जिस दिन आपके मन से स्वत:स्फूर्त प्रेम समाप्त होने लगेगा उसी दिन से आप असभ्य होने लगेंगे। असभ्यता ना केवल आपके लिए अपितु सम्पूर्ण मानवता और सृष्टि के लिए अभिशाप बन जाएगी। इसका सटीक उदाहरण यदि देखना है तो किसी दुर्घटना के समय देखा जा सकता है। जब कुछ लोग धन के लालच में दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति के शरीर का अंग-भंग करके उसे लूट लेते हैं। यह असभ्यता की चरम सीमा है। हमारे अन्दर अन्य मनुष्यों के प्रति प्रेम-भाव का अभाव होने लगा है। प्रेमचन्द की कफन कहानी में तो यह असभ्यता अपनी पत्नि के प्रति ही दर्शायी गयी है। अर्थात जब प्रेम मानवता के प्रति सूखने लगता है तब यह प्रेम का पौधा अपनों के लिए भी सूख जाता है। प्रेम का प्रकटीकरण या उसका मापन दुख की घड़ी के समक्ष होता है। केदारनाथ में विपदा आयी और हम सब दुख में डूब गए, कुछ न कुछ करने के लिए हम सब उतावले हो उठे। यही मानवता के प्रति प्रेम हैं। लेकिन इस गमगीन घड़ी में भी कुछ लोग व्यापार कर गए, यही असभ्यता का उदय है। जब ऐसे समय भी व्यापार होने लगे तब असभ्यता उदय होने लगती है और इस असभ्यता के कारण अन्य मानवीय संवेदनाएं भी आगे बढ़ने से थम जाती हैं। कुछ मुठ्ठीभर लोगों का व्यापार सम्पूर्ण मानवता को ग्रसित कर जाता है।
व़र्तमान में प्रेम कुन्द होता जा रहा है। कारण कई हैं, लेकिन अलग-अलग हैं। लेकिन प्रेम कम होने से हम असभ्य बन जाते हैं, यह सर्वथा सत्य है। इसलिए हमें अपने अन्दर झांककर देखते रहना चाहिए। जब भी अपने आसपास विपत्ति की घड़ी आए, तब हमारा स्वत:स्फूर्त प्रेम प्रकट होता है या केवल हम कर्तव्य की भावना से ही सहायता करते हैं। प्रेम और कर्तव्य दोनों अलग-अलग भाव हैं। जो भी प्रेम के मध्य कर्तव्य को ले आता है, समझो उसने प्रेम की वहीं हत्या कर दी है। हमारा कोई मित्र या रिश्तेदार हमारे घर आता है तब हमारा मन खुशी से नाच उठता है या केवल कर्तव्यभाव से उसका सत्कार करते हैं, यह हमारे प्रेम का पैमाना है। किसी अपने का अवसान होता है तब हमारा मन प्रेम से हाहाकार कर उठता है या केवल कर्तव्य ही स्मरण रहता है, यह प्रेम का पैमाना है। हमारा मन केवल अपने बच्चों तक के ही प्रेम में डूबा रहता है या फिर अन्य रिश्तों के प्रति भी वैसे ही प्रेम का अनुभव करता है, यह प्रेम का पैमाना है।
प्रेम हमेशा परिवार से सिंचित होता है, यदि परिवार सिमट जाएंगे तो प्रेम भी सिमट जाएंगा। इसलिए कुछ लोग अपने परिवार को सिमटने नहीं देते हैं, लेकिन उसके लिए परिवार के मुखिया का प्रबंधन और त्याग जरूरी है। यदि मुखिया में त्याग की भावना नहीं है तो परिवार सिमटने लगता है। जहाँ त्याग नहीं है, वहाँ स्वार्थ स्वत: ही चले आता है। स्वार्थ के सामने प्रेम घुटने टेक देता है। जिन परिवारों ने भी अपने परिवार को समेटा है, वहाँ से प्रेम घटता जा रहा है। आज महानगरों में ऐसे लाखों लोग मिल जाएंगे जो अकेले अपना जीवन-यापन कर रहे हैं और उनके जीवन से प्रेम सिमट गया है। इनमें से ही अधिकतर लोग असभ्यता की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। इनके कारण ही हिंसा, आतंक, बलात्कार जैसी घटनाओं में तेजी आ रही है। क्योंकि उनके अन्दर का प्रेम केवल स्वयं तक सीमित होकर रह गया है और वह दूसरों के प्रति आक्रामक हो गए हैं। जो भी व्यक्ति दूसरों के प्रति आक्रामक हो रहा है समझो वह