अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

अब कब 565?

Written By: AjitGupta - Oct• 09•18

हमारा भारत है ना, यह 565 रियासतों से मिलकर बना है। अंग्रेजों ने इन्हें स्वतंत्र भी कर दिया था लेकिन सरदार पटेल ने इन्हें एकता के सूत्र में बांध दिया। ये शरीर से तो एक हो गये लेकिन मन से कभी एक नहीं हो पाए। हर रियासतवासी स्वयं को श्रेष्ठ मानता है और दूसरे को निकृष्ठ। हजारों साल का द्वेष हमारे अन्दर समाया हुआ है, यह द्वेष एक प्रकार का नहीं है. इसके न जाने कितने पैर हैं। कातर या कंछला होता है ना, उसके अनगिनत पैरों जैसे हमारे अन्दर द्वेष हैं। क्षेत्र, भाषा, धर्म, जाति, पंथ, वर्ण, लिंग, वैभव, पद आदि-आदि, न जाने कितने भेद हैं हममें। कदम-कदम पर हम एक दूसरे को आहत करने में कोई कसर नहीं छोड़ते। हमारी हर बात में दूसरे के लिये द्वेष है। यही कारण है कि हम खुश नहीं रह पाते। कहने को तो हम सम्पन्न हैं, शिक्षित हैं, ज्ञानवान हैं लेकिन फिर भी खुश नहीं हैं! क्यों नहीं हैं! क्योंकि हम द्वेष से भरे हैं। हमें खुशियाँ दिखती ही नहीं, बस हर घड़ी द्वेष निकलकर बाहर आ जाता है।
हम कहते हैं कि हमारे अन्दर प्रेम का सागर हिलोरे मारता है लेकिन मुझे लगने लगा है कि हमारे अन्दर द्वेष का ज्वालामुखी खदबदाता रहता है। मेरे बगीचे में एक फूल लगा है, उसमें फल के रूप में फलियां लगती हैं और वे फलियां ठसाठस परागकण व बीजों से भरी होती हैं। कभी आपने आक का झाड़ देखा होगा तो उसमें भी जो आक की डोडी होती है वह बीजों और परागकणों से ठसाठस भरी होती है। जैसे ही यह फली पकती है, फट जाती है और इसके अन्दर भरे हुए परागकण व बीज तेजी से उड़ने लगते हैं। आक के डोडे में भी यही होता है। रूईनुमा इन परागकणों की कोई सीमा नहीं होती, ये अनन्त यात्रा पर भी निकल सकते हैं। बस इसी प्रकार हमारे अन्दर जो द्वेष का दावानल खदबदाता रहता है वह जब वातावरण की गर्मी से परिपक्व होता है तब फली की तरह फट जाता है और द्वेष के रेशे न जाने कहाँ-कहाँ तक जा पहुँचते हैं।
हम हर घड़ी दूसरे को आहत करने के लिये सज्ज रहते हैं, इसलिये कुछ लोग इस बात का फायदा उठाते हैं। हमारे लिये कहा जाता है कि यहाँ लोगों को हथियार देने की जरूरत ही नहीं है, लोगों के अन्दर इतना द्वेष भरा है कि वे बिना हथियार के ही एक दूसरे को चीर-फाड़ डालेंगे। जंगल घर्षण से जल उठते हैं, लेकिन यहाँ तो केवल पकी हुई फली पर हाथ रखना है, वह फट जाएगी और उसके परागकण ना जाने कहाँ-कहाँ तक पहुंच जाएंगे! क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद आदि आदि का खेल हमारे यहाँ रोज ही खेला जाता है। हम एक देश में रहते हुए भी बाहरी के तमगे से नवाजे जाते हैं। गुजरात या महाराष्ट्र से बिहारियों को निकालने का मसला तो बहुत बड़ा है लेकिन यहाँ राजस्थान में भी हर शहर में दूसरे शहर का निवासी भी बाहरी हो जाता है। हमारे अन्दर अनेकता के इतने खांचे हैं कि एकता का कोई भी खोल उन्हें समेट ही नहीं पाता है। मजेदार बात यह है कि जितने भी प्रबुद्ध लोग हैं जो इस दावानल के विष्फोट में माहिर हैं वे हमारे अन्दर की आग को तो कभी बुझने नहीं देते हैं लेकिन जो वास्तव में बाहरी हैं, विदेशी हैं, आक्रमणकारी हैं, हमें रौंदनेवाले हैं, हम उनका स्वागत करते हैं। यह कहानी आज की नहीं है, सदियों से यही चल रहा है। हम विदेश आक्रान्ताओं का स्वागत करते हैं और अपनों का विरोध करते हैं। आज भी रोंहिग्या को बसाने की वकालात करते हैं और गुजराती-बिहारी को लड़ाने की जुगत बिठाते हैं।
क्या हम भारतीय कहलाने वाले लोग, अधिक दिनों तक भारतीय रह पाएंगे? मुझे तो लगता है कि हमारे अन्दर जो रियासत जड़ जमाए बैठी है, हम एक दिन उसी में बदल जाएंगे। 565 बने या ज्यादा बने या कम, बनेगे शायद। यदि बंटवारा हुआ तो क्या केवल क्षेत्र का होगा? नहीं अभी तो धर्म है, सम्प्रदाय है, वर्ण हैं और भी बहुत कुछ है। कितने बंटेंगे हम? हमारे द्वेष का घड़ा कितनी बार फूटेगा? कितना जहर धरती पर फैलेगा। हे भगवान! तू ने केवल मनुष्य को बुद्धि दी, अच्छा किया, नहीं तो इस सृष्टि में कितनी बार प्रलय होती! क्या हमें फिर से समुद्र मंथन की जरूरत नहीं है? इस बार हमें अपने अन्दर मंथन करना होगा, जहर और अमृत को अलग-अलग करना होगा। हमारे अन्दर जो द्वेष का अग्निकुण्ड धधक रहा है उसके लिये कुछ तो करना ही होगा। कोई उपाय नहीं खोजा तो सृष्टि खोज लेगी उपाय। फिर से अनादि काल में ले जाएगी और फिर जुट जाएगा मनुष्य सभ्यता बनाने में। शायद हमें नष्ट होना ही है। बीज रूप में धरती में गड़ना ही है और फिर नष्ट होकर नये वृक्ष को जन्म देना ही है। तभी हम से द्वेष नामक विष दूर होगा और हमारे वृक्ष पर अमृत फल लग सकेंगे।

You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.

Leave a Reply