कहते हैं कि बादल धरती की अभिव्यक्ति को अपने में समेट लेता है। धरती अपनी पीड़ा को शब्द नहीं देती अपितु नि:श्वास बनाकर उष्मा के सहारे बादलों को समर्पित कर देती है। बादल एकत्र करते रहते हैं, धरती की वेदना। वेदना रूपी उष्मा के एकत्रीकरण की जब प्रचुरता हो जाती है तब बादल कभी झरने लगते हैं तो कभी फट जाते हैं। बादल अपनी अभिव्यक्ति वर्षा के रूप में करते हैं। लेकिन आजकल लगता है बादल भी इंसानों की तरह अभिव्यक्ति करना भूलता जा रहा है। वह भी अधिक सहिष्णु हो गया है या अभिव्यक्ति का मार्ग बिसरा बैठा है। लेकिन जब धरती की पीड़ा को समेटा है तो एक न एक दिन तो इसका निस्तारण अवश्य ही होगा। आखिर कब तक बादल धैर्य रखेगा? बादल बहुत सोचता है कि ना करूँ अभिव्यक्त लेकिन एक दिन अचानक ही उसका धैर्य जवाब दे जाता है और वह फट पड़ता है। धरती पर सैलाब आ जाता है, उथल-पुथल मच जाती है। लगता है विनाश का पल आ गया हो। यदि बादल प्रकृति के साथ ही चले और अभिव्यक्ति को समय पर ही व्यक्त करे तो उसकी धारा निर्मल रहती है और प्राणी मात्र के लिए लाभकारी सिद्ध होती है। इसी प्रकार यदि मनुष्य भी अपनी अभिव्यक्ति को उचित समय पर व्यक्त कर दे तो शान्ति बनी रहती है।
लेकिन मनुष्य ने अभिव्यक्ति के मार्ग बन्द कर दिये हैं। पहले गली-मोहल्लों में झगड़ा करते लोग, परिवारों में बच्चों को डाँट-डपट करते बुजुर्ग अक्सर दिखायी देते थे। कुछ भी बुरा लगा तो तुरन्त अभिव्यक्ति। लेकिन वर्तमान में ऐसा नहीं है। परिवार में बच्चों को डाँटने की मनाही है। सभ्यता की आड़ में एक-दूसरे से झगड़ने में भी संकोच है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता के कारण पति-पत्नी भी एक-दूसरे पर अपना हक जमाने में सौ बार सोचते हैं। मन की उष्मा भाप बनकर निकल नहीं पाती, एकत्रीकरण शरीर में ही होता रहता है। बादल समय पर जब बरस नहीं पाते तो असमय ही फट जाते हैं। मन भी ऐसे ही फट जाता है, कभी स्वयं के तन को परेशानी में डाल देते हैं तो कभी रिश्तों को हमेशा के लिए अन्त कर देते हैं।
कहते हैं कि अभिव्यक्ति एक कला है। कोई अपने गुस्से को भी प्रेम से मोड़ लेता है तो कुछ प्रेम को भी गुस्से के रूप में प्रगट करते हैं। हम किसी से प्रेम करते हैं, लेकिन कह नहीं पाते और जब अवसर आता है तब गुस्सा करके अपना प्रेम प्रगट करते हैं। सामने वाला आपके गुस्से के पीछे खड़े प्रेम को देख ले तो बात बन जाती है और ना देखे तो बात बिगड़ जाती है। लेखक के पास अभिव्यक्ति का मार्ग है। वह अपनी अभिव्यक्ति शब्दों के माध्यम से समाज तक पहुंचा देता है। लेखक जब अपनी कलम पकड़ना सीखता है तब उसकी अभिव्यक्ति बेलगाम घोड़े की तरह दौड़ने लगती है। वह सभी विषयों पर अपनी बुद्धि प्रगट करता है। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता है वह भी दौड़ने से पहले चारो तरफ देखने लगता है। मेरी लेखनी से समाज में क्या प्रतिक्रिया होगी, समाज नकारात्मकता की ओर बढ़ेगा या फिर सकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न होगी, यह विचार उसके दिल और दिमाग में हलचल मचाने लगते हैं। तब कहते हैं कि लेखक सयाना हो गया है। सयाने लेखक के दो शब्द पढ़ने के लिए भी दुनिया तरसने लगती है जबकि नवीन लेखक के ढेरों शब्द भी कूड़े के ढेर में तब्दील हो जाते हैं। इसी प्रकार वक्ता भी अपनी अभिव्यक्ति करता है लेकिन यदि समय और स्थान का उसे ध्यान नहीं है तो उसके कथन का समाज पर असर नहीं होता है। समाज में प्रत्येक युग में वैचारिक आंदोलन हुए हैं और होते ही रहेंगे भी। लेकिन किसी विचार से समाज चमत्कृत हो जाता है और किसी श्रेष्ठ विचार को भी समाज अंगीकार नहीं कर पाता है।
