घर की छत, शाम होते ही पानी से सरोबार हो जाने वाली छत। सुबह के साथ ही गहमा-गहमी वाल छत। शाम होते ही पहले पानी से छिड़काव किया जाता, बड़े करीने और सलीके से उसे सुखाया जाता और फिर कितनी खुबसूरती के साथ बिस्तर लगाए जाते। सफेद चद्दर जब बिछती तो उस छटा का कहना ही क्या? धीरे-धीरे घर के लोगों का जमावड़ा होने लगता। कोई ताश खेलता तो कोई गीत गाता। युवा-पीढ़ी अंताक्षरी खेलती। आस-पड़ोस से भी बतिया लिया जाता। बिस्तर पर लेटने के बाद चाँद और तारे दिखते। ध्रुव तारा कहाँ है, सभी की खोज रहती। सप्तॠषि मंडल कौन सा है, बच्चे ये जानने को उत्सुक रहते। कहानियों का दौर भी चलता। तभी बड़े-बूढ़े चिल्ला उठते, चलो अब सो जाओ। नहीं तो सुबह सूरज सर तक चढ़ जाएगा तब तक बिस्तर तोड़ते रहोंगे। उनकी एक ही आवाज से सब अपने बिस्तरों में दुबक जाते। लेकिन खुसर-पुसर बनी रहती, कहीं से दबी-दबी हँसी भी फूटती रहती। कोई-कोई दबे पैर भी आता छत पर, क्योंकि देर से जो आया है। लेकिन ठण्डी हवा और रात की चाँदनी सभी को अपने आगोश में ले ही लेती।
भोर होते ही, चिड़िया चहकने लगती, पलके स्वत: ही एक-दजे से अलग हो जाती। तरो-ताजगी सी शरीर में भरी होती। जो देर तक खुसर-पुसर कर रहे थे बस वे ही सूरज की किरणों से बचने की ठोर ढूंढते रहते। बिस्तर सिमट जाते और छत चिड़ियाओं से गुलजार हो जाती। नहाने के बाद अब कपड़े सुखाने के लिए लोग आने लगते। कपड़े सुखाने के बहाने से दूसरी छत पर ताका-झांकी भी कर लेते। लेकिन ज्यादा अवसर नहीं मिलता। महिलाएं कभी मंगोड़ी तो कभी पापड़ और कभी दालें और मसाले सुखाने चली आती। छत को एक दिन भी राहत नहीं मिलती। सुबह-शाम बस चहल-पहल लगी ही रहती। छत भी पूरे घर का भार उठाए फूले नहीं समाती थी, रोज ही सजती और रोज ही संवरती। डोलियां रंगों से रंगी रहती और आंगन में भी मांडने मंड जाते। नयी दुल्हन छत पर आकर ही थोड़ी देर सुस्ता लेती। कतूबरों के साथ गुटर-गूं कर लेती। बच्चे भी धमा-चौकड़ी मचा लेते। लगता था कि छत की गोद हमेशा हरी-भरी है। दिन में बड़े-बूढें बैठक में चले जाते और तब केवल महिलाओं का ही राज रहता। कभी पैरों की पायजेब की छन-छन होती तो कभी मेंहदी लगे हाथों की सुगंध बिखर जाती। कभी मंगल गीत गाए जाते तो कभी मौज में आकर गालियां भी गा ली जाती।
लेकिन अब कहाँ गयी ऐसी छत? मकान खरीदने जाते तो जिस घर में छत ना हो, वह मकान पसन्द ही नहीं आता था। लेकिन अब तो मकान पर छत ही नहीं है। फ्लेट का जमाना आ गया है। बड़े-बूढ़े कहने लगे कि अरे! कैसा मकान है, इसमे छत तो है ही नहीं? जिन घरों में छत है भी तो वे खामोश हो गयी। ना दिन में पापड़-मंगोड़ी हैं और ना ही रात को सफेद चादरों पर लेटने वाले। अब बच्चों को खेलने की भी जगह नहीं