लेखन का भी जैसे एक मिजाज होता है वैसे ही पढ़ने का भी अपना ही मिजाज होता है। हमारी सुबह तय करती है कि आज क्या लिखा जाएगा या क्या हमारा मन पढ़ने को करेगा। इंटरनेट खोलने पर अनेक लेख, कविता, कहानी आदि हमारे सामने आकर बिखर जाते हैं लेकिन हमारा मन बस कभी कहीं पर अटकता है तो कभी कहीं पर। कभी किसी लेखक के नाम हो जाता है तो कभी किसी रचना के नाम। कभी प्रेम में डूबी रचना पढ़ने का मन होता है तो कभी गम में घुली रचना को पढ़ने का मन करता है। कभी व्यंग्य से मन को ओत-प्रोत करने की इच्छा होती है तो कभी सीधी-सादी रचना पढ़ने का दिल हो जाता है। गूगल रीडर पर कितने ही जाने पहचाने और कितने ही अनजान लेखकों के पृष्ठ खुल जाते हैं लेकिन हमारी रोज की सुबह उन में से कुछ को ही पढ़ने का सौभाग्य देती है। कभी-कभी तो ऐसा भी होता है कि लेखक के ब्लाग तक जा पहुँचे लेकिन मन ने विद्रोह कर दिया और हाथ माउस पर जाकर कर्सर से झट क्रास को क्लिक कर बैठा। कभी विषय देखकर पढ़ने का मन भी किया और अपने विचार भी वहाँ पर डालने का मन बना लिया लेकिन यह क्या? वहाँ तो टिप्पणी का आप्शन ही बन्द है, अब कर लो बात। सारा दिन आप घूमते रहिए इसी खयाल से कि हमने अपनी बात नहीं कही। अब अगली बार नहीं पढेंगे जी, इनकी रचना। अपनी बात कहने का सुकून ही नहीं तो फिर पढ़कर अपने दिमाग को क्यों चकरघिन्नी बनाना?
जब भी कोई पत्रिका घर में आती है तो सबसे पहले उसमें से कहानी पढ़ने का मन होता है। उसके बाद संस्मरण और फिर आलेख। लेकिन मन की विडम्बना देखिए कि नेट पर सबसे पहले आलेख पढ़ने का मन करता है, फिर संस्मरण और अंत में या कभी नहीं कहानी। ये कैसी मन की विडम्बना है? मन आखिर चाहता क्या है? क्या उसने अपनी दुनिया को खानों में बाँट लिया है? जैसे बच्चे से बच्चों वाली शरारते सुनने में ही मजा आता है और बूढों से विगत जीवन के संस्मरण। अब यदि बच्चे बड़ी-बड़ी बाते करने लगे तो कहेंगे कि चुप हो जा। और यदि बूढ़ा बचपना करने लगे तो कहेंगे कि बुढ़ापे में भी बचपना कर रहा है। ऐसे ही मन की हालात पढ़ने और लिखने के मामले में है। कब कहाँ पर मन अटक जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता है। मुझे लगता है कि हम नेट पर या ब्लागजगत में रोजमर्रा की घटनाओं को ढूंढते हैं और नयी समस्याओं पर चिंतन करते हैं। इसलिए आलेख पढ़ने में रुचि जागृत होती है। कहानी समाज का ऐसा आईना है जो अपनी कल्पना से लिखा जाता है जिसे शायद नेट पर पढ़ने का मन नहीं करता है। कल्पना का संसार पत्रिकाओं में ही बसता है, इसलिए उसे वहाँ ही पढ़ने का मन करता है।
ऐसा ही मिजाज फेसबुक का है। फेसबुक पर चार-पाँच लाइनों से ज्यादा का समाचार नहीं पढ़ा जाता। इसमें भी सूचनात्मक हो या फिर व्यंग्यात्मक हो, बस उसी में मन लगता है। मैंने अपने मन के बारे में लिखा है, हो सकता है कि आपका अनुभव मुझसे विपरीत हो। आइए बाँटे अपने मिजाज को कि वह क्या चाहता है?
Jab bhi samay milta hai , blog aur facebook khol lete hain,
सबका पठन का अपना अलग मिजाज़ होता है …. नेट पर अब इतना समय हो गया है किकिसको पढ्न है या क्या पढ्न है सब मन में रहता है ….. मेरी रुचि कविता में ज्यादा है कविता के बाद लेख और फिर संस्मरण ….. कुछ लेख ऐसे होते हैं जो आपको नए विचार भी सुझाते हैं …. कहानी क्यों कि लंबी होती हैं इस लिए नेट पर पढ़ने में कम आनंद आता है ।
बिलकुल आपके जैसा ही अनुभव है ….. ब्लॉग, फेसबुक पर यूँ कुछ न कुछ पढ़ती रहती हूँ पर कभी कभी लगता है कोई पसंद की किताब उठाकर उसे मन से पढ़ा जाये ….
सही कहा सबका अपना अपना मिज़ाज़ होता है और कब क्या होता है ये भी नहीं कहा जा सकता
सही कहा आपने …मन का अपना ही राज है …वो जिस चाल चले वैसे ही हमको चलना पड़ता है ….फिर भी आपकी इस बात से १००% सहमत हूँ कि नेट पर कहानी पढ़ने का मन सबसे बाद में बनता है
लिखने बैठता हूँ तो कोई उत्सुकता जन्म ले लेती है, मन फुदक कर इण्टरनेट में कूद जाता है।
पढ़ना और लिखना अपनी मनस्थिति पर निर्भर करता है.. पर हाँ ज़्यादा लम्बे आलेख बोझिल कर देते हैं.. इसलिए ब्लॉग पर भी मैं इसी नियम का पालन करता हूँ..
