अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

अजब लोग हैं हम

Written By: AjitGupta - Nov• 03•17

अजब लोग हैं हम
अजब संयोग था, 31 अक्तूबर को अमेरिका हेलोविन का त्योहार मनाता है और भारत में इस दिन देव उठनी एकादशी थी। अमेरिका में हर घर सजा हुआ था, कहीं रोशनी थी, कहीं अंधेरा था लेकिन घरों में भूत-पिशाचों का डेरा था। हर घर में डरावना माहौल बनाया गया था, बच्चे भी कल्पना लोक के चरित्रों का निर्वहन कर रहे थे। कोई भूत बना था, कोई स्पाइडरमेन तो कोई सूमो पहलवान भी। सारे ही बच्चे अपने मौहल्ले के घरों में जाकर केण्डी की मांग कर रहे थे, घर वाले भी तैयार थे उन्हें केण्डी देने को। सभी बच्चों के पास एक झोला था, उसमें ढेर इकठ्ठा होता जा रहा था और बच्चे खुश थे अपना खजाना बढ़ने से। धरती पर हम मनुष्यों ने एक कल्पना-लोक बना लिया है, कुछ मानते हैं कि भूत-पिशाच होते हैं और उनका डर हमेशा हमारे जीवन में बना रहता है। हेलोविन के दिन डरावना वातावरण बनाकर बच्चों के मन से डर कम किया जाता है और उनसे लड़ने की ताकत उनमें आ जाती है।
भारत में कहा जाता है कि कल्पना-लोक में देवता वास करते हैं और एक निश्चित तिथि पर ये सब सो जाते हैं और एक निश्चित तिथि पर जग जाते हैं। हमारे सारे ही शुभ कार्य देवताओं की उपस्थिति में होते हैं इसलिये देव उठनी एकादशी का बड़ा महत्व है। इस दिन सारे ही देवता जाग जाएंगे और शुभ काम शुरू हो जाएंगे। इसलिये इसे छोटी दिवाली भी कहते हैं। एक तरफ नकारात्मक शक्तियां हैं और दूसरी तरफ सकारात्मक शक्तियां। एक तरफ डर है तो दूसरी तरफ सुरक्षा। क्या अच्छा है और क्या बुरा है यह तो मनोविश्लेषक ही बता पाएंगे लेकिन मेरा मानना है कि कल्पना लोक में सकारात्मक शक्तियों का वास हमें सुरक्षा देता है और नकारात्मक शक्तियों के कारण हम डरे रहते हैं। हम ईश्वर से भी प्रेम का रिश्ता रखते है ना कि डर का। लेकिन त्योहारों के मायने तो हम कुछ भी निकाल सकते हैं। शायद डर को आत्मसात करने के लिये ऐसे त्योहार मनाए जाते हों। लेकिन भारत में भी व्यावसायिक हितों के देखते हुए हेलोविन की शुरुआत करना हमारे दर्शन को पलटना ही है। हम देव उठनी एकादशी पर भी विभिन्न देवी-देवताओं का वेश धारण करके त्योहर को मना सकते हैं। इससे व्यावसायिक हित भी सध जाएंगे और दर्शन भी पलटी नहीं खाएगा। ये जो भेड़ चाल है और हम देशवासी किसी भी त्योहार की भावना को समझे बिना मनाने के लिये उतावले हो उठते हैं, उससे भेड़ों का दूसरों के पीछे चलने की सोच ही दिखायी देती है। अपनी सोच को आगे लाओ और नवीनता के साथ मौलिकता बनाए रखते हुए परिवर्तन करो। नहीं तो तुम भेड़ों की तरह अपने आपको मुंडवाते ही रहोंगे। आज भारत के लोग भेड़ बन गये हैं, व्यापारी आते हैं और उन्हें शीशा दिखाते हैं कि देख तेरे शरीर पर कितने बाल है, इन्हें कटा लें और तब तू गोद में खिलाने लायक बन जाएगी, बस भेड़ तैयार हो जाती है और हर बार किसी ना किसी बहाने से खुद को मुंडवाती रहती है। हम फोकट में अपने बाल दे रहे हैं और गंजे होकर खुश हो रहे हैं, एक दिन शायद अपना अस्तित्व ही भूल जाएं कि हम कौन थे! हमने दुनिया को क्या दिया था! लेकिन आज तो हम भूत-पिशाच को अपनाने में भी खुश हैं और अपने देवताओं को केवल मुहुर्त के लिये ही याद करते हैं। अजब लोग हैं हम!

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