सच सुन्दर भी है, सच बदसूरत भी है, सच शीतल भी है, सच ज्वलनशील भी है। सच शाश्वत है, सच का उद्घाटन अवश्यम्भावी है। सच छिप सकता है लेकिन गुम नहीं हो सकता। सच पर आवरण आ सकता है लेकिन नष्ट नहीं हो सकता। फिर भी अफसोस कि मनुष्य सच को छिपाने के प्रयास में अनवरत लगा ही रहता है। वह अपना सच छिपाता है, अपने परिवार का सच छिपाता है, जरूरत पड़ने पर अपने समाज का सच छिपाता है।
हमने अच्छाई के प्रतिमान गढ़ रखे हैं। मनुष्य के आदर्श को स्वयं में तलाशते हैं। आदर्श का प्रकटीकरण अपने परिवार में मानते हैं। अपने समाज को भी श्रेष्ठ मानते हैं। स्वयं के अवगुण कभी दृष्टिगत नहीं होते।
इसके उपरान्त भी हम सत्य को अनदेखा नहीं कर पाते और सत्य हमारे समक्ष आ खड़ा होता है। तब प्रारम्भ होता है, मन का द्वन्द्व। आवरण ढकने का प्रयास। सत्य पर झूठ का आवरण। कृत्रिम जीवन प्रारम्भ होने लगता है। दुराव छिपाव की नीति हावी होने लगती है। अपने हितैषी भी शक के दायरे में आने लगते है। अंततः अकेलेपन की ओर जीवन अग्रसर होने लगता है।
एकदम सटीक
सत्य बोलने का लाभ यह है कि
याद नहीं रखना पड़ता किस को
कब क्या कहा
सच है सुनीलजी।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, “एक कटु सत्य – ब्लॉग बुलेटिन ” , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
सच से भागना बड़ा कष्टकर होता है।
आभार प्रवीण जी