मेरी जिन्दगी कई मुकामों पर होकर गुजरी है। मैंने हमेशा स्वयं को टटोला है और पाया है कि बस मुझे आत्मीयता भरा वातावरण चाहिए, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। शिक्षा लेने के बाद सरकारी नौकरी करना एक बाध्यता जैसा हो जाता है। उस समय हमें लगता है कि महिला के लिए नौकरी करना और अपने पैरों पर खड़ा होना आवश्यक है। सरकारी नौकरी में भी मेरी प्राथमिकता आत्मीयता निर्माण करना ही रहा। परायों से आत्मीयता! बड़ा कठिन कार्य है। एक तरफा प्रयास भर ही है। जैसे ही व्यक्तिगत हित आड़े आते हैं, सारी आत्मीयता विद्वेष में बदल जाती है। ऐसे अनावश्यक विद्वेष भरे वातावरण में मन घुटने लगा और एक दिन लगा कि इस विद्वेष की खेती को और पानी नहीं देना चाहिए। हम लाख कोशिश कर लें लेकिन आत्मीयता बनती ही नहीं। सारे ही रिश्ते स्वार्थ भरे दिखायी देते हैं। यदि आप अधिक ही भावुक हो जाते हैं तब आपका शोषण ही शोषण है इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। एक स्थान पर वे ही लोग टिके रहते हैं जो स्वयं को असुरक्षित महसूस करते हैं। महिलाओं के पास उनका परिवार होता है तो वे नौकरी आदि को प्राथमिकता नहीं देती हैं और ना ही असुरक्षित महसूस करती हैं। विपरीत परिस्थितियों में भी महिलाएं नौकरी के बिना भी परिवार में खुश रह लेती हैं। इसलिए फैसले में कोई कठिनाई नहीं हुई बस त्वरित सा निर्णय लिया और स्वयं को स्वतंत्र कर लिया। मुझे लगता है जब आप एक स्थान पर हैं और वहाँ से आप अपने ध्येय की पूर्ति करने में सक्षम नहीं हो पाते तब उस स्थान को जितनी जल्दी हो छोड़ ही देना चाहिए। जिन्दगी ना मिलेगी दोबारा।
सामाजिक कार्यों में जितना अपनापन दिखायी देता था, उससे हम भी आकर्षित हुए। लगा कि यहाँ आत्मीयता निर्माण की अच्छी खासी गुंजाइश है। कोशिश भी पूरी की और लगा भी कि यहाँ अपनी आत्मीयता को विस्तार मिलेगा ही। मिला भी लेकिन यहाँ भी पदों और अधिकारों की इतनी मारामारी दिखायी दी कि अपना सा लगने वाला व्यक्ति भी कब पीठ में खंजर भोंक दें, पता ही नहीं लगता। जिन्दगी के अनमोल साल इस प्रयोग में लगा दिये लेकिन यहाँ भी छलावा ही नजर आया। बस सभी के अपने अपने पाले हैं और सभी की चाहत रहती है कि उसके पाले में उसके होकर रहो। कभी आपके बारे में भी भ्रम बन जाता है कि आप इस पाले में हैं या उस पाले में। मेरे साथ भी यही हुआ। मेरा उद्देश्य केवल आत्मीयता ढूंढना था ना कि कोई पालेबाजी तो मेरा उद्देश्य अलग और दूसरों का अलग। लेकिन लोगों की सोच स्वयं से चलती है ना कि आपकी सोच से। वे अपनी तरह सोचते रहे और हम अपनी तरह। वे हमें किसी एक पाले के सदस्य मानते रहे और हम निर्दलीय बने रहे। क्योंकि जब आप किसी एक पाले में जाते हैं तब सिलसिला शुरू होता है विद्वेष का। हमारे पाले वाले ही अपने हैं शेष बेकार हैं। यदि मौका लगे तो इन्हें कुचल दो। ऐसे में मन हमेशा रात और दिन दूसरों को कुचलने का ही प्रयास करता है फिर आत्मीयता की दुकान तो फीकी ही पड़ जाती है। दो पाले के मठादीश आपसे में विद्वेष पालकर रखते हैं और जब अवसर मिला तब एक दूसरे के पाले वालों को कुचलने के फेर में लगे रहते हैं। हमें तो यह खेल समझ ही नहीं आया क्योंकि हमारा तो उद्देश्य ही पद या अधिकार नहीं था। हम तो बस थोड़ा प्रेम लेना चाहते थे और ज्यादा देना चाहते थे। किसी ने हमें किसी के पाले का समझा तो किसी ने किसी का, बस हमें फेंकने का सिलसिला चलता रहा और हम अपने ध्येय में ही लगे रहे। आखिर यह दुनिया भी रास नहीं आयी और एक दिन हमने इसे भी अलविदा कह ही दिया।
अब हमारा घर और परिवार हमारे पास था। उम्र की इस पड़ाव में परिवार से अधिक घर हमारे पास था। परिवार के स्थान पर गृहस्थी ही शेष थी। बच्चे तो अपनी दुनिया बसा चुके थे इसलिए हम और हम याने पति और पत्नी बस।
