अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

कविता के नाम पर फूहड़बाजी को कब तक बर्दास्‍त करें?

Written By: AjitGupta - Mar• 09•12

चुनावों की हलचल और होली का हुल्‍लड़ दोनों ही अब सुस्‍ता रहे हैं। चुनावों को लेकर मीडिया ने खूब पिचकारी चलाई। कहीं पिचकारी से ज्‍यादा पानी छूट गया तो कहीं चली ही नहीं। सभी ने अपने-अपने तरीके से समीक्षा भी कर डाली। जिसका जैसा झुकाव वैसी ही समीक्षा। होली के रंगों से सरोबार होते हुए भी ब्‍लाग जगत की सड़के भी कुछ सूनी सी ही लगी। बस इक्‍का-दुक्‍का लोग ही ब्‍लाग जगत पर अपनी पिचकारी चलाते दिखायी दिए। लेकिन अब समय पेड़ों पर नए पत्तों के समान निकल आया है। राजनीति से परे समाज की ओर अब ध्‍यान जाएगा, सभी ब्‍लागर मित्रों का। प्रतिदिन की घटनाओं से मन न जाने कितनी बार उहापोह में जा उलझता है, लेकिन थोड़े से चिंतन के बाद, ऐसे ही होता है, सोचकर चुप सी लग जाती है। लेकिन कुछ मुद्दे ऐसे हैं जो शाश्‍वत जड़े जमा लेते हैं। वे इतनी उथल-पुथल मचाते हैं कि लिखने पर लेखक को मजबूर कर ही देते हैं। ऐसी ही एक व्‍यथा की ओर आपका ध्‍यान आकर्षित करती हूँ।

होली के त्‍योहार पर होली मिलन एक परम्‍परा बन गयी है। जहाँ पूर्व में घरों पर आने-जाने वालों का तांता लगा रहता था अब मक्‍खी-मच्‍छर भी भिनभिनाते नहीं हैं। रंग और गुलाल से सजी प्‍लेट किसी गाल के लिए तरस जाती है। बड़े जतन से बनायी मिठाई भी स्‍वयं को ही उदरस्‍थ करनी पड़ती है। लेकिन मेरी उहापोह यह नहीं है, मेरा मन उलझ गया है एक होली मिलन समारोह में। एक ऐसे ही होली मिलन समारोह में जाने का संयोग बना। सूचना में लिखा था कि हास्‍य कवि सम्‍मेलन भी है। हमें पता था कि हास्‍य और कवि सम्‍मेलन के नाम पर आज क्‍या परोसा जा रहा है, इसलिए खुशी तो अंश मात्र भी नहीं थी बस चिन्‍ता ही ज्‍यादा थी। पता नहीं कितना झेलना पड़ेगा? समारोह में जाने पर पता लगा कि शहर के ही दो बंदे बुला लिए गये हैं, एक जाना-पहचाना नाम था और एक नयी खरपतवार थी। खरपतवार को भी राष्‍ट्रीय स्‍तर की घास कहकर परिचित कराया गया। हमने सोचा कि हो सकता है कि अभी नया-नया बीज अंकुरित हुआ होगा, शायद कविता के प्रा‍रम्भिक संस्‍कार भी होंगे। लेकिन ताली बजाने के स्‍थान पर हम हाथ मलते ही रह गए। कविता के नाम पर केवल एक ही पंक्ति का बार-बार दोहराव था कि ताली नहीं बज रही है। ताली बजाओ। नहीं बजाओगे तो अगले जन्‍म में बजानी पड़ेगी। दो-चार घिसे-पिटे चुटकुले को कवि सम्‍मेलन का नाम दे दिया गया था जिसमें दो लाइन की भी कविता नहीं थी। उस जाने-पहचाने नाम को मेरी उपस्थिति का भान था, इसलिए काफी समय बाद उसने बोला कि हमारे मध्‍य वे उपस्थित हैं इसलिए कविता की भी बात करनी होगी। मैंने सोचा कि शायद अब दो-चार लाइन कविता की भी बांच दे लेकिन फिर भी नहीं।

