अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

नो त्याग – नो आग।

Written By: AjitGupta - Jul• 12•16

त्याग और आग का चोली-दामन का साथ है। त्याग रूपी घी जब अग्नि को समर्पित होता है तब आग धधक उठती है। अक्षम-वृद्ध नेता से कुर्सी के त्याग की बात करने पर चिता समान अग्नि, नेता के तन और मन को जलाने लगती है। यौवन से भरपूर मदमस्त पुरुष को काम का त्याग, विरह अग्नि में जला कर राख कर देता है। अल्हड़ किशोर की महत्वाकांक्षा के त्याग की बात से ही वह दुनिया को आग लगाने के लिये तैयार हो जाता है। बचपन से खिलौने का त्याग करने को कहने मात्र से वह घर भर में कोहराम रूपी आग लगा देता है। सौ बात की एक बात की त्याग के साथ ही आग है। त्याग की बात कही नहीं की आग लपक कर आपका दामन पकड़ लेती है।
भारत में शताब्दियों से त्याग की महिमा गायी जाती है इसलिये यहाँ पर ही सर्वाधिक आग लगी रहती है। विदेशों में कहीं भी त्याग की बात नहीं है, तो देखिये कैसी ठण्डक है। मुस्लिमों ने कही कि तुम हमारे लिये शरीर त्याग कर दो, हम तुम्हें जन्नत में हूरें दिलवा देंगे। मतलब अकेला त्याग नहीं, सौदा कर लिया। इसाइयों ने तो त्याग केवल ईसामसीह के लिये ही छोड़ दिया, त्याग किया और सूली पर लटक गये। इसलिये यह त्याग रूपी आग इस देश में ही लगी है बाकि तो कहते हैं कि अपनी-अपनी सुध लो भाई। ना अपने के लिये और ना ही पराये के लिये कोई त्याग करो, इस दुनिया से लेना सीखो बस। देखो आज वे कितने सुखी हैं। उनके परिवारों में कोई झगड़ा ही नहीं है, क्योंकि परिवार ही नहीं हैं। जब जरूरत होती है एकत्र हो जाते हैं बाकि सब अपने में मस्त। यहाँ पैदा होते ही बल्कि पैदा होने के पूर्व ही उसे त्याग का हर सम्भव पाठ पढ़ाया जाता है, परिणाम क्या निकलता है वह पैदा होते ही जो रोना शुरू करता है, मरते दम तक रोता ही रहता है। दादा-दादी के लिये करना है, माता-पिता के लिये करना है, भाई-बहन के लिये करना है, इसके लिये करना है, उसके लिये करना है, बस करना है और करना है। वह कभी हँस ही नहीं पाता। अपने लिये जीने की सोच ही नहीं पाता।
बुद्धि ऐसी चीज होती है जो सबके पास होती है और यदि इसमें शिक्षा को साथ लगा दिया जाये तो आदमी अपना भला-बुरा सोचने-समझने लगता है। इसलिये जैसे ही चार अक्षर पढ़े और छोरा आपकी बगल से कसक कर, ये जाये और वो जाये हो जाता है। उसको त्याग की आग रॉकेट बना देती है, जहाँ तक उसकी उड़ान हो सकती है वह उड़ पड़ता है। सबसे सुरक्षित जगह है अमेरिका- सात समुन्दर पार। कितनी बार आओंगे त्याग कराने? वहाँ जाकर खुली हवा में पहली बार साँस लेता है और अपने लिये जीने का अर्थ ढूंढने लगता है। लेकिन जो समझदार माता-पिता हैं वे छोरे को पढ़ाते ही नहीं, बेटा यहीं पास रहकर खेती कर या मजूरी, लेकिन त्याग कर। आदिवासियों को देखो, जवानी में ही बुढ़ा जाते हैं। त्याग की आग में जलकर पूरी बोतल शरीर में उंडेल लेते हैं और नाली किनारे लोटपोट होते रहते हैं, बेचारे।
