मधुशाला को तो हम प्यार से गुनगुना लेते हैं लेकिन जब उदरस्थ की हुई हाला सड़क पर लोट-पोट करवाती है तब यही प्यार घृणा में बदल जाता है। इस हाला और मधुशाला के शिकार सभी बनते हैं, यह ना गरीब देखती है और ना अमीर। शायद सच्चा सेकुलरवाद यहीं हैं।
रात 9.30 बजे का समय था, सड़क पर आवागमन बदस्तूर जारी था। सामने के मकान पर बने रैम्प पर एक लड़का सोने का प्रयास कर रहा था। यह तो फुटपाथ भी नहीं था, रैम्प सड़क से लगा हुआ था और गाड़ियाँ तेजी से आ-जा रही थी। पलक झपकते ही लड़का पसर चुका था और उसके पैर सड़क को छू रहे थे। कोई भी गाड़ी उसके पैरों को कुचल सकती थी। लोगों की दलीलें मेरे कान में बजने लगी कि फुटपाथ सोने के लिये नहीं है और ना ही ये गाड़ी चढ़ा देने के लिये हैं। लेकिन ना तो यहाँ फुटपाथ था और ना ही गाड़ियों को लिये कोई प्रतिबंध। घर के मालिक को फोन लगाकर बताया कि उनके दरवाजे पर ऐसा हो रहा है, वे आये और उस बेसुध हुये लड़के को वहाँ से चलता किया। मैं देख रही थी कि लड़का क्या चल पायेगा? वही हुआ, कुछ कदम ही चला था कि लड़खड़ाकर गिर पड़ा। इस बार वहाँ नाली थी, लेकिन फिर भी उसके पैर सड़क पर ही आ रहे थे। मैँ घर के अन्दर नहीं जा पा रही थी, मुझे लग रहा था कि कहीं कोई दुर्घटना ना हो जाये। आते-जाते लोग देख रहे थे लेकिन किसी को कोई मतलब नहीं था। तभी एक पाँच-सात साल की लड़की वहाँ आयी और उसे देखने लगी। लड़के के पास बड़ा सा मोबाइल भी था, मुझे लगा कि यह लड़की कुछ ना कुछ उससे छीनना चाहती है। लेकिन तभी उसके भाई ने आकर उसका खेल बिगाड़ दिया, वह उसका हाथ पकड़कर दूर ले गया। दोनों भाई-बहन सड़क छाप थे इसलिये एक बार तो लगा कि जेबे जरूर टटोलेंगे लेकिन सड़क पर आवागमन को देखते हुये भाई ने उसे रोक लिया।
लेकिन इन सबके बीच मेरी चिन्ता अपनी जगह कायम थी। घड़ी की सूइंयां भी तेजी से दौड़ रही थी, मुझे पड़ौस के चौकीदार का इंतजार था, जिससे मदद ली जा सके लेकिन वह भी अभी तक आ नहीं रहा था। अब मैंने पुलिस के फोन करने का निश्चय किया जिससे मेरी चिन्ता का अन्त हो सके और आखिर मैंने फोन डायल कर ही दिया। दस-पन्द्रह मिनट की इंतजार के बाद पुलिस तो नहीं आयी लेकिन चौकिदार जरूर आ गया। वे तीन लड़के थे, मैंने उन्हें समस्या बतायी और कहा कि देखो कहीं तुम्हारी बस्ती का ही तो नहीं है लड़का और निश्चिन्तता से जाकर से गयी।
सुबह उठकर देखा, सब कुछ रोज जैसा ही था, शायद समस्या का समाधान हो चुका था। तात्कालिक समस्या तो निपट गयी थी लेकिन सामाजिक समस्या मेरे मन में प्यार से गायी जाने वाली मधुशाला की हाला का जहर घोल रही थी। आदमी को परिवार की धुरी मानने वाले न जाने कितने परिवार इस हाला के कारण बर्बाद हो जाते हैं। नशा एक आदमी को ही नहीं बर्बाद करता अपितु पूरे परिवार का सुख-चैन छीन लेता है। लेकिन यह बर्बादी कभी ना रुकने वाला चक्र है। शायद आदमी को भगवान ने अतृप्त बनाया है, वह संतुष्ट हो ही नहीं पाता। अपने आपको हमेशा कमतर आंकता है और गम में डूबने को मजबूर हो जाता है। काश हमारे वैज्ञानिक इस समस्या का कोई निदान निकाल सकें। नहीं तो इसी तरह से मधुशाला भी गायी जाएगी और इसी प्रकार युवा पीढ़ी हाला को पेट में उतारकर नाली में गिरकर कटने को तैयार रहेंगे। हम जैसे लोग समस्या का समाधान ढूंढते रहेंगे और दिन-रात गुजरते जाएंगे।
मधुशाला की हाला
Written By: AjitGupta
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Jul•
01•16
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मुश्किल ये है कि इस समस्या का कोई समाधान नहीं है। पीना और पीकर आउट होकर सड़क पर मरने को निकल जाना सबसे बड़ी समस्या है। जिसकी गाड़ी के नीचे गलती से ये आ जाते हैं उस बेचारे की बिना मतलब ऐसी तैसी हो जाती है। हैरत की बात ये है कि मधुशाला में बच्चन साहब ने साफ साफ लिखा है कि ये वो मधुशाला नहीं है जिसे पीकर लोग सड़क के किनारे मर जाते हैं। न उन्होंने जीवन में और न ही अमिताभ बच्चन ने शराब को हाथ लगाया कभी।
आम आदमी शब्दों के गूढ़ रहस्य को कहाँ जान पाता है, यह तो लिखने वाला ही जानता है कि उसने क्या लिखा है। यदि मैं रोटी की बात लिखूं और फिर कहूं कि यह रोटी नहीं है यह तो मन का आहार है उसे कैसे कोई सत्य मान लेगा!