विवेकानन्द युवा संन्यासी थे, उनके विचार दुनिया के लिए अनजाने थे। लेकिन उनके एक सम्बोधन ने ही दुनिया को चमत्कृत कर दिया। जिस समाज में केवल भोगवाद हो, स्त्री को केवल भोग की वस्तु माना जाता रहा हो, परिवार की परिभाषा बदल गयी हो, वहाँ भाइयों और बहनों का सम्बोधन अमेरिकी समाज को चमत्कृत कर गया।
वर्तमान में सैकड़ों ही नहीं हजारों या लाखों संन्यासी प्रतिदिन प्रवचन दे रहे हैं लेकिन समाज में परिवर्तन नहीं आता। समाज क्या चाहता है, व्यक्ति की चाहत क्या है, शायद इस नब्ज पर कोई भी संन्यासी हाथ नहीं रख पा रहा है। व्यक्ति को अभिव्यक्त कोई भी नहीं कर पा रहा है। व्यक्ति स्वयं से अनजाना बना जा रहा है। वह एक मशीन बन गया है, सुबह से शाम तक की एक कठपुतली, जिसे पता नहीं कौन संचालित कर रहा है और क्यों संचालित कर रहा है? हम अंधेरे में ही तीर चला रहे हैं और आगे बढ़ रहे हैं। हम सब ढूंढ रहे हैं कि कोई ऐसा इंसान मिल जाए जिसके समक्ष अपने मन को उंडेल सके लेकिन कोई दिखायी नहीं देता। ना तो हमारे पास अभिव्यक्ति का ज्ञान है और ना ही दूसरे की अभिव्यक्ति को सुनने समझने का बोध है। कैसी दुनिया में जी रहे हैं हम? जहाँ पेट क्या मांग रहा है, इसका तो सुबह से ही बखान हो जाता है लेकिन मन क्या मांग रहा है, इसका बोध ही नहीं है। निरीह पशु की तरह जीवन जी रहे हैं हम लोग, जो कभी खूंटे से बंधकर तो कभी खुले में घूमकर अपना चारा खा लेता है और जुगाली करता हुआ सो जाता है।
इस मनुष्यों से अभिव्यक्ति की शक्ति छिन जाएगी तब इस दुनिया का स्वरूप कैसा होगा, कल्पना करना कठिन है। शायद कहीं सम्बंधों का अकाल होगा तो कहीं आक्रोश के बादल फटने जैसा हाहाकार होगा। अभिव्यक्ति मनुष्य की आवश्यकता है और यही गुण हमें अन्य जीवों से अलग भी करता है। इसलिए अपनी अभिव्यक्ति को मार्ग दें और अन्य की अभिव्यक्ति को ग्रहण करें। बस सावन के बादलों को रिमझिम बरसने दें तो मन ही नहीं सारा संसार में हरीतिमा छायी रहेगी और प्रेमयुक्त समाज का निर्माण हो सकेगा।
मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ , अगर हमें अपनी बात कहने का मौका नहीं मिलेगा तो स्थति बिस्फोटक होगी !
मन रूपी बादल सहज बरसते रहें …. अभिव्यक्ति को यदि मन से ग्रहण किया जाए तो विस्फोट की संभावना नहीं रहती ।
इस मनुष्यों से अभिव्यक्ति की शक्ति छिन जाएगी तब इस दुनिया का स्वरूप कैसा होगा, कल्पना करना कठिन है। शायद कहीं सम्बंधों का अकाल होगा तो कहीं आक्रोश के बादल फटने जैसा हाहाकार होगा।
सार्थक लेख ……
अपनी बात कहता सार्थक आलेख्।
सच कहा है आजकल अधिकता अभिव्यक्ति घरों में बुजुर्गों पे या मानसिक अत्याचार करके निकालते हैं लोग … जो नहीं निकाल पाते उनका ब्लड प्रेशर के रूप में निकलता है …
परिवार का बदलता स्वरुप बहुत बड़ा कारण है इस व्यवस्था के लिए …
जिनका ‘मार्गदर्शन’ आत्मीय है उनकी अभिव्यक्ति निर्बाध नहीं. और
जिनकी अभिव्यक्ति निर्बाध है वे मार्गदर्शन देने के योग्य नहीं.
यदि हमारा कोई गुरुजन (माता-पिता या आयु में बड़े) सामाजिक शिष्टाचार के नाते अपने विरोधी स्वभावी व्यक्ति से मिल भी आता है तो स्वयं के स्नेही रुष्ट हो जाते हैं.
