टाटा स्काई और नेटफ्लेक्स ने समानान्तर फिल्में बनाकर अपनी दुनिया खड़ी की है। नेटफ्लेक्स का तो मुझे अनुभव नहीं है लेकिन टाटा स्काई की बॉलीवुड प्रीमियर को काफी दिनों से देख रही हूँ। छोटे बजट की छोटी फिल्में बना रहे हैं और कहानी भी हमारी जिन्दगी के आसपास ही घूमती है। परसो एक फिल्म आ रही थी, दस मिनट की ही देख पायी थी लेकिन शुरुआत में ही ऐसा कुछ था जो मेरे कान खड़े करने को बाध्य कर रहा था। माता-पिता को अपनी बेटी की चिन्ता है और उन्हें शक है कि आधुनिक चलन के कारण उनकी बेटी भी लेस्बियन जीवन तो नहीं जी रही है? बेटी बोलती है कि नहीं मेरा ऐसा कुछ नहीं है, माँ लेस्बियन का अर्थ नहीं समझ पाती है तो बेटी समझाती है कि गंगा को धरती पर लाने वाले भगीरथ थे ना! राजा सगर की दो पत्नियाँ थी और वे जो थी उसी की बात कह रही हूँ। माँ भगीरथ के नाम से ही श्रद्धा से गीत गाने लगती है और बेटी को भी गीत गाने को कहती है लेकिन ना माँ समझ पायी कि बेटी क्या कहना चाहती है और ना ही दर्शक समझ पाए होंगे कि धीरे से फिल्म निर्माता ने हमारे पुराण पर प्रहार कर दिया है। ऐसे प्रहार रोज ही किये जाते हैं, कभी हम समझ पाते हैं और कभी नहीं। लेकिन देखते ही देखते कथाएं नवीन स्वरूप लेने लगती हैं और नयी पीढ़ी को भ्रमित करने का सफल प्रयोग किया जाता है।
एक तरफ साहित्य हमें सभ्यता और संस्कृति से जोड़ता है वही फिल्मी साहित्य हमें फूहड़ता और असभ्यता से जोड़ने की ओर धकेल रहा है। गालियों का प्रयोग इतना भरपूर हो रहा है कि लगने लगा है कि हम किस दुनिया में आ गये हैं! गालियों का प्रभाव तो हम सोशल मिडिया पर देख ही रहे हैं, किसी एक ने गालियों का प्रयोग लेखन में किया और गाली-प्रिय लोग एकत्र होने लगे। देखते ही देखते गालीबाज लोग प्रसिद्ध होने लगे, उनकी देखादेखी दूसरे लोग भी गाली पर उतर आए। अब तो गालियों की संख्या बढ़ती ही जा रही है, सभ्यता को तो हमने किनारे कर दिया है। नेटफ्लेक्स में भी गालियों की भरमार है और टाटा स्काई पर भी। कथानक हमारी जिन्दगी के हर पहलू को छू रहे हैं लेकिन असभ्य तरीके से, इनमें सौंदर्यबोध कहीं नहीं है। ऐसी फिल्मों पर समाज को दृष्टि रखनी होगी। मैं समझ सकती हूँ कि हमारे पुराणों ने सैकड़ों कहानियाँ दी है, हमारा इतिहास भी गौरव गाथाओं से भरा है और टीवी के भी सैकड़ों चैनल आ गये हैं। कौन सा चैनल कब किस चरित्र का चरित्र हनन कर दे, उन पर लगाम लगाना परिश्रम साध्य काम है। लेकिन यह हमें करना ही होगा। हम पहले भी बहुत कुछ बर्बाद कर चुके हैं, तब तो हम कह देते हैं कि हम गुलाम थे इसलिये ऐसा हुआ लेकिन आज तो स्वतंत्र हैं! हम जागरूक भी हैं तो क्यों नहीं अपने विवेक को जागृत करते हैं और ऐसा कुछ फिल्माया गया है तो उस पर निगाह रहे। मैंने केवल दस मिनट की फिल्म देखी थी, नाम भी कुछ अजीब सा था, दोबारा जरूर देखूंगी और फिर समझ पाऊंगी कि फिल्मकार क्या चाहता है? लेकिन यह तय है कि हमारे सीरियल और फिल्में धीरे से वार कर रही हैं, बहुत ही सोची-विचारी रणनीति के अनुरूप ऐसा हो रहा है। एक सीरियल आ रहा है चन्द्रगुप्त मौर्य – इसमें तो पुरातन इतिहास की धज्जियां उड़ा दी गयी है लेकिन समाज का कोई स्वर नहीं उठता है! हम लोग इस विषय में क्या कर सकते हैं, इस पर विचार आवश्यक है। कल तक राम और कृष्ण इनके निशाने पर थे आज गंगा को माँ और पवित्र नदी मानने के कारण भगीरथ पर प्रहार शुरू हुआ है, अभी केवल कंकर फेंका गया है, धीरे-धीरे हमारे पैरों से जमीन ही खिसका दी जाएगी। सावधान!
अब भगीरथ की बारी
Written By: AjitGupta
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Apr•
03•19
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