खैर यह तो एक छोटा सा आयोजन था, लेकिन कुछ दिनों पूर्व एक विशाल आयोजन हुआ। मंच पर कवियों की बिसात बिछा दी गयी। हम भी मुख्‍य अतिथि के रूप में सामने ही स्‍थापित हो गए। सोचा कि शायद दो चार अच्‍छी कविता सुनने को मिलेगी लेकिन नहीं। बंदों ने कविता के नाम पर वही घिसे-पिटे चुटकले और फब्तियां कसना शुरू कर दिया। एक गया, दूसरा आया फिर तीसरा और चौथा, लेकिन कविता नहीं आयी। बस खाली बादल आते रहे, गड़गड़ाहट होती रही और चकोर एक बूंद के लिए तसरता रहा। आखिर थक हारकर हम आयोजक से क्षमा मांगते हुए उठकर घर आ गए और सोच लिया कि अब कभी ऐसे आयोजनों में नहीं जाएंगे।

आज कविता के लिए चिन्‍ता का विषय है। यदि आपको हँसी-ठिठोली ही करनी है तो उसे लाफ्‍टर मंच कह दीजिए। लेकिन कविता के नाम पर कविता को ही गायब कर देना, यह तो सरासर बेईमानी है। सुबह दूध वाले की घण्‍टी बजे और आप दूध लेने के बाद जब भगोनी में झांके तो वहाँ दूध के स्‍थान पर पानी मिले तो आप क्‍या करेंगे? दूध वाले का गला नहीं पकड़ेंगे? मेरा मन भी हो रहा था कि ऐसे कवियों को कॉलर पकड़कर मंच से खेंच लाऊँ और कहूं कि क्‍या देश के प्रबुद्ध वर्ग को बेवकूफ समझा है जो कविता के नाम पर फूहड़बाजी कर रहे हो। लेकिन पराये मंच पर आप ऐसा नहीं कर सकते। आपको अपने संस्‍कारों का ध्‍यान रखना पड़ता है। लेकिन यदि मेरे मंच पर ऐसा कोई करे तो मैं उसे निश्चित रूप से जमीन दिखा देती। हमारे एक मंच पर शालीन कार्यक्रम चल रहा था, तभी संयोजक ने घोषणा की कि अब एक नृत्‍य प्रस्‍तुति लेकर फलां फलां महिला आ रही हैं। लेकिन जैसे ही म्‍यूजिक बजा और उनके ठुमके लगे, मैं तो धक रह गयी। यह क्‍या हो रहा है, मुन्‍नी बदनाम हुई पर नाचा जा रहा है। मैंने तत्‍काल संयोजक को इशारा किया कि बन्‍द करो। दो क्षण में ही म्‍यूजिक बन्‍द हो गया। नृत्‍यांगना की हिम्‍मत नहीं हुई कि आकर मुझसे पूछे कि क्‍यों बन्‍द करा दिया। लेकिन सारे ही मंच तो अपने नहीं होते।

इसलिए आज आप सभी के सामने यह प्रश्‍न रखती हूँ कि कवि सम्‍मेलनों के नाम पर कविता के स्‍थान पर चुटकुले परोसने को कैसे समाप्‍त किया जाए। इसका विरोध कहाँ किया जाए? मुझे लगता है कि सभी साहित्‍यकारों को इसकी पहल करनी चाहिए। जहाँ भी अपनी जानकारी में कवि सम्‍मेलन हों, वहाँ आयोजकों को एक पत्र प्रेषित करें कि आपके यहाँ कवि सम्‍मेलन होने जा रहा है, हम शुभकामनाएं देते हैं लेकिन आप यह सुनिश्चित करावें कि कविता के नाम पर फूहड़ हास्‍य नहीं परोसा जाएगा। यदि फूहड़ हास्‍य है तो उसे कवि सम्‍मेलन का नाम ना दें। मुझे लगता है कि हम सबको आगे आना चाहिए, आपका क्‍या परामर्श है?

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50 Comments

  1. sonal says:

    कविता के नाम पर फूहड़ता का चलन कुछ “राष्ट्रीय स्तर” के कवियों ने शुरू किया है ,हास्य के नाम पर फूहड़ता ,अश्लीलता टी वी से लेकर मंच तक हर जगह पसरी हुई है … ऐसे में काका हाथरसी ,चक्रधर जी, शैल जी , हुल्लड़ मुरादाबादी जैसे कवियों की कमी बेहद खलती है तो निर्मल हास्य से ठहाके तक लगवाने का दम रखते थे और आप को झेप कर बगले नहीं झाकनी पड़ती ….

