अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

अमेरिका को कैसे अपनाएं?

Written By: AjitGupta - Oct• 28•14

अमेरिका जाने का इसबार तीसरा अवसर था। वहाँ की कोई बात करूं इससे पहले अपने जीवन में थोडा़ पीछे चलते हैं। आपने किसी से प्रेम किया था? या आपके मन में आपके जीवनसाथी की एक विशिष्‍ट कल्‍पना थी? इसके विपरीत आपका प्रेम या आपकी कल्‍पना साकार रूप ना ले सकी हो तब ऐसे में आपने क्‍या किया? कल्‍पना कीजिए कि आपकी मनमर्जी के विरूद्ध सगाई कर दी गयी हो और फिर कहा गया हो कि अब आप अपना मन मिलाने के लिए साथ-साथ घूमते-फिरते रहिए। आप पहली बार अपने होने वाले जीवनसाथी के साथ समय व्‍यतीत करते हैं। मन की कल्‍पना आपको उदास रखती है, आपको ना तो खानपान में, ना ही सोचने-समझने में और ना ही रहन-सहन में अपने दिल मिलते हुए दिखायी देते हैं। ऐसे समय घर आकर पैर पटकने के सिवाय दूसरा कोई विकल्‍प नहीं रह जाता। लेकिन फिर दोबारा मिलने का अवसर मिलता है तब भी आप सहज नहीं हो पाते। आखिर ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी आपका विवाह हो जाता है। अब आपकी मानसिकता एकदम से बदल जाती है। अब हम जिन्‍दगी भर एकदूसरे के साथी हैं तो हमें एक-दूसरे को अपनाना ही है। तेरी पसन्‍द मेरी है और मेरी पसन्‍द तेरी है का भाव आ जाता है। ऐसी ही स्थिति मेरी अमेरिका के साथ है। जब बेटा अमेरिका गया था, तब वह उस सुन्‍दर दुल्‍हन को देखकर इतना मोहित हो गया था कि बस अब तो इसके सिवाय दुनिया में कोई नहीं है। (यहाँ मेरा बेटा उस समस्‍त युवापीढ़ी का प्रतीक है।) वह अपनी पसन्‍द को हमारी पसन्‍द बनाने की जल्‍दबाजी में था। वह हमें दुनिया का सबसे सुन्‍दर देश दिखाना चाहता था इसलिए अमेरिका की पहली यात्रा की, लेकिन मन की कल्‍पना और जमीनी हकीकत मेल नहीं खायी। ना अपना जैसा खाना था, ना पहनावा था और ना ही आचार-विचार थे। लेकिन बेटे की पसन्‍द थी अर्थात सगाई हो चुकी थी। ऐसे में घर आकर याने भारत आकर पैर पटकना शुरू हो गया। यह अच्‍छा नहीं वह अच्‍छा नहीं। हम भारतीयों के लिए कुछ अच्‍छा नहीं। कैसे निभेगी?

लेकिन हमारी संतानों की पहली पसन्‍द है अमेरिका तो उनकी जिद कि हम अपने माता-पिता को भी इस स्‍वर्ग को पसन्‍द कराकर ही दम लेंगे। दोबारा गए अमेरिका, अब भी वही, जुबान का स्‍वाद नहीं और जुबान हिलाने के लिए या बातचीत करने के लिए कोई व्‍यक्ति नहीं। अपने संस्‍कारों की सरेआम धज्जियां उड़ते देख मन को सुलगते हुए केवल देखने की मजबूरी और। अपनी कलफ लगी सिल्‍क की साड़ी या सिफोन की नफासत वाली साड़ी वहाँ अटेची से बाहर ही नहीं निकल पाए। कभी निकाल भी लो तो भांत-भांत की वेशभूषा के सामने लगे कि बंदरिया को पूरे कपड़े पहनाकर घुमाया जा रहा है। कोई मतलब नहीं, अपनी वेशभूषा का। कहने का अर्थ यह कि फिर वही ढाक के तीन पात। जैसा की मैंने पहले कहा, जब विवाह का पवित्र बंधन बंध जाता है तब विचार बदल जाते हैं। अब तो यह मेरा है और आजीवन मेरा ही रहेगा इसलिए इसके सारे अवगुण भी अब मेरे ही हैं। ऐसा ही हुआ हमारे साथ भी। बेटे ने मकान खरीद लिया, ग्रीन कार्ड आ गया और सिटीजनशिप की ओर कदम बढ़ गए। अब तो अमेरिका अपना सम्‍बंधी हो गया। सम्‍बंधी से रिश्‍ता सबसे गहरा होता है। बेटे की पसन्‍द हमारे सिर-माथे पर। अमेरिका को देखने का नजरिया बदल गया। बस अब मन ने संकल्‍प ले लिया कि जो भी है, जैसा भी है सब अपना है। उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय खाने का मिलन होने लगा।