पाठक शंहशाह होता है। कब किधर जाने और पढ़ने का मन बन जाये कुछ कह नहीं सकते। 🙂
बहुत अच्छी प्रस्तुति है।
मन की ही चलती है कब क्या करें ,ये लेखन और पठन-पाठन सब मूड पर निर्भर .हाँ, टिप्पणी लिखने के बाद जब पहँचाने के इधऱ-उधर दौड़ना पड़ता है-अक्सर जाती ही नहीं- तब तो बस… ..!
मन की स्थिति के विकास-क्रम को फिल्मों के गानों में आए परिवर्तन से समझा जा सकता है…
पहले दिल दीवाना होता था…
फिर आया…दिल तो बच्चा है जी…
और अब….दिल बदतमीज़ है, बदतमीज़ है, माने ना, माने ना….
जय हिंद…
मन की गति ही ऐसी है .ॐ शान्ति .
अपनी रूचि ओर पसंद के अनुसार सब पढते हैं … ओर जो दिल को ठीक लगे वही करना चाहिए भी …
अब जब प्रकृति के इतने रंग हैं तो हमारे दिल में क्यों न हों….वइसे भी हम हिंदुस्तानी हैं…जहां हर मौसम का रंग देखने को मिलता है..तो कैसे हम किसी एक चीज पर रुक सकते हैं…कभी कुछ तो कभी कुछ पढ़ना पसंद करते हैं..हां जैसे देश में कहीं गर्मी की प्रधानता रहती है तो कहीं सरदी अपना रंग दिखाती है उसी तरह सबकुछ पढने के बीच कोई खास ज्यादा पंसद होती है…। ये भी सच है कि किताब हाथ में लेकर पढ़ने का मजा ही अलग है..वो अपन को तो मोबाइल आइपैड में पढ़ने में नहीं आया…नवजवान पंसद कर रहे हैं .पर उम्र के साथ साथ किताबों से रिश्ता जुड़ता है..जब जुड़ता है तो किताब ही पढ़ता है इंसान…अपना भी यही मन करता है..कभी कुछ पढ़ता हूं तो कभी कुछ….लिखने में कहानी तो खैर लिखने ही नहीं आती अपने को…पर ये हकीकत है कि बड़े कहानीकार काल्पनिक नहीं लिखते। वो आसपास देखा हुआ या भोगा हुआ ही लिखते हैं।
मन वास्तव में ही बहुत चलायमान होता है
ब्लॉग हो या फेसबुक, हम तो फ्रेंड लिस्ट से बाहर नहीं जा पाते। इतना समय ही नहीं होता। लेकिन पढने में छोटे लेख ज्यादा पसंद आते हैं। कम शब्दों में अपनी बात कहना भी एक कला है।
चार लाइन में सब कुछ कह देने के लिए आमिर खुसरो जी, रहीम, तुलसी, कबीर सक्षम रहे ये सर्वकालिक हैं आज भी चार शब्दों में सब कुछ कहने वाले हैं बस उनसे मुलाकात जाये यही कठिन हो जाता है
मन तो मन है मन का क्या है. पर वाकई कहानी नेट पर पढने का बिलकुल मन नहीं करता.
वो तो बिस्तर पर पसर कर हाथ में किताब लेकर ही पढने में आनंद आता है :).
आप सभी का आभार। आज ही सात दिनों के लिए पुणे जा रही हूं। आने के बाद ही आप सभी की पोस्ट पढ़ पाऊंगी।
अपने मिजाज का कुछ समझ नही आता, कहीं से शुरू होता है और कहीं जाकर खत्म होता है. पर एक बात अवश्य है कि कितना ही गंभीर विषय हो उसका अंत किसी हास्य व्यंग जैसी शरारत पर होता है, चाहे टिप्पणी हो…चाहे पोस्ट लिखना हो या पढना. यात्रा के लिये शुभकामनाएं.
रामराम.
सब का अपना अपना मिजाज़ होता है. नेट पर पहले कविता फिर आलेख और अगर समय हो तो कहानी, लेकिन पत्रिकाओं के साथ बिल्कुल उल्टा होता है पहले कहानी, फिर कविता और आखिर में आलेख…
न पठनीय और न पाठक …
🙁
यह बात तो आपने बिलकुल ठीक कही पढ़ने के मामले में सबका अपना-अपना मिजाज होता है मुझे नेट पर आलेख पढ़ने में ज्यादा मज़ा आता है, फिर संस्मरण और फिर कविता। लेकिन अब तो फेस्बूक से भी मन उचट सा गया है। वहाँ तो अब बस अपने और अपनों से जुड़े कुछ खास लोगों के उपडेट देखने ही जाते हैं हम, रही बात ब्लॉग की तो अब वहाँ भी ज्यादा मन नहीं लगता क्यूंकि अब अधिकतर अच्छे लोग कम लिखते हैं, या फिर लिखते ही नहीं है। बाकी के बचे खुचे अच्छे लोग अब फेस्बूक पर लिखने लगे हैं और वहाँ किसी की कोई रचना पढ़ने में मुझे मज़ा नहीं आता है यह मेरा अनुभव है बाकी तो पसंद अपनी-अपनी ख्याल अपना-अपना…:)