अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

अकेली विदाई

Written By: AjitGupta - Feb• 05•18

आप सभी को पता है कि मैं अभी अमेरिका जाकर आयी हूँ और कारण भी पता है कि पुत्रवधु को पुत्र हुआ था इसलिये जाना हुआ था। लेकिन जैसे ही अमेरिका की टिकट कटाने की बात कहीं भी चलती है, हर आदमी पूछ लेता है कि जापा कराने जा रहे हो क्या? यदि हवाई यात्रा में जाने वालों और आने वालों से पूछा जाए तो आधे से अधिक का अमेरिका जाने का कारण यही जापा होगा। वहाँ चाहे कितना ही दुख देखना पड़े लेकिन भारतीय माता-पिता जाते अवश्य हैं। क्यों जाते हैं! वे परिवार में नव-आगन्तुक का स्वागत करने और पुत्रवधु को परिवार की अहिमयत बताने जाते हैं। लेकिन कठिनाई यह है कि अमेरिका वाले इस परिवार-भाव को नहीं मानते और कहते हैं कि इस कार्य के लिये अमेरिका क्यों आना? मुझसे भी इमिग्रेशन में पूछा गया कि क्यों आए हो? मैंने कहा कि बेटा है, इसलिये आना हुआ है। फिर दोबारा प्रश्न हुआ कि तो आना क्यों हुआ? मैंने फिर जोर देकर कहा कि बेटा है इसलिये ही आना हुआ। क्योंकि मुझे पता था कि वे इस कार्य के निमित्त आने वाले को पसन्द नहीं करते। वे कहते हैं कि हमारे यहाँ प्रसव की उत्तम सुविधा उपलब्ध है और इसमें किसी की भी सेवाओं की आवश्यकता कहाँ है? वे पति को पूरा दक्ष कर देते हैं। लेकिन अमेरिका में बसे बेटे को भी अपनी इज्जत का सवाल लगता है कि उसके घर से कोई आया और भारत में बैठे परिवारों को भी लगता है कि इस अवसर पर जरूर जाना चाहिये। नहीं तो परिवार का मायने ही क्या हैं? हम चाहे सात समन्दर दूर रहते हों लेकिन खून तो हमारा पुकारता ही है, हम नए परिवारजन को एक परिवार का पाठ पढ़ाने जाते हैं।
4 फरवरी को उदयपुर के एक वृद्धाश्रम के बारे में अखबार में खबर छपी, एक दम्पत्ती ने बताया कि उन्होंने तीन साल से अपनी संतान से बात नहीं की है। अचरज भी हुआ और दुख भी। समाचार-पत्र ने वृद्धाश्रम की खबर तो छाप दी लेकिन जहाँ घर-घर में ऐसे ही वृद्धाश्रम बनते जा रहे हैं, उनकी शायद ही किसी ने खबर ली हो। एक तरफ हवाई जहाज में वृद्धों की भीड़ बढ़ती जा रही है और दूसरी तरफ वृद्धाश्रम में भी लोग अकेले रहने पर मजबूर हो रहे हैं, साथ ही शहर के अनेक घर भी वृद्ध-कुटीर में बदलते जा रहे हैं। परिवार टूट गये हैं, एकतरफा रिश्ता निभाया जा रहा है। एक पीढ़ी नये का स्वागत करने लाख दुख देखकर भी परदेस जाती है लेकिन दूसरी पीढ़ी अन्तिम विदाई के लिये भी आना जरूरी नहीं समझती। पहले और आज भी अधिकांश परिवारों में मृत्यु एक संस्कार माना जाता है और मृत व्यक्ति की आत्मा की शान्ति के लिये पूरा परिवार एकत्र होता है। दूर-दूर से रिश्तेदार आते हैं, एक पीढ़ी अपना सबकुछ देकर विदा होती है तो उसे विदा करने के लिये सब जुटते हैं। 12 दिन साथ रहते हैं और जो पीछे छूट गया है उसे अकेलेपन के अहसास से दूर रखने का प्रयास करते हैं। लेकिन अब कहा जाने लगा है कि जितना जल्दी हो काम खत्म करो और जो आ सके वह ठीक नहीं तो किसी को परेशान मत करो। जाने वाला ऐसे जाता है जैसे उसका कोई नहीं हो, उसने किसी संसार की रचना ही नहीं की हो। तभी तो वृद्धाश्रम में रह रहे एक व्यक्ति ने कहा कि जब अकेले ही रहना है तो विवाह ही क्यों करना और इसलिये मैंने विवाह किया ही नहीं था। वृद्धों की इस व्यथा को कैसे सुलझाया जाए? क्या वाकयी वृद्धाश्रम में जीवन है या फिर केवल मौत का इंतजार। अभी तो लोग नये का स्वागत कर रहे हैं कहीं ऐसा ना हो कि फिर नये का स्वागत भी बन्द हो जाए और सब अकेले हों जाएं!

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