इसलिए तीसरी यात्रा अलग अनुभव लेकर आयी। छोले भटूरे खाते-खाते अब रसम चावल को भी चखना शुरू किया। अपने आपको पूर्ण रूप से समर्पण कर दिया। पुत्रवधु और पुत्र दोनों से ही कह दिया कि जो तुम को हो पसन्‍द वही बात करेंगे। तुम दिन को कहो रात तो हम रात कहेंगे। हमने उस जीवन का आनन्‍द लेना शुरू किया। अपनी दिनचर्या को बदलना शुरू किया। लेकिन अभी भी कुछ प्रश्‍न ऐसे थे जो हमसे हल नहीं हुए। हमारे संस्‍कार वहाँ आड़े आ गए। एकाध बार टोका-टोकी हो ही गयी। लेकिन वह भी इतनी सी जैसे आटे में नमक पड़ता हो। अब आपको ले चलती हूँ अपनी दिनचर्या की ओर। जिससे आपको अमेरिका का जीवन समझने में कठिनाई नहीं होगी। नहीं तो जो पहली बार आता है वह बेचारा बौरा जाता है। पहले वाकया सुन लीजिए फिर आगे बढ़ते हैं। – दिन में ठण्‍डक सी थी तो धूप सुहा रही थी और 11 बजे दिन में बाहर घूमना भी अच्‍छा लग रहा था। पतिदेव घूमने निकल पड़े। लम्‍बी-चौड़ी सोसायटी में अधिकांश जगह गोल्‍फ-कोर्स वालों ने घेर रखी थी। बड़े-बड़े गोल्‍फ खेलने के मैदान, गोल्‍फ कार जाने के लिए पगडण्‍डी जैसी सड़क लेकिन बाहर किनारे पर ही बोर्ड लगा रहता कि गोल्‍फ के मैदान पर या सड़क पर भी जाना मना है। अब अमेरिका में कहीं लिख दिया कि मना है तो फिर वहाँ परमात्‍मा भी नहीं जा सकता। हमारे जैसे नहीं कि लिख दिया कि यहाँ पार्किंग नहीं या यह नहीं वह नहीं, तो बस समझो यही होगा अब तो सारा काम। इसलिए हमारा उस हरे कच्‍च मैदान में जाना एकदम मना, बस आप उसे देखकर ललचा सकते हैं। बस आप सोसायटी की सड़क पर ही घूम सकते हैं। सड़क दिन में भी खाली ही रहती है, कोई इक्‍की-दुक्‍की सोसायटी की ही कोई गाडी आपको मिल जाएगी और पहले पैदल वाले को ही रास्‍ता देगी। आप आँख बन्‍द करके भी चलें तो आपको कोई गाडी अपने नीचे नहीं ले सकती। आपको बचाना उसका कर्तव्‍य है। खैर ऐसे में पतिदेव सड़क पर ही चहलकदमी कर रहे थे। सोसायटी के अन्‍दर ही घाणी के बैल की तरह चक्‍कर लगाना था, क्‍योकि अपने कदमों को अधिक विस्‍तार भी नहीं दे सकते थे, यदि रास्‍ता भूल गए तो उस सुनसान देश में किससे पूछ लेंगे? लेकिन एक सीधे-सादे पति को यदि कोई महिला पीछे से आवाज लगा दे तो घबराहट तो होगी ही ना! लेकिन तसल्‍ली थी कि आवाज आयी – भाई साहब। पीछे मुड़कर देखा, एक भारतीय महिला थी। सांवला सा रंग था, चेहरे का नूर उड़ा हुआ था, बदहवास सी आवाज लगा रही थी। पास आने पर पूछताछ चालू हो गयी। आप कब आए भारत से? आप कौन सी जाति से हैं? आपका घर कहाँ है? आदि आदि। अमेरिका जब आप पहली बार जाते हैं तब अक्‍सर आपकी जुबान पर दही जम जाता है, कोई बोलने वाला ही नहीं मिलता। तो जो दिख जाए, बस वहीं चालू हो जाते हैं। ऐसा ही उस भद्र महिला के साथ हुआ, लेकिन उसे पता नहीं था कि वह पुरुष हिम्‍मत वाला नहीं है। वह तो डर गया था कि कौन है यह महिला और क्‍यों मेरे सर पड़ रही है। आधे-अधूरे प्रश्‍नों का उत्तर देकर वे जल्‍दी से अपने घर में घबराए से घुसे। अन्‍दर घुसते ही मुझसे सामना हुआ। क्‍या हुआ? बताने लगे कि कोई महिला थी, मुझसे न जाने क्‍या-क्‍या पूछ रही थी। मैने तो उसे भगा दिया और घर आ गया। अब मेरा हँसी के मारे बुरा हाल। कैसा पुरुष है जो महिला के प्रश्‍नों से डरकर भाग आया। अरे वह आपको खा तो नहीं रही थी, बेचारी पहली बार आयी है अमेरिका, तो घबरा गयी है यहाँ का सन्‍नाटा देखकर। साथ में ले आते, थोड़ा यहाँ बैठती तो उसका मन हल्‍का हो जाता। वह रहती तो यहीं आसपास होगी और बच्‍चे भी शायद एकदूसरे को जानते होंगे तो जब मिलेंगे तो क्‍या बात करेंगे? ऐसा है अमेरिका का जीवन। जब आप पहली बार जाते हैं तब ऐसे घबराए हुए होते हैं, बस कोई मिल जाए अपने देश का और दो बोल बोल लें उससे।  क्रमश:

You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.

3 Comments

  1. अगली पोस्ट का इंतजार है

  2. और जानेंगे अमेरिका को आपकी मदद से 🙂

  3. AjitGupta says:

    अनूप जी और वाणी जी आपका आभार, लग रहा था कि ब्‍लाग के प्रति बेरुखी के चलते यह पोस्‍ट कुंवारी ही रहने वाली है लेकिन आपने इस बात को नहीं होने दिया पुन: आभार।

Leave a Reply to अनूप शुक्ल Cancel reply