अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

अपने अस्तित्व के साथ मरना

Written By: AjitGupta - Jun• 17•17

बचपन में जब किताबों की लत लगी हो तब कोई भी किताब हो, उसे पढ़ ही लिया जाता था। किताबें ही तो सहारा थी उन दिनों, दुनिया को जानने का उन से अधिक साधन दूसरा नहीं था। एकाध किताबें ज्योतिष की भी हाथ लग गयी और हम हस्त-रेखाओं के नाम-पते जान गये। थोड़ी सी इज्जत बढ़ जाती थी, हर कोई हमारे सामने हाथ फैला देता था और उस समय एक ही प्रश्न ज्यादा होता था कि विदेश यात्रा वाली रेखा है क्या? सभी के हाथ में तलाश की जाती और निराशा हाथ लगती। फिर चुपके से अपने हाथ में भी देख लेते और यहाँ भी हथेली साफ-सुथरी ही दिखायी देती। बचपन का खेल बचपन तक ही सीमित हो गया और हम बड़े हो गये, घर-परिवार के चक्कर में सारी कल्पनाएं छू-मंतर हो गयी। बच्चे बड़े होने लगे और उनके हाथ से ज्यादा मन में विदेश की रेखाएं बन गयी। एक दिन ऐसा भी आया कि उनकी रेखा ने परिणाम दिखा दिये। हम फिर से अपने हाथ की रेखा को तलाशने लगे। सोचते रहते कि हमारे हाथ में तो रेखा है नहीं इसलिये कोई चिन्ता की बात नहीं है लेकिन एक मित्र ने कहा कि इन रेखाओं पर मत जाओ, ये तो कभी भी बन जाती हैं। हम चक्कर में पड़ गये। नियति आगे बढ़ती गयी और हमें हमारे हाथ में रेखा गहरी होती दिखने लगी।
मुझे एक घटना का स्मरण हो गया। वृन्दावन में एक महिला से मिलना हुआ, वो अपने पति के साथ वहाँ मकान बनाकर रह रही थीं। उम्र भी कोई ज्यादा नहीं थी, शायद 60 के आसपास रही हो। मैं सोचने लगी कि अभी इनके हाथ-पैर चल रहे हैं और ये यहाँ वृन्दावन में रह रहे हैं लेकिन जब इनके हाथ-पैर चलना बन्द हो जाएंगे तब ये अपनी संतान की सेवाएं लेंगी। संतान को तब ये बोझ लगेंगे। इस बारे में मेरा चिंतन आगे बढ़ता इससे पूर्व ही वे बोल उठीं कि आप यह सोच रही होंगी कि जब हमारे हाथ-पैर चल रहे हैं तब तो यहाँ हैं और जब नहीं चलेंगे तब संतान के पास जाएंगे। मेरे मन की बात को उन्होंने पढ़ लिया था या यूं कहूं कि यह प्रश्न उनके लिये आम रहा होगा। लेकिन उनका उत्तर मेरे लिये आम नहीं था, वे बोलीं कि हम तो यहाँ मरने के लिये ही पड़े हैं। मतलब? उन्होंने जो उत्तर दिया वह मेरे लिये नवीन था, वे बोली कि वृन्दावन की भूमि में मरना सबसे बड़ा पुण्य है। यह बात नहीं है कि हमारी संतान हमारी परवाह नहीं करती लेकिन हमारी यह इच्छा है कि हमारा अंत इसी धरती पर हो। फिर उन्होंने बताया कि अभी दो वर्ष पूर्व अपने घर गयी थी, अचानक दिल का दौरा पड़ा और बेहोश हो गयी। होश आते ही जिद पकड़ ली कि मुझे वृन्दावन ले चलो, मुझे वहीं मरना है।
अपनी धरती पर या पुण्य भूमि पर मरने का सुख भी होता है, मैंने तभी जाना। शायद अपने अस्तित्व की बात होती है, जब अपनी धरती पर मरते हैं तब हम मरते हैं और दूसरी धरती पर मरते हैं तब संतान के मात-पिता मरते हैं। मेरा जीवन समाप्त हो गया, यह दुनिया जान ले, शायद यही चाहना होगी। पुण्य भूमि में मरने की चाह तो मोक्ष की चाहना भी रखती है। आज हम अपने अस्तित्व के लिए जागरूक होने लगे हैं। हम दुनिया को बताते रहते हैं कि हम हैं। लेकिन नयी पीढ़ी हमारी उपेक्षा ऐसे करती है जैसे कबाड़ की कोई चीज हो। जो संघर्ष पहले कहीं नहीं था आज घर-घर में दिखायी दे रहा है, पुरानी पीढ़ी कह रही है कि हम हैं और नयी कह रही है कि तुम हमारे लिये कबाड़ के अतिरिक्त कुछ नहीं हो। हम एक पीढ़ी तक सिमेट दिये गये हैं और हमारी पीढ़ी कसमसाकर रह जाती है। लेकिन जब कभी ऐसे रीत गये रिश्तों में नन्हीं सी कोंपल फूट आए तो हाथ की ये रेखा चिन्तित नहीं करती हैं। कल ऐसे ही हुआ, फोन पर आवाज आयी – भुआ आप कैसी हैं, इस बार आपको मेरे यहाँ आना ही होगा। कभी हम खुद को और कभी हाथ की रेखाओं को देखते हैं। न जाने कहाँ मरना हो? चलो मैं भी निश्चिन्त हो गयी कि कहीं भी मरे हमारी पहचान – हमारे मायके का रिश्ता वहाँ भी होगा।

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