सम्मान भी क्या चीज है, अच्छे-अच्छे समझदारों को पगला बना देती है। एक कलाकार कोणार्क का सूर्य मन्दिर गढ़ता ही रहा, क्यों? अपनी अनुपम कलाकृति के लिए सम्मान पाने के लिए! न जाने कितने कलाकार इस धरती पर कभी अजन्ता बनाते रहे तो कभी एलोरा, कभी पहाड़ की ऊंची चोटी पर जाकर एक ही पत्थर से तराशते रहे भगवान बाहुबली को तो कभी पर्वत शिखरों पर जाकर केदारनाथ को स्थापित कर दिया। कभी ताजमहल बना दिया तो कभी सोमनाथ। भारत में कदम-कदम पर कलाकारों का कृतित्व प्रदर्शित है। कलाकार कभी चित्रकार बनकर धरती को अपनी कल्पना से रंगता रहा तो कभी साहित्यकार बनकर सुन्दर शब्दों की माला पिरोकर हमारे मन को संस्कारित करता रहा। कभी नृत्य के द्वारा जीवन को स्पंदित किया तो कभी गायन के द्वारा मीठी स्वर-लहरियों को जन्म दिया। न जाने कला के कितने आयाम हैं, हम प्रतिदिन इन कलाकारों की कलाकृतियों से अपने जीवन को निखारते हैं। यदि आज ये कलाकार नहीं होते तो हमारा जीवन कैसा होता? हम प्रकृति के समक्ष खड़े होते, निहत्थे बनकर। लेकिन मनुष्य ने प्रकृति को संवार दिया, उसे सुसंस्कारित कर दिया। आज सृष्टि का जो स्वरूप हमें दिखायी देता है, वह स्वरूप इन कलाकरों के कारण ही है। इनके लिए जितने भी शब्द लिखे जाएं, वे कम हैं। इन कलाकारों को क्या मिला? ये अपनी धुन में कला का सृजन करते रहे और अपने तन की सुध-बुध बिसरा बैठे। लेकिन तब समाज ने इनके योगदान को चिन्हित किया और इनके भरण-पोषण की व्यवस्था की। उस काल के राजाओं ने इन्हें अपने दरबार में बुलाकर सम्मानित किया। एक दुशाला ओढ़कर, प्रशस्ति पत्र पाकर और साथ में जीने के लिए एक छोटी सी रकम लेकर वह कलाकार फूला नहीं समाया। उसे लगा कि आज मेरी कला को दाम मिल गए हैं। मैं कल तक रात-दिन अपनी कला में डूबा सृजन कर रहा था, आज समाज ने उसे पहचाना हैं और मुझे उच्च स्थान दिया है। कलाकार इस छोटे से सम्मान से ही खुश हो जाता है और फिर दुगुने जोश से अपनी कला को निखारने में लग जाता है। कभी राजाओं ने इन्हें अपने दरबार में सुशोभित किया तो कभी अपने दरबार का रत्न बनाया। राजाओं ने कलाकार को भेदभाव की दृष्टि से नहीं देखा। केवल उसकी कला की कद्र की। यही कारण है कि भारत में पग-पग पर कला बिखरी पड़ी है। शायद राज्य का सम्मान इन कलाकारों को प्राप्त नहीं होता तो ये कलाकार अपने सृजन में डूब नहीं पाते। जैसे व्यापारी को धन चाहिए, क्षत्रीय को सत्ता चाहिए वैसे ही कलाकार को सम्मान चाहिए। राजाओं का दौर समाप्त हुआ, भारत में लोकतंत्र की स्थापना हुई। लेकिन इस लोकतंत्र में एक विचार का वर्चस्व बन गया। स्वतंत्रता के बाद सारे ही कलाकारों को सम्मानित करने के लिए अकादमियों का गठन किया गया लेकिन वहाँ एक ही वर्ग और एक ही विचार का प्रभुत्व बन गया। सारे ही सम्मान और पुरस्कार सत्ता के करीबी लोगों के पास जाने लगे। ऐसे में एक अन्य वर्ग उपेक्षित हुआ। इस उपेक्षित वर्ग ने अपने लिए सम्मान गढ़ने शुरू किए। निजी संस्थाएं बनी और ऐसे उपेक्षित लोगों को इन संस्थाओं ने सम्मान और पुरस्कार देने प्रारम्भ कर दिए जिससे देश में सारे ही विचार फले और फूलें। जब भी समाज में केवल एक विचार स्थापित किया जाएगा तब यह विचार अच्छा होने पर भी वहाँ से तानाशाही की बू आने लगेगी और वह विचार दूषित होने लगेगा। अब कलाकारों में नवीन ऊर्जा का प्रस्फुटन