अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

महिला से हटकर पुरुष की अभिव्यक्ति

Written By: AjitGupta - Sep• 20•19

मेरा मन करता है कि मैं दुनिया को पुरुषों की नजर से देखूं लेकिन देख नहीं पाती हूँ! क्यों नहीं देख पाती क्योंकि मेरे पास पुरुष की सोच नहीं है और ना ही पुरुष की सोच क्या है, यह किसा किताब से अनुभव मिला है! पुरुष स्वयं को कम ही अभिव्यक्त करते हैं, उनके दर्द क्या है, उनकी सोच क्या है, उनकी चाहतें क्या हैं, पता नहीं चल पाती हैं! उनकी बातें दुनिया जहाँ पर होती हैं लेकिन कभी खुद के बारे में नहीं होती हैं! वे महिला का दर्द खूब उकेर लेते हैं लेकिन पुरुष का असली दर्द कभी नहीं उकेरते। बस अपने हाथ पर लिख देते हैं कि मर्द को दर्द नहीं होता।

यदि मर्द को दर्द नहीं होता तो दुनिया में इतना दर्द किसका है! कोई भी पुरुष जब किसी को दर्द देता है तो उससे पहले वह दर्द लेता है। उसके सीने में दर्द पैदा होता है और उस दर्द को पाटने के लिये दूसरों को दर्द देता है। मैं वही जानना चाहती हूँ कि आखिर यह दर्द क्या है? आखिर वह दर्द क्या है जो एलेक्जेण्डर को सुदूर मेसिडोनिया से लेकर आता है? क्या सत्ता पाना उसका सबसे बड़ा दर्द है? वह कौन सा दर्द है जो चर्च का पादरी महिलाओं को मुक्त नहीं होने देता हैं, तो क्या पुरुष का दर्द यौन पिपासा है? ( महिला मुक्ति आंदोलन चर्च से मुक्ति का था ) वह कौन सा दर्द है जो पुरुष को मृत्यु के बाद भी जन्नत की कल्पना में हूरों की चाहत पैदा करता है!

मैंने कभी किसी पुरुष को नहीं पढ़ा जिसने लिखा हो कि हम तड़प रहे हैं, हम पीड़ित हैं। बस पढ़ा है तो महिला की पीड़ा को शब्द देते पुरुषों को पढ़ा है, मानो वे कह रहे हों कि हम पीड़ा रहित हैं लेकिन बेचारी महिला पीड़ा से मरी जा रही है। जो पीड़ा रहित है वह तो साक्षात ईश्वर ही है ना! बस पुरुष ईश्वर का ही रूप बताने में जुटा रहता है, कभी सत्ता के लिये तलवार लेकर निकल पड़ता है तो कभी भोग को लिये महिला को चंगुल में फांसने की जुगत बिठाता है और कभी जन्नत में भी हूरों के लिये पृथ्वी को रक्तरंजित करता रहता है!

मैं घर के पुरुषों को देखती हूँ, अपने मन को कभी अभिव्यक्त नहीं करते। बाहर की दुनिया के पुरुषों को भी खूब देखा है लेकिन वे भी खुद को अभिव्यक्त नहीं करते और ना ही सोशल मीडिया पर देखा है किसी को अभिव्यक्त होते हुए। वे केवल चुटकुलों में मजाक उड़ाते हुए दिखायी देते हैं, गम्भीर बात कभी नहीं करते। वे समाज के चिकत्सक बने घूमते हैं लेकिन समाज के प्रमुख अंग पुरुष का ही निदान नहीं करते तो समाज को क्या खाक ठीक करेंगे!

दुनिया में मनोरोग बढ़ते जा रहे हैं! स्मृति-भ्रंश भी प्रमुख समस्या बन गयी है। आखिर क्यों बढ़ रहे हैं ये रोग! हम खुद को अभिव्यक्त नहीं कर पा रहे हैं। हमने अपनी दुनिया अलग बसा ली है। पुरुष सामाजिक प्राणी है लेकिन धीरे-धीरे समाज से कट रहे हैं, परिवार से भी कटने लगे हैं और परिवार में भी अक्सर दिखता है कि पुरुषों की दुनिया अलग ही बन गयी है। न जाने कितने घर हैं जहाँ शाम ढलते ही पुरुष गिलास और चबेना लेकर अकेला या दोस्तों के साथ बैठ जाता है या किसी क्लब में या फिर अकेले ही सैर को चल देता है। कभी पुस्तकालय में भी अकेले बैठे मिल जाते हैं लेकिन उम्र के पड़ाव में बहुत ही कम लोग हैं जो परिवार के साथ गप्पे मारते दिखते हैं।

पुरुष शायद सोचता है कि यदि मैंने अपना दर्द बता दिया तो मेरा मूल्यांकन कम हो जाएगा। मैं एक सामान्य आदमी बनकर रह जाऊंगा। अब मैं तो इस बारे में लिख नहीं सकती, बस महिला की नजर से जो समझ पड़ता है उसे लिख रही हूँ। हो सकता है कि पुरुष का नजरियां कुछ और हो! लेकिन जब तक वे महिला को अभिव्यक्त करने के स्थान पर पुरुष को याने की खुद को अभिव्यक्त करना नहीं शुरू करेंगे तब तक समाज का वास्तविक स्वरूप निकलकर बाहर नहीं आएगा। यह पोस्ट आप सभी के दिल  पर लगेगी, आक्रोश भी खूब होगा कि एक महिला की हिम्मत कैसे हो गयी कि पुरुष के बार में लिख सके, लेकिन मैंने लिख दिया है। महिला की अभिव्यक्ति तो हजार तरह से रोज ही होती है लेकिन कभी पुरुष की अभिव्यक्ति भी हो ही जाए! क्या कुछ बुरा किया क्या?

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