और यदि वे स्नेही लोगों के दोष गिनाने आ जाता है तो ‘स्नेही’ उसे विरोधी पक्ष का हिमायती (या दलबदलू) मान बैठते हैं.
…. सच में बड़ा कठिन है …. आज अभिव्यक्ति को निर्बाध रख पाना.
मैंने संस्कृत में एक ‘विचार’ पढ़ा था :
“शत्रोरपि गुणोवाच्या, दोषावाच्या गुरोरपि.” शत्रुओं के गुणों की भी प्रशंसा करो, और गुरुओं के दोषों का भी उल्लेख करो.
किन्तु, वर्तमान में इस विचार को आत्मसात करना बहुत दुरूह हो गया है.
आपने अपने आलेख में अंतर्मन की जिस पीड़ा को व्यक्त किया है … वह ‘संवेदनशीलता की कराह’ है. आज देखने में आ रहा है … समाज में संस्कृति के नाम पर नयी पीढ़ी से की जाने वाली टोका-टाकी, टीका-टिप्पणी सब समाप्त हो चुकी है…. सभी की ‘स्वतंत्रता’ पर अपनी-अपनी परिभाषायें हैं, समझ है. संबंधों से सम्बंधित ‘मर्यादाओं’ का लोप हो चुका है.
दिल्ली-मेट्रो के स्टेशनों पर किशोर-किशोरियों और युवा-युवतियों के अतिस्पर्शक और संघर्षक आलापों से आहत होकर एक वृद्ध ने अपने मन को व्यक्त कर ही दिया… जब उसने साधारण संवादों से परखकर मेरी मनोवृत्ति का अनुमान लगा लिया तब उसने कहने का साहस किया. अन्यथा उनके मन के विचार संग्रहित होते-होते न जाने कैसे और न जाने कहाँ विस्फोट करते.
भारतीय समाज में चल रहे इस मनमाने अंधड़ में गुरुजन शुतुरमुर्ग की भाँति अपनी आँखें मूँदना ही एकमात्र उपाय मान रहे हैं. ना जाने कैसे स्थिति संवरेगी?
प्रतुलजी आपने मेरे विचार को आगे बढाने का सदप्रयास किया है, स्वतंत्रता के नाम पर हम आज किसी को भी कुछ नहीं कह सकते परिणाम तो कई बार ब्लागजगत पर भी देखे गए हैं।
व्यक्तिगत होती जा रही जिंदगी में अभिव्यक्ति की कुर्बानी हो रहीहै . सही कहा , यदि मस्तिष्क में उमड़ते घुमड़ते विचारों को निष्कासन का अवसर न मिले तो वे नासूर बन सकते हैं . हम तो ऐसे मरीज़ अक्सर देखते आये हैं .
सार्थक लेख .
आप से पूरी तरह सहमत, संवाद बना रहे, उसमें म जाने कितना गुबार निकल जाता है..
सच कहा बिना अभिव्यक्ति के तो इंसान पशु सामान है. फर्क इतना की इन्सान में सोचने समझने की शक्ति पशु से अधिक है तो परिणाम फिर मूक इन्सान का यही होगा की वो कभी न कभी फटेगा तो जरूर. कई लोग मौन को ही सभी समस्याओं का हल मान कर संवाद या अभिव्यक्ति नहीं करना चाहते….लेकिन ये सरा-सर गलत है. मन के विचारों को अभिव्यक्त करने से ही तो विचार और विकार का खुलासा होता है. लेकिन ऐसे लोगों की सोच को कैसे बदला जाये जो मौन को सभी बिमारियों की दवा मान लेते हैं.
विचारणीय लेख जो लोगों को सही दिशा देने के लिए प्रेरित करता है.
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (08-07-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
shayad isi karan hamare samvidhan ne bhi abhivyakti kee aazadi dee hai.sangrahniy v sarthak prastuti.धिक्कार तुम्हे है तब मानव ||
सहमत, एक सीमा तक
मन की उष्मा भाप बनकर निकल नहीं पाती, एकत्रीकरण शरीर में ही होता रहता है।
फिर परिणाम तो वही होता है जो आपने बताया है | सच में परिस्थितियां ऐसी ही हैं | साथ रहकर भी अनजान ही बने रहते हैं….न मन की कहते हैं न मन की सुनते हैं | बहुत ही अच्छा लगा आपका आलेख …
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल रविवार को 08 -07-2012 को यहाँ भी है
…. आज हलचल में …. आपातकालीन हलचल .