असभ्य होता चला जा रहा है। इसलिए हमें स्वयं को इस विनाश से बचाना चाहिए और अपने अन्दर के प्रेम को कभी मरने नहीं देना चाहिए। अपनों की पीड़ा के समय स्वत:स्फूर्त प्रेम को जगाना चाहिए। यदि हमने किसी की पीड़ा के क्षण में उसका हाथ थाम लिया तो हमने अपना ही मूल्याकंन किया है, क्योंकि तब हमें लगता है कि उसे मेरी आवश्यकता है और इसलिए मैं उस समय मूल्यवान बन जाता हूँ। लेकिन यदि उस समय मुझे लगता है कि नहीं मेरे जाने से भला क्या फायदा होगा तो हम अपनी नजर में ही अपना मूल्य खो रहे हैं। अर्थात हमारी किसी को कोई आवश्यकता नहीं है और हम मूल्यहीन हैं। अपना मूल्य हमें ही आकना है और अपना प्रेम हमें ही तौलना है, इसके लिए दूसरा आपकी मदद नहीं कर सकता। बस समाज तो यह इंगित करता है कि आप कितने प्रेममय हैं या कितने असभ्यता की ओर बढ़ रहे हैं। आप मानवता या सृष्टि के लिए उपयोगी हैं या फिर घातक बनते जा रहे हैं। समाज सबकुछ देख रहा है, समाज की हजार आँखें हैं। आपके प्रत्येक कर्म की समाज के पास खबर है। बस हम ही अपनी आँखें मूद लेते हैं और खुश हो लेते हैं कि हमें किसी ने नहीं देखा है। इसलिए इस पारदर्शी दुनिया के समक्ष स्वयं की पहचान करना सीखें और स्वयं को असभ्यता की ओर बढ़ने से बचाएं।
बात तो आपने बहुत ही सुंदर और आज की महती आवश्यकता वाली कही है परंतु पता नही क्यों अब वो पहले वाली पारीवारिक भावनाएं समाप्त सी होती जारही हैं. एक ही परिवार में मैं और मेरा की भावना घर कर गई हैं.
और खामियाजा भी उठाना पडेगा यह पक्की बात है, बिना त्याग और निस्वार्थ प्रेम यह सब पुरानी बाते हो चुकी हैं.
बहुत ही शानदार आलेख.
हार्दिक शुभकामनाएं.
रामराम.
आभार ताऊ रामपुरिया जी। आप देख रहे हैं ना कि मुम्बई सहित सारे ही देश में कैसे अत्याचार हो रहे हैं। ये सब प्रेम के अन्त के कारण हैं। हमें समाज में प्रेम को जगह देनी ही होगी। प्रेम का अर्थ सभी प्राणियों से प्रेम है।
सत्य वचन.
जहाँ परिवार में परस्पर प्यार है , वह केवल अपना हिन्दुस्तान है.
शुक्र है , ऐसा अभी है.
हमने धर्म सिखाया परिवार में, हमने राजनीति सीखी परिवार से, हमने नफ़रत भी सीखी यहीं से.. लेकिन जिसने प्यार सीखा हो हर गहर में वो सारे देश और समाज में प्यार ही लुटायेगा.. सही कहा आपने डॉक्टर दी, प्रेम के बिना असभ्य ही तो है समाज!!
बेशक अमूर्त समाज मूर्तन इकाई मनुष्य को देख रहा ही वही उसका मूल्यांकन करता है।हमारा नागर बोध सिविलिटी प्रेम से ही सिंचित होती है।
रिश्ते सिकुड रहे हैं … एकाकी होना चाहते हैं सभी … ऐसे में प्रेम का पनपना भी कम हो रहा है .. समाज भी लोगों से बनता है तो उस पे प्रभाव आना निशित ही है …
भावना और संवेदनाहीन होता जा रहा इंसान आत्म-सुख की अंधाधुंध दौड़ में लगा है. सीधे से चाहे टेढ़े किसी भी कीमत पर अपना स्वार्थ साधना है जिसे,वह सभ्य कहाँ रह पाये !
हर बात पर बाँटने का उपक्रम चल रहा है, कोई तो खोजे एकात्मता के सूत्र।
आप सभी का आभार। मैं आप सभी से क्षमाप्रार्थी भी हूँ कि मैं विगत 25 दिनों से आपकी किसी पोस्ट का पढ़ नहीं पायी हूँ। लेकिन अब शीघ्र ही सबकी पोस्ट पर आती हूँ।
प्रेम खोया है तभी तो आपसी सामंजस्य और संवेदनशीलता भी नहीं बची ….
एक व्यक्ति काफी है सबको साथ लाने को ..
Very well said,
Please visit my blog Unwarat.com& after reading please do give comments.Vinnie