अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

इस बार सेकुलरवाद की चादर है

Written By: AjitGupta - Jul• 11•17

हम सबके पास एक-एक भ्रम हैं, उस भ्रम की चादर ओढ़कर हम चैन की नींद सोते हैं। जैसे ही भ्रम की चादर हम ओढ़ते हैं, हमारा सम्बन्ध शेष दुनिया से कट जाता है, तब ना हमारे लिये देश रहता है, ना समाज रहता है और ना ही परिस्थिति। याद कीजिए जब सिकन्दर आया था, तब हमारे पास कौन सी चादर थी? ज्ञान की चादर ओढ़कर हम बैठे थे, देश लुट रहा था, कत्लेआम हो रहा था लेकिन हम ज्ञान की चादर की छांव में आराम से बैठे थे। लूट लो जितना लूटना हो इस देश को, हमारा ज्ञान तो नहीं लूट पाओंगे। कभी गजनी आया और कभी बाबर आया, हमने फिर नये भ्रम की चादर ओढ़ ली। हम मोक्ष पाने के मार्ग पर आरूढ़ थे और गजनी और बाबर हमारी आस्था के स्थानों को विध्वंश कर रहे थे। हमने चादर नहीं उतारी। औरंगजेब ने एक-एक मन्दिर की एक-एक मूर्ति को खण्डित कर दिया लेकिन हमारी चादर नहीं उतरी। अंग्रेज आये, उन्होंने चादर ही खींच डाली, सारे मुखौटे भरभराकर गिर गये। उन्होंने कहा कि इस देश को चादर ओढ़कर रहने का बड़ा शौक है, ऐसा करते हैं कि इनकी चादर ही बदल देते हैं, उन्होंने अपनी चादर ओढ़ा दी, हम फिर भी खुश थे। अब नयी चादर ओढ़कर खुश थे, ज्ञान की नयी चादर पाकर हम बेहद खुश हो गये, हमें अपनी ही पुरानी चादर बेकार लगने लगी। खण्डित मूर्तियों के स्थान पर उन्होंने ईसा की मूर्ति पकड़ा दी, हम और खुश हो गये। हमारा इतिहास बदल दिया, हमारी खुशी जारी रही।
लेकिन कुछ लोग थे, ये कुछ लोग इतिहास में हमेशा रहते हैं, कभी ये सफल हो जाते हैं और कभी असफल। सफल तब हो पाते हैं, जब चादर ओढ़े लोगों की चादर उतारने में सफल होते हैं, जब ये लोगों की चादर नहीं उतार पाते तो ये कुछ लोग असफल हो जाते हैं। इन लोगों ने सिकन्दर के जमाने में भी प्रयास किये थे, देश को बचा तो लिया था लेकिन अधिक देर तक चादर को समेट कर नहीं रख पाए। हमने तब मोक्ष की चादर तगड़ी ओढ़ ली थी, हमें इस देश से क्या, हम तो मोक्ष के अधिकारी बनेंगे, बस चादर ओढ़कर बैठ गये। अंग्रेजों के अत्याचारों ने इनकी चादर में छेद कर दिये और ये उन कुछ लोगों का साथ देने लगे। एक दिन हम नये देश के साथ जीने के लिये आजाद हो गये थे। जैसे ही आजाद हुए, हमें चादर की फिर याद आ गयी। अब तो हमारे पास दो चादर थी, एक अंग्रेजियत की और दूसरी अपनी वही पुरानी वाली। चादर के कई स्वरूप हो गये, किसी के पास धर्म की चादर, किसी के पास साहित्य की चादर, किसी के पास पत्रकारिता की चादर, किसी के पास समाज सेवा की चादर। बस चादरे ही चादरे दिखायी देने लगी, देश इन चादरों की भीड़ में कहीं छिप गया। सभी कहते थे कि हमारी चादर से बड़ा देश नहीं हो सकता। ये कुछ लोग सावचेत करने में लगे हैं कि खतरा मंडरा रहा है, देखो और समझो, लेकिन कोई नहीं सुन रहा। सभी इसी भ्रम में हैं कि भला हमें क्या खतरा है? खतरा होने पर जरूरी हुआ तो चादर बदल लेंगे लेकिन अपना भ्रम नहीं तोड़ेंगे।
कल मोसुल शहर इराक के सैनिकों ने आतंकियों से वापस जीत लिया, लेकिन किसे जीत लिया! खण्डित शहर को! आबादी को पहले ही मौत के घाट उतार दिया गया था। मोसुल शहर के वासी तो अपने धर्म की चादर ओढ़े ही बैठे थे फिर क्यों समाप्त हो गये वे सब? कश्मीर में अब मौसुल जैसा ही खेल खेला जा रहा है, कश्मीरियों के हाथों में पत्थर पकड़ा दिये गये हैं, कुछ हथियार भी दे दिये हैं, चलाओ और मरो या मारो। किसी दिन कश्मीर भी कब्रिस्तान बन जाएगा तब कश्मीर वालों की चादर उतरेगी या अन्तिम चादर चढ़ जाएगी? बंगाल में भी नरसंहार की तैयारी कर ली गयी है, यहाँ का तो पुराना इतिहास है, लेकिन इतिहास कौन पढ़ता है? मनोरंजन के इतने साधन हैं, उन से तो फुर्सत मिलती नहीं, आप इतिहास पढ़ने की बात करते हैं? अब हमने बड़ी मुश्किल से तो मनोरंजन की चादर ओढ़ी है, ओढ़े रहने दीजिये। इतिहास के वे कुछ लोग समझा रहे हैं कि अपनी चादर उतार फेंको लेकिन इस बार कुछ ऐसे लोग भी हैं जो कह रहे हैं कि नहीं चादर मत उतारना, भ्रम की यह चादर बनी रहनी चाहिये। कट जाना लेकिन भ्रम बनाये रखना कि हम सेकुलर हैं। न जाने कितने मौसुल, कितने कश्मीर और कितने बंगाल बिल्ली की नजरों में हैं, लेकिन हम चादर ओढ़े खरगोश हैं। इस बार सेकुलरवाद की चादर है।

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