार प्राप्त नहीं होगा।
नरेन्द्र स्वयं को एक स्थान पर बांधकर नहीं रख सकते थे, वे भारत को देखना चाहते थे। अत: कलकत्ता से अचानक ही वे अपनी गुरु-माता से आशीर्वाद लेकर चले गए। उनके साथ उनके गुरुभाई – गंगा (अखंडानन्द) थे। उनका मन था कि वे हिमालय जाएं लेकिन जब भी उधर जाने का प्रयास करते, उनके सामने कोई न कोई बाधा उपस्थित हो जाती। व़े अल्मोड़ा, नैनीताल, देहरादून, मेरठ, दिल्ली, सहारनपुर आदि स्थलों पर गए लेकिन उनके साथी अखडानन्द का स्वास्थ्य खराब हो गया। व़े स्वयं भी बीमार हो गए। लेकिन जब वहाँ के लोगों ने एक संन्यासी को अंग्रेजी बोलते हुए सुना और उनके ज्ञान से प्रभावित होकर आखिर में ना केवल उनके रहने और भोजन की व्यवस्था की गई अपितु वे सब नरेन्द्र को वही रुकने का भी आग्रह करने लगे। प्रारम्भ में लोगों ने भिखारी कहा लेकिन भिखारी कहने वाले लोगों ने शीघ्र ही अपनी भूल स्वीकार की। मेरठ में वे काफी दिन रहे क्योंकि उन्हें ज्वर हो गया था। अखंडानन्द उनके लिए मेरठ पुस्तकालय से पढ़ने के लिए पुस्तक लाते थे। एक बार का वाकया है कि वे अंग्रेजी साहित्याकर जॉन लब्बन का समग्र साहित्य जो तीन खण्डों में था पढ़ना चाह रहे थे। उन्होंने अखण्डानन्द को मेरठ पुस्तकालय से लाने को कहा। वे प्रथम दिन प्रथम खण्ड लेकर आए और दूसरे ही दिन उसे वापस करके दूसरा खण्ड ले गए और तीसरे दिन जब दूसरा खण्ड लौटाकर तीसरा लेने आए तो पुस्तकालयाध्यक्ष के तेवर अलग थे। वे उन्हें डांटने लगा कि तुमने क्या बच्चों का खेल समझ रखा है जो प्रतिदिन एक पुस्तक ले जाओंगे और फिर उसे लौटाकर दूसरे दिन दूसरी ले जाओंगे? गंगा ने कहा कि मेरे गुरुभाई इन्हें पढ़ रहे हैं, यदि आपको आपत्ति है तो वे ही आकर ले जाएंगे। आखिर नरेन्द्र वहाँ गए। उन्होंने पुस्तकालयाध्यक्ष से कहा कि यदि आपको संदेह है कि मैंने इन पुस्तकों को बिना पढ़े ही लौटा दिया है तो आप मेरी परीक्षा ले सकते हैं। पुस्तकालयाध्यक्ष को समझ नहीं आया कि इतनी बड़ी पुस्तक को कोई एक दिन में कैसे पढ़ सकता हैं। लेकिन नरेन्द्र ने उन्हें मौन कर दिया। यह थी नरेन्द्र की स्मरण शक्ति। इसके बाद उन्होंने कई बार प्रयन्त किया कि वे हिमालय जाएं लेकिन वे हिमालय नहीं जा पाएं क्योंकि उन्हें लगा कि माँ का आदेश नहीं है कि वे हिमालय जाएं। वे वृन्दावन आ गए। वृन्दावन की गली-गली को अपने पैरों से ही नापते रहे। कभी आश्रय मिला और कभी नहीं, कभी भोजन मिला और कभी नहीं। एक दिन उन्होंने संकल्प लिया कि आज भिक्षा नहीं मांगूगा, यदि माँ ही मेरे लिए भोजन का प्रबंध कराएगी तो ही भोजन ग्रहण करूंगा। वे पैदल ही चलते रहे, वर्षा आने लगी, लेकिन फिर भी चलते रहे। वे कृष्ण भक्ति से सरोबार थे। कुछ देर बाद ही एक व्यक्ति उनकी ओर दौड़ता हुआ आया, चिल्लाकर बोला कि रूको, स्वामी, मैं तुम्हारें लिए भोजन लाया हूँ। लेकिन नरेन्द्र नहीं रूके। वे चलते ही रहे, उस व्यक्ति के पीछा करने के बाद वे भी दौड़ने लगे। वह व्यक्ति भी दौड़ने लगा आखिर उसने स्वामी को पकड़ ही लिया। बोला कि मैं आपके लिए भोजन लाया हूँ और आप हैं कि दौड़े जा रहे हैं! नरेन्द्र ने उसके हाथ से भोजन की पोटली ले ली और एक स्थान पर बैठकर उसे खोला। पोटली में गर्मागर्म भोजन था। वे कृष्ण की लीला देखकर अचम्भित थे। लेकिन उन्हें लगा कि यह संयोग हो सकता है, उन्होंने आगे की यात्रा जारी रखी। अब वे मुख्य मार्ग को त्यागकर वनीय