सबसे ज्यादा त्याग तो महिला के हिस्से आ जाता है, अपना घर भी त्याग दो, तुम्हें दूसरे का घर बसाना है। यौवन का सुख भी त्याग दो, तुम्हें संतान का पालन करना है। इतनी आग लेकर जीती है कि कभी-कभी तो खुद ही धधक जाती है। लोग उसे ज्वालामुखी कहने लगते हैं। सीता तक के पास इतनी आग थी कि सचमुच की आग तो उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकी। सीता के पास त्याग का फुल स्टॉक और फिर आग का तो होना ही था। इतना अधिक त्याग महिला के हिस्से आया कि अब इस संचित की हुई आग में वह सबकुछ भस्म कर देना चाहती है। अमेरिका की रसोई में यदि धुआँ भी हो जाये तो अलार्म बज जाता है लेकिन भारत की रसोई में साक्षात महिला भी जल जाये तो खबर नहीं लगती। वहाँ अनावश्यक त्याग नहीं है जी, तो धुएं से ही घबरा जाते हैं लेकिन यहाँ तो त्याग ही त्याग है और आग ही आग है।
फिर रही सही कसर जनता की आग ने लगा रखी है, सारे त्याग का ठेका उसके पास ही है। जनता ने राजधानी को ही आग लगा दी। बेटा हमसे त्याग की बात करते हो, हम तुम्हारे अंदर ऐसी आग धधकाएंगे कि तुम जिन्दगी भर नहीं भूलोंगे। ऐसा भरभूंट चिपकाया है कि चाहे जितना जोर लगा लो, कांटा तो रह ही जाएगा। हर आदमी को आग में भूनकर रख दिया है लेकिन ऐसा त्याग कहीं ओर दिखायी नहीं देता। अब राजनेता भी कहने लगे हैं कि जनता की आग से बचकर रहना भैया, इसे ज्यादा त्याग के लिये मत उकसाओ, नहीं तो यह कहीं भी आग लगा देगी। लेकिन जनता को क्या पता कि आग उन्हें ही झुलसा रही है। मेघ भी जोरदार बरस रहे हैं कि कैसे भी आग ठण्डी पड़े। थोड़ी ठण्डक हो तो फिर जनता को त्याग का पाठ पढ़ाना शुरू करें। इसलिये कभी त्याग पर ताली मत बजाना, वहाँ मंडराती आग को देख लेना और चुपके से खिसक लेना। इसलिये त्याग की बात करोंगे तो आग भी साथ आएगी और आग में खेलना हो तो जनता से त्याग की बात करना।
स्वर्ग में कहीं आग की सुनी है आप लोगों ने? वहाँ त्याग नहीं भोग की सत्ता है इसलिये एकदम शान्ति है। भोग के बाद ही शान्ति उपजती है। अप्सरायें हैं, सोमरस है, नवीन वस्त्र हैं, जीने के सारे ही साधन है बस अनावश्यक त्याग नहीं है। ना अप्सरा दुखी है और ना ही इन्द्र। कैसा अमन और चैन है! लेकिन पृथ्वी! सारे फसादों की जड़। पृथ्वी में भी भारत भूमि, त्याग की धरती। हमेशा वीरों की धरती बनी रही क्योंकि यहाँ त्याग की आग का भरपूर स्टॉक था। पिता जब तक स्वर्गवासी ना हो और पुत्र को सत्ता ही ना मिले तो पुत्र वीर बनेगा ही। यहाँ प्राचीन काल से ही आग ही आग है, न जाने कब तक रहेगी? त्याग की घुट्टी कब तक हमारे शरीर को यूँ ही धधकाती रहेगी? भगवान अब तो रहम करो। हमें अपने लिये भी जीने दो, हमसे ठेका हटा लो अब तो। त्याग का ठेका मोदीजी के साथ किसी दूसरे देश में भेजो अब। वे आसानी से इसे दूसरे के चिपका भी आएंगे, उनसे कहो कि योग दिवस से बाद त्याग दिवस मनाने की पृथा शुरू करा दें जिससे इस त्याग के देवता का ध्यान भारत से कुछ कम हो सके। हमारे यहाँ भी ठण्डी बयार बह सके। हम भी अपने लिये कुछ सोच सकें। फिर शान से कहेंगे कि नो त्याग – नो आग।

You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.

Leave a Reply