हुआ, क्योंकि वे भी समाज द्वारा सम्मानित होने लगे थे। अकादमियों पर भी दवाब बना कि सारे ही विचारों के कलाकारों को सम्मान मिलना चाहिए। धीरे-धीरे एक ही राजनैतिक दल की सत्ता भी समाप्त हुई और विभिन्न दल सत्ता पर आसीन हुए। इसकारण अकादमियों पर भी एक ही विचार के व्यक्तियों की पकड़ ठीली पड़ी और सम्मान के लिए सभी विचारों को स्थान मिला। लेकिन इन दोहरे सम्मानों के कारण कलाकारों के मन में सम्मान के प्रति ललक भी बढ़ गयी। अब सम्मान के लिए ही कलाकार पैदा होने लगे। इन सम्मानों की पूर्ति के लिए छोटी-छोटी संस्थाएं बना दी गयीं और वे सम्मानों को चने-मूंगफली की तरह बांटने लगें। इस बंदर-बांट के कारण अकादमिक सम्मानों का मान भी घटा। क्योंकि समाज में सम्मान का अन्तर ही कम हो गया। अब सम्मान पैसे लेकर दिए जाने लगे और लोग भी पैसे देकर सम्मानित होने लगे। अब सम्मान देने का भी धंधा हो गया और यह धंधा स्थापित भी हो गया। प्रत्येक छोटे से छोटा कलाकार भी ऐसे सम्मान लेकर, अपनी फोटो समाचार-पत्रों में प्रकाशित कराने लगा और समाज में अपना स्थान उच्च करने लगा। इससे व्यक्ति का अहंकार तो पोषित हो गया लेकिन वास्तविक कला मर गयी। चारों तरफ ही ऐसे कलाकारों को जमावड़ा लगने लगा और ऐन-केन-प्रकारेण सम्मान लेने के लिए जुगत लगने लगी। अब चाहे वे सरकारी सम्मान हो, अकादमिक हो या फिर संस्थागत हों। सच्चा कलाकार दूर बैठकर तमाशा देखने लगा। उसके प्रोत्साहन कि ना तो समाज ने चिन्ता की और ना ही सरकार ने। प्रोत्साहन के अभाव में कई कलाकारों की कला कुन्द हो गयी। आज भारत में हजारों ही नहीं वरन लाखों कलाकार पैदा हो गए हैं लेकिन फिर भी कला कहीं दिखायी नहीं देती। चाहे वह शिल्प कला हो या चित्रकला या फिर साहित्य। जिन क्षेत्रों में कलाकार को आर्थिक लाभ मिलता है, वहां अवश्य कला अपने निखार पर है लेकिन जिन क्षेत्रों में कलाकार को आर्थिक लाभ नहीं है वहाँ कलाकार अपना दम तोड़ रहा है। इसलिए नित उग आए इन सम्मान प्रदाताओं से कलाकारों को बचाने की आवश्यकता है। यह समझने की भी आवश्यकता है कि सच्चे सम्मान कलाकार को प्रोत्साहित करते हैं लेकिन नकली सम्मान कला को ही समाप्त करते हैं।
कलाकार और सम्मान
Written By: AjitGupta
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Jul•
31•13
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विचारणीय ……
आपने अक्षरक्ष: मेरे मन की बात कह दी आज यही चल रहा है अपनी अकादमी बनाओ और खुद को स्वंय ही सम्मानित करो यहाँ तक कि देश मको छोड बाहर सम्मानित करने का भी ट्रेंड शुरु हो गया और ऐसा अब छोटे मोटे लोग भी करने लगे जो अभी उगे भर हैं मगर ऐसा करके वो सोचते हैं कि जैसे उनसे बढकर और कोई नहीं फिर चाहे वो भी ऐसे ही उपाय अपनाते हैं जहाँ प्रतिभा की जगह इंसान या उसके पैसे ही सम्मानित हो रहे हैं जो साहित्य के लिये खतरा हैऽअगे इन सम्मानों का कोई महत्त्व नहीं रहेगा अगर ऐसा ही चलता रहा तो क्योंकि देखने मे आ रहा है कि कुछ लोग पैसे के बल पर सब कुछ खरीदे जा रहे हैं और खुद को साहित्य का पुरोधा सिद्ध करने पर तुले हैं ।
वन्दना जी, आप सही कह रही हैं कि अब तो अन्तरराष्ट्रीय सम्मान भी प्रारम्भ हो गए हैं। मुझे तो लगता है कि ये सारे सम्मान एक दिन नोबेल पुरस्कार को भी छोटा कर देंगे।
आपकी सभी बातों से सहमत हूं..