किसी भी क्षेत्र को छोड़ने के बाद पीछे मुड़कर देखने का स्वभाव नहीं रहा। बस आगे देखो और अपने गंतव्य पर जाने के लिए कदम बढ़ा दो। जो पीछे छूट गया वो छूट गया, कैसा गम और कैसी खुशी! अब परिवार ही अपना कार्यक्षेत्र था, अब यहाँ पर ही अपना ध्येय पूर्ण करना था। कुछ लोगों को लगता था कि हम सामाजिक कार्य करने के कारण विशेष हैं और हमसे अनावश्यक ही एक दूरी बना ली गयी थी। सबसे पहले हमने इस विशेष के विशेषण को ही तोड़ने का निश्चय किया और समर्पण भाव से आत्मीयता की ओर अपने कदम बढ़ाने प्रारम्भ किए।
दिनकर जी ने लिखा था – लोहे के पेड़ हरे होंगे, तू गीत प्रेम के गाता चल। यह कल्पना परिवार में ही साकार होती दिखायी दी। छोटी-छोटी सेवा और छोटे-छोटे समर्पण से लोहे के पेड़ों पर भी हरी पत्तियां दिखायी देने लगी। उम्र के एक पड़ाव पर प्रत्येक व्यक्ति को अपनापन की नितान्त आवश्यकता रहती है। हम सभी चाहते हैं कि कोई ऐसा हो जो हमारे सुख-दुख सांझे कर ले। बस मुझे देना है, यही भावना मन में थी तो परिणाम आने लगे। केवल एक लक्ष्य मेरे पास है – अपनों को अपनेपन की अनुभूति कराना। जो अपने रक्तबीज हैं उनमें आत्मीयता की अनुभूति शीघ्र होती है लेकिन जो आपका रक्त नहीं हैं उनमें आत्मीयता की उत्पत्ति नि:संदेह कठिन चुनौती है। परिवार में भाई आपका सहोदर है लेकिन भाभी परायी है, पुत्र आपका रक्त है लेकिन पुत्रवधु परायी है, पुत्री आपकी है लेकिन दामाद पराया है। ऐसे ही सारे रिश्ते हैं। हम यदि उनकी सोच के साथ इन रिश्तों में आत्मीयता ढूंढे तो सफलता मिल जाती है। हम अपेक्षा ना करें कि ये हमें अपनापन देंगे लेकिन स्वयं सदा अपनापन देने का भरसक प्रयास करते रहें। एक दिन यहाँ से भी सुगंध आने लगती है और तब हमें लगता है कि जीवन में हमारा ध्येय पूर्ण हुआ। घर-परिवार ही वह स्थान है जहाँ हम अपने इस ध्येय को पूरा कर सकते हैं। कठिनाइयां यहाँ भी कम नहीं हैं लेकिन यहाँ आपको कर्तव्यस्थल से बाहर फेंकने वाले लोग नहीं हैं। आपका ध्येय केवल प्रेम या आत्मीयता ही हो तब कठिनाई नहीं है लेकिन परिवार में भी केवल “मैं” को ही आप चुनते हैं तब कठिनाइयां कांटों की तरह उग आती हैं। मेरा ध्येय कभी “मैं” नहीं रहा, मैंने अपने मुकाम केवल आत्मीयता विस्तार के लिए ही बदले हैं तब इस निश्चय पर पहुँची कि घर-परिवार में ही यह कार्य सम्भव है। शेष तो छलावा मात्र है। मेरे प्रयास का यह प्रथम सोपान जैसा ही है, सारी दुनिया के अनुभव लेने के बाद यही परिणाम आया कि मुझे मेरा ध्येय यही मेरे अपनों के बीच मिलेगा। कुछ लोग आत्मीयता की तलाश में प्रभु की शरण में भी जाते हैं, वहाँ भक्ति रस में डूबकर आत्मीयता को ढूंढने का प्रयास करते हैं। लेकिन मुझे लगता है यह प्रयोग आपको प्रभु के समर्पण में डुबो तो देगा लेकिन मन की संतुष्टि नहीं दे पायेगा क्योंकि मन की संतुष्टि तो अपनी आत्मा के विस्तार में ही है। जितने अपने लोग आपको अपनी आत्मावत लगने लगेंगे या उनको अपने जैसा ही प्रेम देने लगेंगे तब आनन्द की अनुभूति होगी। मैं इस सच्चे आनन्द को पाने में प्रयासरत हूँ। आप भी कभी प्रयोग करके देखिए, निश्चय ही सुख मिलेगा। आखिर सुख प्राप्ति के लिए ही तो हम कर्म करते हैं। क्यों सच है ना?
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झाँसी वाली रानी थी , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
लगे हुए हैं हम भी !!
लोहे के पेड़ पर हरियाली मुश्किल बहुत होती है लेकिन
वाणी जी आपका आभार। आप बहुत दिनों बाद मेरे ब्लाग पर आयी हैं, मैं तो इसे ही हरियाली मान रही हूँ।
Very nice Bua!
बहुत बढ़िया