बहुत ही गहरी बात कही है…किसी ना किसी रूप में अभिव्यक्त होना बहुत जरूरी है..वरना अंदर ही अंदर तन-मन को बहुत कष्ट पहुंचाती है यह ,चुप्पी
बहुत सही तरीक़े से आपने बिम्बों के माध्यम से आपने बात रखी है। यह बहुत ज़रूरी है कि अभिव्यक्ति को बाहर निकलने का अवसर मिले नहीं तो जो बाहर हरियाली उत्पन्न करने वाले बादल हैं भीतर में उमस पैदा करते रहेंगे।
बस सावन के बादलों को रिमझिम बरसने दें तो मन ही नहीं सारा संसार में हरीतिमा छायी रहेगी और प्रेमयुक्त समाज का निर्माण हो सकेगा।
बहुत बढ़िया आलेख ….अनुभव मे पगा हुआ …आपका टेम्पलेट बहुत पसंद आया ….इसका कलर कॉम्बिनेशन भी बहुत आकर्षक है …!!अगर आपका आलेख ध्यान से पढ़ कर उस पर अमल कर लिया जाये तो जीवन की कै समस्याओं से निजात मिल जाये …!!
बहुत सार्थक आलेख …शुभकामनायें.
सार्थकता लिए बेहतरीन पोस्ट….
🙂
अभिव्यक्ति का गला घोटने से जीना बहुत मुश्किल हो जाता है…बहुत सार्थक आलेख..
मन में घुमड़ती बातों का निकास बहुत जरुरी है सच कहा ..वर्ना मन तो क्या शरीर भी रोगी हो जाता है.
बढ़िया सार्थक पोस्ट.
आपकी बातों से सहमति है मगर तब से आज तक बहुत कुछ बदल गया है, इसलिए शायद कहीं-कहीं आपसी समवेदनायें नष्ट होती जा रही है। जिसके कारण अभिव्यक्ति व्यक्त ही नहीं हो पाती। लेकिन मन की बातों का निकलना भी बहुत ज़रूर है वरना अंदर ही अंदर समाये या जज़्ब होते जज़्बात एक दिन ऐसा विस्फोट करते हैं। जिसे न सिर्फ रिश्ते बल्कि खुद वो इंसान भी तन और मन से पूरी तरह नष्ट हो जाता है। क्यूंकि अति हर चीज़ की बुरी होती है हर एक चीज़ एक दिन भरते-भरते छलक ही जाती है। ज्वालामुखी भी एक दिन धधकते-धधकते फट ही जाता है और अपने साथ सब कुछ लेजाता है। फिर क्या ज़िंदगी और क्या प्रकृति। सार्थक चिंतन विचारणीय आलेख।
रविवारीय महाबुलेटिन में 101 पोस्ट लिंक्स को सहेज़ कर यात्रा पर निकल चुकी है , एक ये पोस्ट आपकी भी है , मकसद सिर्फ़ इतना है कि पाठकों तक आपकी पोस्टों का सूत्र पहुंचाया जाए ,आप देख सकते हैं कि हमारा प्रयास कैसा रहा , और हां अन्य मित्रों की पोस्टों का लिंक्स भी प्रतीक्षा में है आपकी , टिप्पणी को क्लिक करके आप बुलेटिन पर पहुंच सकते हैं । शुक्रिया और शुभकामनाएं
बहुत सुन्दर उत्कृष्ठ आलेख ….बहने दो इन धारों को सैलाब बन जायेंगे ,मत रोको इन अश्कों को तेज़ाब बन जायेंगे
नो कमेन्ट जस्ट प्रणाम. एक लम्बे अंतराल के एक खुबसूरत नहीं सार्थक पोस्ट पढ़ने को मिला
एक सुकून मिला . बातें तो कुछ भी लिखी जा सकती है किन्तु कभी कभी हम युनिवर्सल
सर्व मान्य, सर्वग्राह्य ,सर्वकालिक हो जो कल भी पढ़ सकें लिखना चाहिए …
अभिव्यक्ति रास्ता तो खोज ही लेती है, अवसर और पात्र अनुकूल मिल जाएँ तो सार्थक अभिव्यक्ति नहीं तो मिस्गायडीड मिसाईल|
अपने को अभिव्यक्त करना व्यक्ति औक समाज दोनों के लिये हितकारी है ,
पर उसके लिये उचित मंच और सचेत श्रोता मिलें तभी सार्थक होगी है ,नहीं तो लोग इस कान सुने उस कान निकाल फेंकेंगे .
अभिव्यक्ति व्यक्ति के मन के गुबार को निकल देती हैं और मन वापस निर्मल हो जाता है. लेकिन यह अभिव्यक्ति जब स्वेच्छाचारी बन जाती है और लोगों को आहत करने लगती है तो वह सार्थक नहीं रह जाती है. आपने बड़े सुन्दर ढंग से विषय को प्रस्तुत किया है.