प्रदेश में घुस गए। कुछ देर चलने पर उन्हें पानी का स्रोत मिला और वे कपड़े उतारकर स्नान करने चले गए। आने के बाद देखा कि उनका कोपीन वहाँ नहीं है। अब क्या करें? जंगल में तो इस स्थिति में रहा जा सकता है लेकिन शहर में तो सामाजिक मर्यादा से ही रहा जाएगा। वे अपने कोपीन को ढूंढने के लिए भटकते रहे लेकिन उनका कोपीन नहीं मिला। कुछ देर बाद उन्हें एक संन्यासी मिले, जिनके हाथ में एक कोपीन था। वे बोले कि लो तुम्हारा कोपीन। नरेन्द्र आश्चर्य चकित थे कि इन संन्यासी को मेरा कोपीन कहाँ मिल गया? लेकिन उन्होंने शीघ्रता से उस कोपीन को धारण कर लिया। जैसे ही आँखे उठाकर उस संन्यासी को धन्यवाद करते, वह संन्यासी वहाँ से जा चुके थे। अब नरेन्द्र का ध्यान गया कि यह कोपीन एकदम नया है। उन्हें आश्चर्य हुआ और वे पुन: उसी स्थान पर गए, जहाँ उन्होंने अपना कोपीन सुखाया था। उनका कोपीन वहीं था। नरेन्द्र कृष्ण को पाकर गदगद थे।
विशेष – विगत 15 दिनों से प्रवास पर होने के कारण द्वितीय कड़ी को पोस्ट करने में विलम्ब हुआ, इसके लिए खेद है।
बहुत अच्छी जानकारी दी स्वामी जी के बारे में
पहले पहली पढकर आती हूँ.
विवेकानन्द की प्ररक कहानी..विस्तार से बताने का आभार..
”तीन वर्ष तक नरेन्द्र रायपुर रहे।” पर मेरी जानकारी के अनुसार नरेन्द्र यानि स्वामी विवेकानंद दो वर्ष से कुछ कम समय रायपुर में रहे, लेकिन यह अवधि कलकत्ता के बाद किसी भी अन्य शहर में उनकी बिताई अधिकतम अवधि है.
राहुल सिंह जी, आपने सही कहा है, नरेन्द्र दो वर्ष ही रायपुर रहे, भूलवश तीन वर्ष लिखा गए। सुधार कर रही हूँ आपका आभार।
मैं श्री राहुल कुमार सिंह से पूरी तरह सहमत हूँ .क्योकि श्री आत्मानन्द जी से भी छात्र जीवन में संपर्क रहा है . आपका अकलतरा आगमन भी रहा …
स्वामी जी के प्रेरणादायी व्यक्तित्व से जुड़ी यह श्रृंखला अच्छी लग रही है ……अच्छी जानकारी मिल रही है उनके अद्भुत व्यक्तित्व से जुड़े प्रसंगों पर ……
काश देश को एक विवेकानंद और मिल जाएँ …
आभार आपका !
विवेकानंद का व्यक्तित्व समय और परिवेश की घटनाओं से प्रभावित जरूर रहा पर उनके इरादे को कोई डगमगा नहीं सका …
बहुत ही अच्छा लिखा है …
एक महामनिषी की जीवन गाथा पडः़अकर हम धन्य हो रहे हैं।
ब्लॉग जगत के लिए यह श्रृंखला धरोहर है।
डॉक्टर दी,
मेरे बेटे के हीरो हैं स्वामी विवेकानंद और मेरे लिए सबसे बड़ी खुशी की बात यही है कि इस पीढ़ी के बच्चे ने भी उन्हें अपना हीरो माना है..!
बहुत अच्छी जानकारी!
आदरणीय राहुल सिंह जी ने मेरे पुत्र के लिए एक पुस्तक भेजी थी जो शायद उसके लिए बहुत ही अनमोल तोहफा थी!!
ऐसे प्रेरक व्यक्तित्व ही समाज को दिशा देने में समर्थ होते हैं . हम जिस कुहासे से घिर गये हैं उसमें प्रकाश का आयोजन करने के लिये इनसे प्रेरणा लेकर जीवन का ढर्रा बदलना आज की आवश्यकता है .
‘नरेन्द्र’ की अद्भुत स्मरण शक्ति के बारे में जब जब पढ़ा, चकित ही होना पडा| कुछ लोग तो उन्हें अब तक ज्ञात सबसे ज्यादा आई.क्यू. वाले मनुष्य के रूप में मानते हैं|
बहुत रोचक रही यह कड़ी, इस पढ़ते समय दो बात ध्यान आ रही थीं| पहली, उनके रायपुर प्रवास के बारे में पढ़कर अंदाजा था कि राहुल भैया की टिप्पणी जरूर होगी और दूसरी, अभी दो तीन दिन पहले टी वी पर चलती एक बहस जिसमें ऐसी संभावना जताई जा रही थी कि गुजरात में ‘नरेन्द्र’ नाम के साम्य के जरिये ब्रेन वाशिंग का प्रयास हो रहा है|