उस मरी सफेद चादर को ओढ़ने का इतना चाव लग गया है कि रात गुजर जाने पर भी उसे लपेटे पड़े रहने में ही आनन्द की अनुभूति होती है। पूरे डिब्बे में झांक आइए, सब तरफ चादर से लिपटी मानव देह मिल जाएंगी। सारी ही जीती-जागती, लेकिन बस चादर में गुम। अजीब नजारा होता है रेल के एसी कोच का। जब फिल्मों में सफेद चादर ओढ़े पंक्ति-बद्ध लोग लेटे होते हैं तो कैसी सिहरन सी दौड़ जाती है? अफसोस की आह के सिवाय कुछ मुँह से निकलता ही नहीं लेकिन यहाँ “वाह” निकलता है। सम्पन्नता की वाह। हम भी सम्पन्न हैं और ठाट से रेलवाई की सफेद चादर ओढ़कर लेटे हैं अपनी-अपनी बर्थ पर। रात तो सोने के लिए ही है और उसी बात का पैसा भी देते हैं जी, लेकिन दिन में भी सारे ही बंदे अपनी चादर में मिलते हैं। ना तो एसी कोच के द्वितीय श्रेणी में बातों का शोर सुनाई देगा और ना ही बच्चों की चिल्ल-पो। बस जिधर देखो उधर ही सफेद चादर है।
अभी पिछले शुक्रवार को ही रेल में बैठे थे, रात को दस बजे बाद की गाडी थी, रेल अभी चलने के लिए ठुमकी भी नहीं थी कि हम सभी ने अपनी प्रिय सफेद चादर को तान लिया था। चारों तरफ घूम-घामकर देख लिया कि जीते जी सफेद चादर में लिपटना कैसा लगता है! ट्रेन झटके के साथ रवाना हुई लेकिन झटका लेटे-लेटे ही अनुभव कर लिया गया। सरकार चाहे कितने ही झटके दे दे, भाई हम तो लेटे हैं और अब इनकी परवाह भी नहीं करते। दूसरे डिब्बों में टी सी की बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा होती है, दो-चार लोगों को टिकट की कन्फर्मेशन की चिन्ता रहती ही है, लेकिन यहाँ 12 रूपए थाली के ऊपर के लोग हैं, सब कन्फर्म हैं। टीसी के आने के पूर्व ही सबने लम्बी तान ली है। अब बेचारा टीसी आता है, लाइट ऑन करता है और धीरे से बोलता है कि प्लीज टिकट दिखाइए। वह भी जानता है कि यह भद्र लोक है, यहाँ क्या तो आई डी मांगना और क्या टिकट देखना। टिकट के नाम पर सारे ही लोग अपना मोबाइल आगे कर देते हैं, टीसी भी जल्दबाजी में रहता है, रात के 11 जो बज रहे हैं। आनन-फानन में टिकट चेक हो जाती है और फिर सभी सफेद चादरों के आगोश में समा जाते हैं। ट्रेन भी अपनी रफ्तार पकड़ लेती है, ऐसे लगता है कि सरकार अपनी धुन में चल रही है और हम जनता जीवित होकर भी मरे होने का स्वांग भरकर सफेद चादरों में लिपटे सफर पर निकल पड़े हैं।
रात गुजरी और सुबह हुई, लेकिन इन चादरों में हरकत नहीं हुई। कभी तो लगता है कि यदि किसी की हरकत वास्तव में ही बन्द हो जाए तो पता ही नहीं चले कि बन्दा कब खिसक लिया था, इस जीवन के सफर से। हमारी आदत खराब, चैन ही नहीं है दिमाग को। सोचकर सोए थे कि सुबह कम से कम आठ बजे तक अवश्य ही सोएंगे। लेकिन यह क्या अभी तो केवल छ: ही बजे हैं और शरीर हरकत में आने लगा है। अब यहाँ रेल में भला ना तो समाचार-पत्र है और ना ही टीवी, तो पता नहीं क्या जल्दबाजी है इस दिमाग को? कुछ दिमाग होते ही है जगे हुए, ना स्वयं सोते हैं और ना ही दूसरों को सोने देते हैं। दुनिया जहान की चिन्ता इन्हें ही सताती है। ये ऐसे ही दिमाग हैं जो समुद्र पर टहलते जोड़ो की तस्वीर कैद कर लेते हैं और सोने वाली दुनिया को जगाने का प्रयास करते हैं। छोड़िए दुनिया की बातों को, बस हमारी आँख टप से छ; बजे खुल गयी। जब आँख खुल जाए तो टायलेट पर जाने का मन हो ही जाता है। सारे ही लोग आँख खुलते ही टायलेट तो ऐसे जाते हैं जैसे कुछ देना ही इनका प्रथम कर्तव्य हो। शायद सुबह-सुबह कुछ थोड़ा बहुत प्रकृति को देकर, फिर सारा दिन लेने की होड़ जो लगी रहती है। इसलिए छोटा काम पहले करो भाई।