रही यह छत, अब तो कपड़े भी यहाँ कभी-कभी ही सूखते हैं। दस-पंद्रह दिन में एक बार बुहार दी जाती है। रंग रोगन हुए तो कई साल निकल जाते हैं। डोलियां पपडायी सी, बदरंग मूक सी खड़ी रहती हैं। चिड़िया-कबूतर भी यहाँ पैर नहीं रखते। बस सूरज में तपती है और रात को ठण्ड में सिकुड़ती रहती है। अब भोर के साथ चहचहाट नहीं होती ना ही शाम के समय शोरगुल होता है। बस चारों तरफ खामोशी रहती है।
जो छत घर की छत्रछाया थी, रौनक की जगह थी अब सुनसान है। मौन है, उदास है। किसी घर में होने के बाद भी उपेक्षित है और किसी घर में तो इसकी आवश्यकता भी नहीं। कभी-कभी घर के बड़े-बूढे इस ओर निकल आते हैं, वे अपने खुरदरे हाथों से इसकी डोलियों को सहला देते हैं। कहते हैं कि तेरी और मेरी गति एक जैसी हो गयी है। घर में अब ना तेरी जरूरत है और ना मेरी। तू भी उपेक्षित पड़ी है और हम भी। महानगरों में तो अब ना तेरी जरूरत है और ना हमारी। शहरों में भी घटती जा रही हैं तेरी जरुरते। तू भी पड़ी है, बदरंग, उखड़ी सी और हम भी पड़े हैं बदरंग और उखड़े से। तेरे यहाँ भी मौन पसरा है और हमारे जीवन में भी। तेरे पास भी अब बच्चे नहीं है और हमारे पास भी नहीं। बस एकान्त लिए दिन में तपना है और रात को सर्द होना है। चाँद-तारों का सहारा है। बस निहारते रहते हैं उन्हें ही, क्या वास्तव में उस पर कोई नवीन जीवन है? क्या इसी आकाश में खो जाना है या फिर लौटकर वापस आना है? न जाने कितने प्रश्न, कितनो को बेचैन करते हैं? एकान्त होने पर ही प्रश्न निकल आते हैं और समाधान नदारत हो जाते हैं। हमारी छत्रछाया में कोई परिवार बड़ा होगा, यह दिवास्वप्न सा लगने लगता है। क्या पता विदेशों की तरह भारत में भी कोई न जाने की छत क्या होती है? छत्रछाया क्या होती है? फिर कहीं यह गीत नहीं बज सकेगा – छत पर आजा गौरीए।
bahut khubsurat yadon ko sanjoye post ke liye aabhar . aapane dada ,dadi sang bachapan ki yaad dila di.
बहुत कुछ हम भूलते बिसराते जा रहे हैं।
आह , कितना कुछ छूट रहा है हमसे ….
पहले सर पर छत — फिर छत पर हम । क्या ज़माना था !
अब न छत है, न छत पर बच्चे हैं। बहुत मार्मिक दृश्य प्रस्तुत किया है।
आधुनिकता के आगे घुटने टेक दिए हैं।
कहाँ -कहाँ की यादें जगा देती हैं आप अजित जी,शरद्-पूनम पर पकती खीर और असली कविताओं की अंताक्षरी भी तो काल के भँवर में समा गई !. .
कम से कम इस मामले में तो अब तक अमीर हैं हम। अभी भी कम्प्यूटर तभी उपलब्ध हुआ है जब बच्चे छत पर उछलकूद करने भेजे गये हैं, थोड़ी ही देर में धूप निकलने पर उनके दादा-दादी भी छत पर पहुँचेंगे और हमें मिलाकर तीन पीढ़ियाँ एक दूसरे से कुछ सीखेंगे, कुछ जानेंगे।
मुझे याद है। आनंद की यादें में मैने लिखा भी है….