पता आप सब को पता है या नहीं, लेकिन कुछ ऐसा ही ब्लाग पर हो रहा है। कुछ लोगों की वजह से ये गंदगी इतनी फैल चुकी है कि अब सम्मान शब्द से ही बदबू आने लगी है। लेकिन मैं उन्हें क्या कहूं जो आयोजक हैं, उनका तो धंधा है, पर ये धंधा चलता है मूर्ख ब्लागरों की वजह से।
मैं तो सवाल ब्लागर से ही करता हूं कि उसे अपनी हैसियत नहीं मालूम है कि वो अभी सम्मान के काबिल है या नहीं ? सम्मान के लिए जो नाम लिए जा रहे हैं उनके ब्लाग पर जाइये तो उनकी असली हैसियत सामने आ जाती है।
चलिए ये धंधा भी ज्यादा दिन नहीं चलने वाला….
सार्थक लेख, काश लोग समझ सकते..
सही है महेन्द्र जी, धंधेबाज तो अपना धंधा करेंगे ही लेकिन जाल में फंसने वालों को सोचना चाहिएं। एक बार नटवर लाल का साक्षात्कार धर्मयुग में प्रकाशित हुआ था, उसने लिखा था कि जब तक समाज में लालच है, नटवरलाल पैदा होते रहेंगे।
इससे व्यक्ति का अहंकार तो पोषित हो गया लेकिन वास्तविक कला मर गयी।
इसीलिए सम्मान भी अपना अर्थ खो चुके हैं …..
बड़े ही स्पष्ट बिन्दु उठाये हैं आपने, यदि कला सम्मान की भूखी होकर कार्य करेगी, वह अपनी प्रखरता कभी नहीं पा पायेगी।
बात तो सही है पर सच्चे को आज सम्मान मिलता कहां है? सब सम्मान भी जुगाड करने पडते हैं, ऐसे में ईमानदार और सच्चे कलाकार घर में ही बैठे रह जाते हैं, सटीक आलेख.
रामराम.
Sabse pehle to me apko Naman karta hun kyoki aj logo ko ye bat sochne ka time nahi hai. Samman ki bat kahi hai to apko me bata du ki me Famous Shenai Mestro Pt.Anant Lal ji ke bahut karib rahu hun aur ye unko jo uchit samman marte dum tak nahi mila jabki vo bhi Bismillha khan ke samkash the but Padam Shri milta hai navsikhiye Actors ko aur Shehani jese Durlabh strument ko Nakar diya jata hai apne acha likha but ishwar se prarthan hai ke agencies and plotician ko bhi kabhi samajh a jaye ok by Suresh Kandara NMH NOW at Srinagar ok by
सुरेश जी आपका मेरे ब्लाग पर स्वागत है। आप सही कह रहे हैं, न जाने कितने श्रेष्ठ कलाकार गुमनामी के अंधेरे में रहते हैं और नौसिखिए पद्मश्री पाते हैं।
हमने तो हमेशा ही कलाकारों की कला को नमन किया है.
यह अलग बात है कि इन्हें अक्सर प्रोत्साहन नहीं मिलता।
इसीलिए कहते हैं कि कमल कीचड में खिलते हैं.
दराल जी, हमारे यहां कीचड़ में खिलने वाले कमल को श्रेष्ठ स्थान मिला है लेकिन आज तो कागज के फूल राजमहलों की शोभा बढ़ा रहे हैं।
पुरस्कार बाँटनेवाले और चाहनेवाले का दाता और याचक रह जाये तो बेचारी कला क्या करे ?
आज कलाकार बनाने का धंधा जोरों पर है. लोग भी भेड़चाल में लगे हैं.
कोई उनको बताए कि अरे भई तकनीक सिखाई जा सकती है कला नहीं.
Ghar ki kheti hogaye hai ye samman
namaksar
ek gum sahi aur sachhi baat hai ajit mem ! bahut hai aise kalaakar jo hunar hote hue bhi gum hai apni kismat ke maare , sadhuwaad
saadar
निश्चित रुप से सम्मानों की बंदरबाट में सम्मान, पैसा तो येन-केन-प्रकारेण हर छोटे मोटे कलाकार या कहें साहित्यकार को भी मिलने लगा पर कला और साहित्य ध्वस्ताधूत हो गई। पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ। अच्छा रहा यहां आना।
आप जी ने इस सवेंदनशील विषय से बहुत बेबाकी से विचार पेश किये हैं, इस आप की बात के साथ एक और बात जो अक्सर देखने को मिलती है, बहुत अच्छी प्रतिभा रखने वाले लोग जब इन स्न्मानों के चक्कर पे पड़ जाते हैं, तो वो कला से भी दूर चले जाते हैं, कई ऐसे सन्मान मनुष्य को हंकारी भी बना देता है
व्यवहार/ सम्बन्ध निर्धारित करने लगे हैं सम्मानों की सूची !
ऐसे में सम्मान का महत्व घट गया है !
हर क्षेत्र में आज यही चल रहा है …..