हम भी टायलेट आदि से निवृत्त हो आए, थोड़ा समय भी आगे खिसका लेकिन कहीं से भी कोई सुगबुगाहट नहीं हुई। हाँ इतना जरूर हुआ कि चाय वाला आया और चिल्लाकर चला गया – चाय चाय। उसकी पुकार को भी किसी ने सिरियसली नहीं लिया। खैर हम भी इधर-उधर ताका-झांकी करके वापस सफेद चादर की शरण में चले गए। झपकी लेने की कोशिश करने लगे लेकिन यह झपकी भी अपनी मर्जी की होती है, घर में जब चाहो तब आ जाती है लेकिन अब माहौल भी है तो भी नहीं आ रही है। आखिर दस बज गए और अब नाश्ते वालों का शोर सुनाई देने लगा। एसी कोच में कोई नाश्ता नहीं बोलता, सभी ब्रेकफास्ट बोलते हैं। लेकिन यात्रीगण अपना फास्ट तोड़ना ही नहीं चाहते थे, उन्हें तो अपनी नींद की ही भरपाई करनी थी। एक तरफ खुशी भी थी कि हमारा देश मेहनत करके सोया है। हम नाहक ही कहते हैं कि लोग कामचोर है, देखो यहाँ कैसे थके-मांदे लोग सोये हैं! न जाने कितने दिनों से ऑफिस में कमर तोड़ मेहनत कर रहे थे, आज जाकर जी-भरकर सोने का अवसर मिला है। इन्हें सोता देखकर लग रहा था कि अब भारत के दुर्दिन समाप्त है, सभी मेहनतकश इंसान बन गए हैं। हमें एक बजे ग्वालियर उतर जाना था, हमने सभी साथियों को सफेद चादर में लिपटे हुए ही छोड़ दिया और ग्वालियर उतर गए।
वापसी का नजारा तो और भी सफेदी की झनकार वाला था। ग्वालियर में गाडी दिन के चार बजे चली। गाडी में बैठते ही लोगों की फुर्ती देखकर बड़ा अचम्भा सा हुआ। आधा घण्टे में तो पूरा ही कोच लम्बलेट हो चुका था। हम हमारे मोबाइल से फेसबुक में ताक-झांक करने लगे और रास्ते का आनन्द लेने लगे। ट्रेन के बाहर हरियाली पसरी थी और ट्रेन के अन्दर सफेदी। क्या बड़ा-बूढ़ा और क्या जवान, सभी सफेद चादर में लिपटे नींद की आगोश में थे। अब वो गरमा-गरम राजनैतिक बहसे बन्द हो चली थी, शायद सभी मौनी बाबा बनने के जुगत में आ गए थे। मौनी बाबा भी खुश थे, ऐसे कोचों की संख्या बढ़ा दी जाए, फरमान जारी हो गया। जहाँ लोग केवल सो रहे हैं, ऐसी प्रजा कितनी अच्छी लगती है। हमें भी लगा कि अब उस गाने का दौर खत्म हो चला है जब गाया करते थे – ठण्डी सफेद चादरों पे जागे देर तक। अब तो ठण्डी सफेद चादरों पर सोयें देर तक, का दौर शुरू हो चला है। कहीं से भी जागते रहो कि आवाज नहीं आ रही, बस आ रहा है तो इन सफेद चादरों का आमंत्रण। रात को आठ बजे हमने भी अपनी चादर निकल ली और तानकर सो गए। जब सरकार ही सो रही हो तो भला विपक्ष भी कब तक जागेगा। जीते जी सफेद चादर का आनन्द लेने के लिए। रेल अपनी रफ्तार से चल रही थी और हम अपनी रफ्तार को सुप्त करने में लगे थे। रेल आज दुनिया सी लग रही थी और हम भारतीयता का अहसास कर रहे थे, किराये की चादर ओढ़कर। कुछ देर गुनगुनाते रहे – ठण्डी सफेद चादरों पर सोये देर तक और फिर सुबह तक के लिए वास्तव में सो गए।
रेलयात्रा की एसी श्रेणी का वास्तविक दृष्य चित्रण किया है आपने.