गर्मियों में, शाम का ढलना भी एक अलग रंग लेकर आता था । शाम ढलते ही क्या युवा, क्या बच्चे, सभी अपने-अपने छतों पर दिखाई पड़ते थे। नीचे से पानी ढो-ढो कर लाना, छतों को अच्छे से तर कर देना और अपने-अपने बिस्तर, निर्धारित स्थान पर लगा देना सबकी शाम-चर्या में शुमार था। अक्सर भाइयों के बीच अपने निर्धारित हवा वाले स्थान पर सोने के लिए झगड़े हो जाया करते जिनका निपटारा, बड़े या दबंग भाइयों द्वारा ही किया जाता। गलियों में घर आपस में इतने सटे होते कि एक घर से दूसरे घर की छत पर जाना बिलकुल आसान होता। परिणाम यह होता कि जब तक पिता जी या घर का कोई बुजुर्ग डांटते हुए नहीं आ जाता, बच्चे देर शाम तक, छतों में भी धमाल मचा रहे होते। पल-पल में नज़ारे बदलते रहते । कहीं बच्चों की चौकड़ी अपने शबाब पर होती तो कहीं कोई युवा, दूर किसी घर की छत पर खड़ी षोढ़सी को लाइन मार रहा होता। टुकुर-टुकुर निगाहों से एक टक यूँ ताकता मानों कोई चकोर चाँद को ताक रहा हो। कहीं ट्रांजिस्टर में मुकेश के गानों की धुन तो कहीं टेबुल लैम्प की रोशनी में पढ़ने की आड़ में माता-पिता की आँखों में धूल झोंकता, जासूसी उपन्यास में मशगूल युवा। माउथआर्गन, बांसुरी, बैंजो या गिटार की धुन में अपनी काबलियत दिखाते युवा भी दिख जाते। कहने का तात्पर्य यह कि शाम के समय, संकरी गलियों की छतों पर, सभी योग्यताएँ, चंद्रकलाओं की तरह समयानुकूल घटती-बढ़ती रहती थीं। भोजनोपरांत माता-पिता का छत पर आगमन, अनुशासन की एक अलग ही मिसाल पेश करता था। सभी दुष्ट अचानक से इतने शरीफ़ हो जाते थे कि नील गगन के तारे भी हंसकर टिमटिमाने लगते । सप्तर्षी तारे, ध्रुव तारे, हितोपदेश की कहानियाँ, विज्ञान के चमत्कार या पढ़ाई की चर्चा शुरू होते-होते बच्चे गहरी नींद में सो चुके होते थे।
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देवेन्द्र जी बहुत ही अच्छा लिखा है आपने। पढकर आनन्द आया।
हमें अभी भी सबसे भेंट करनी होती है तो सायं छत पर पहुँच जाता हूँ। गृह में अभी भी छतों का महत्व है।
छत की छत्रछाया कितनी विशाल थी …
सच है की किताबी बातें ही रह जाएंगी अब ….
गाँव के खुलेपन का विस्तार थीं तब छतें, पर धीरे धीरे फ़्लैटबाज़ी आैर कोठीपने ने जगह ले ली
छत पर पतंग उड़ाना और वो काटा वो मारा के शोर को कैसै भूल सकते है ।कहते है घर पर छत और बच्चों के सिर पर बड़ों का साया बना रहै ,अब दोनो कि मौजूदगी पर ही question mark लग गया है ।
सार्थक अभिव्यक्ति
behad bhawbhini yaden hain……sambhalkar rakhiyega…..
आपने जो लिखा है वो हर उस आदमी की टीस है. सत्तर अस्सी के दशक तक नान मेट्रो शहरों का माहौल भी कमोबेश गांवों जैसा ही था. आज तो बस ये सब यादें बनकर जेहन में ही रह गया है.
आज इन बातों को बेच्चों को बताओ तो वो भी ऐसे ही आश्चर्य करते हैं जैसे उनसे कहें कि हमको हमारी दादी एक पैसा देती थी जिसमें हम गुड और मूंगफ़ली दोनो खा लेते थे. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
आहा ..आनंदम आनंदम .
जिन घरों में छत है भी तो वे खामोश हो गयी।
…..बिल्कुल सच..आज छत भी ढूँढ़ती हैं वह रौनक…पुरानी यादें फिर ताज़ी हो गयीं…बहुत सुन्दर
छत के जिक्र से मुझे बार बार फर्स्ट जनवरी की पिकनिक याद आ जाती है, जब सारे बच्चे मिलकर छत पर खिचड़ी बनाया करते थे।
छत हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हुआ करता था . एक शाम छत पर नहीं गुजारी तो जैसे वह दिन पूरा नहीं हुआ।
छतों के साथ-साथ घरों से आंगन भी गायब हुये हैं। उनकी जगह बाहर दुकानें खुल गयीं हैं।
अपने बचपन का एक एक दृश्य याद आ गया,मन का बच्चा अभी भी जिन्दा है ये अहसास हुआ आज ….आभार
bchpn ko jga diya
shbdon kee thpkee ne
ekakeepn suka diya
हमने छट का तो इतना लुत्फ नहीं उठाया , लेकिन आँगन का खूब उठाया है …. पर अब आँगन कहाँ ? टंग गए हैं फ्लैट पर ….. अब न आलू के पापड़ बनते हैं न चिप्स …. न मंगौड़ी न बड़ियाँ ….न चावल की कचरी.. कितना कुछ खो दिया है इस महानगर में…. आपकी इस पोस्ट ने बहुत सी भूली बिसरी बातें याद करा दीं।
nice!
बहुत कुछ हम भूलते बिसराते जा रहे हैं।
Ajitji,apne purani yade taja kardi, sahi hai aaj ki genaration kya janegi ye sab .apko sankarat ki bahut bahut shubh kamana.