बंदरों पर एक वृत्त-चित्र का प्रसारण किया जा रहा था – ताकतवर नर बन्दर अपना मादा बन्दरों का हरम बनाकर रहता है और किसी अन्य युवा बन्दर को मादा से यौन सम्बन्ध बनाने की अनुमति नहीं है। यदि युवा बन्दर उस मठाधीश को हरा देता है तो वह उस हरम का मालिक हो जाता है। ऐसी ही जीवन प्रणाली अनेक पशुओं में पायी जाती है। इसीकारण ताकतवर को जीवित रहने का अधिकार है, इस सिद्धान्त की रचना हुई। मनुष्यों में भी यही प्रवृत्ती पायी जाती है, चूंकि मनुष्य के पास बुद्धि है तो उसने अपना सभ्यता का विकास किया और विवाह पद्धति को स्वीकार किया, जिसकारण कमजोर से कमजोर मनुष्य को भी यौन सुख प्राप्त हो सके। इसलिये इस सृष्टि पर दो प्रकार का वर्गीकरण है – एक शिकारी और दूसरा शिकार। नर शिकारी की भूमिका में है और मादा शिकार की।
लेकिन समय के साथ महिलाओं ने बुद्धि बल पर अपने लिये बेहतर स्थिति की रचना कर ली। परिवार में भी वे शिकार की भूमिका में होने के बाद भी शिकारी को यह बताने में कभी नहीं चूकती कि तुम विवाह पद्धति के कारण यौन-सुख पा रहे हो नहीं तो तुम बेहद कमजोर नर हो। नर भी स्वयं को शिकारी बताने में कभी नहीं चूकता है, इसकारण वह हिंसा का सहारा लेता रहता है। दोनों में युद्ध चलता रहता है। महिलाओं ने पहले हरम को तोड़ा, अब परिवार को तोड़कर बाहर निकलने का प्रयास कर रही हैं और इस कार्य में कुछ पुरुष भी उनका समर्थन कर रहे हैं। इस समर्थन से पुरुष को आसान शिकार मिल रहा है और महिला सोच रही है कि मैं आजाद हो रही हूँ। स्थिति यह हो गयी है कि कमजोर से कमजोर पुरुष को भी शिकार आसानी से हाथ लग रहा है। शिकारी और शिकार की भूमिका हमेशा बनी रहेगी, बस महिला को बुद्धि से काम लेना होगा और स्वयं को आसान शिकार बनने से भी रोकना होगा। ताकत की इस लड़ाई को केवल बुद्धि के बल पर ही जीता जा सकता है।
शिकारी और शिकार
Written By: AjitGupta
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Sep•
23•16
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (24-09-2016) को “जागो मोहन प्यारे” (चर्चा अंक-2475) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
अपनी अस्मिता का बोध सही रूप में प्राप्त कर ले नारी की इतनी विकसित मानसिकता बन ही नहीं पाती-सामाजिक जीवन का ढर्रा ही ऐसा बना है ,प्रशंसा (अधिकतर रूप ,चाहे बनावटी हो ,की )और बहलावों में ही बहकी रह जाती है .
आभार प्रतिभाजी