रामराम.
सही है ..
वास्तविक दृष्य चित्रण
बहुत बढिया । इस नजरिये से तो कभी हमने सोचा भी नहीं। ये सफेद चादर
वाह री सफ़ेद चादर:) पर मेरे अनुभव जरा अलग हैं :).. मैंने अपने पिछले भारत प्रवास में ज्यादातर लोगों को सीट पर बैठते ही लैपटॉप खोलकर कोई फिल्म देखते हुए पाया. जो आधी रात तक तो चला ही. और सुबह उठकर फिर वही लैपटॉप.
शिखा जी आप सही कह रही हैं, इस दृश्य का मेरा भी पहला ही अनुभव था, इसलिए ही लिखने को मन कर गया। इसका कारण भी है शायद, इस ट्रेन के यात्री टुकड़ों में सफर करते हैं इसलिए सभी आते ही सो जाते हैं। लम्बी दूरी वाले यात्री इक्का-दुक्का ही रहते हैं। अन्यथा सभी रेलों में युवावर्ग लेपटॉप से जूझते हुए ही दिखायी देते हैं।
bahut hi shaandar prastuti
यात्रा वर्णन के साथ काफी मीठी छुरी भी चला दी है …बढ़िया व्यंग्य …. और गजब का संस्मरण
जब फिल्मों में सफेद चादर ओढ़े पंक्ति-बद्ध लोग लेटे होते हैं तो कैसी सिहरन सी दौड़ जाती है?
सही बात है. पता नहीं कोई क्यों नही सोचता कि चादरें रंगीन भी तो हो सकती हैं कुछ साल पहले तक लोगों को पता ही नहीं था कि कंप्यूटर और फ़्रिज सफ़ेद के अलावा दूसरे रंगों में भी बनाए जा सकते हैं. पिछले साल तक कारों में लगाने वाले sun-shade केवल काले होते थे अब नीले लाल भी आ रहे हैं आने वाले समय में डिज़ाइन वाले भी आएंगे … दिक़्कत ये है कि लोग बहुत धीरे धीरे सीखते हैं
अपना तो सिद्धान्त ही रहा है-
आराम बड़ी चीज़ है मुँह ढक के सोइये ,किस-किस को याद कीजिये किस-किस को रोइए !
और सफ़ेद चादर वाह !!
चकाचक यात्रा वर्णन है। हम अक्सर ही कानपुर से जबलपुर और वापस आते जाते हैं। ये किस्से देखते हैं।
इन बारह रुपये से ऊपर वालों में कई ऐसे भी होते हैं जो चादर के साथ की तौलिया अपने साथ ले जाते हैं। भुगतना बारह रुपये से नीचे वाले को पड़ता है। शायद इसीलिये बहुत दिन से तौलिया दिखी नहीं।
ट्रेन में सोना बहुत अच्छा लगता है..सफेद चादरों में..
सजीव चित्रण … वैसे सफ़ेद चादर ठीक है कम से कम साफ हैं या नहीं … आसानी से पता चल जाता है …
ये लोग अक्सर सफ़र करने वाले लोग होंगे।
वर्ना हमें तो कभी ट्रेन में नींद ही नहीं आती.
जब फिल्मों में सफेद चादर ओढ़े पंक्ति-बद्ध लोग लेटे होते हैं तो कैसी सिहरन सी दौड़ जाती है? अफसोस की आह के सिवाय कुछ मुँह से निकलता ही नहीं लेकिन यहाँ “वाह” निकलता है। सम्पन्नता की वाह। ..सर्वथा अनूठा और बढ़िया प्रयोग। अच्छा आलेख।
देवेन्द्र जी आभार।
बिना चहल पहल के कैसी यात्रा
नींद, लैपटॉप , मोबाइल आदि ने साथी यात्रियों की पहचान ही समाप्त कर दी , वर्ना यात्रा समाप्त होते पूरे खानदान का पता चल जाता था 🙂
वाणी गीत जी, सही कह रही हैं आप, आजकल तो बात करने के लिए जुबान ही सूख जाती है।