  2. dr t s daral says:

    अजित जी , आपसे पूर्णतया सहमत हूँ . बेशक आजकल हास्य के नाम पर फूहड़ और छिछोरापन परोसा जा रहा है . कुछ कवियों के लिए मंच रोजी रोटी का साधन बन गया है जिसके लिए वे कुछ भी कर सकते हैं . गिने चुने अश्लील फूहड़ चुटकलों को सब कवि सुनाते रहते हैं और कोई यह भी नहीं सोचता की सब एक जैसे क्यों सुना रहे हैं .
    कल ही डॉक्टर्स की एक संस्था ने हास्य कवि सम्मेलन का आयोजन किया हुआ था . हमें लगा हम भी हास्य कविता सुना सकते हैं . लेकिन जब वहां का माहौल देखा तो दंग रह गया . मल्लिका सहरावत , सन्नी लिओन , मुन्नी आदि पर जो नंगापन दिखाया गया , वहां मौजूद महिलाओं के लिए बैठना मुश्किल हो गया . शराब के नशे में डॉक्टर्स भी बेशर्मी से चटकारे लेकर हीं हीं करते जा रहे थे .
    आखिर हमें वहां से निकलना ही पड़ा .
    हास्य और उपहास में भी फर्क होता है . किसी का भद्दे तरीके से मज़ाक उड़ाकर कौन सा हास्य है .
    अफ़सोस ब्लॉगजगत में भी इसकी कमी नहीं .

  3. हाँ मोहतरमा हास्य कवि सम्मलेन का अर्थ अब द्विअर्थक संवाद अश्लील चुटकले लाफ्टर शो उर्फ़ काजू श्रीखास्तव ही रह गया है .ओमप्रकाश आदित्य ने इस की पीड़ा फिक्की सभागार में चल रहे एक कवि सम्मलेन में व्यक की थी जहां सुरेन्द्र शर्मा जी भी थे .बेशक देव राज दिनेश जी की वीर रस परम्परा को बढाने वाले कवि कौजूद हैं लेकिन हास्यकवि सम्मलेन के नाम पर तो अब क्या परोसा जा रहा है कहना मुश्किल है लेकिन भदेश भौंडी प्रस्तुति पर भी लोग हँसतें हैं हसोड़ शोज़ के आमंत्रित हसोड़ों की तरह .अच्छा मौजू मुद्दा उठाया है आपने .विस्फोट इन समारोहों में पहुंचकर ही किया जा सकता है .आखिर अवमूल्यन की भी हद है काका हाथरसी ,हुक्का आदि से होते होते अब हम तुक्का और तुक्कड़ों तक पहुँच गए हैं .

  4. बहुत उपयोगी आलेख लिखा है आपने!
    आजकल कवि सम्मेलनों में कविता के नाम पर भूहड़ हास्य वास्तव में चिन्ता का विषय है!

  5. Sanjay Mishra Habib says:

    आपका चिंतन जायज और जिम्मेदारीपूर्ण है… आप सच कहती हैं आज अधिकाँश आयोजनों में हास्य के नाम पर घिसे पिटे चुटकुले ही होते हैं जिनसे सकारात्मकता और रचनात्मकता का कोई सम्बन्ध नहीं होता….

  6. पसंद अपनी-अपनी.

    • AjitGupta says:

      राहुल सिंह जी, बात पसन्‍द और नापसन्‍द की नहीं है। बात कविता के सर्वनाश की है। कवि सम्‍मेलन के नाम पर चुटकुले क्‍यों। आप इसका नाम लाफ्‍
      टर शो रखिए या और कुछ। कवि सम्‍मेलन है तो कविता ही करिए।

  7. AjitGupta says:

    डॉ दराल जी
    दुर्भाग्‍य से मैं भी डॉक्‍टरों के कार्यक्रम में ही गयी थी। वहाँ और कोई फूहड़ता तो नहीं थी लेकिन कवि महोदयों के चुटकुलों से ही सब परेशान थे।

    • dr t s daral says:

      अजित जी , यहाँ तो डॉक्टर्स भी पूरे छिछोरे ही निकले .

  8. प्रवीण पाण्डेय says:

    कवि सम्मेलन में सब हँसाने लगे हैं, कविता वहाँ से निकल भागी है। आपका अवलोकन बड़े प्रश्न उठाता है कविता के भविष्य पर।

  9. कवि-सम्मेलनों का स्तर गिरता जा रहा है ,वैसे गलेबाज़ कवि पहले भी थे पर सुरुचि का ऐसा अभाव नहीं था . हास्य-कवि-सम्मेलनों में अधिकतर सस्तापन और छिछोरापन ही देखने को मिलता है ,या चुटकुलेबाज़ी . श्रोताओं की रुचि का परिष्कार करने के स्थान पर फूहड़पन और नाटकबाज़ी का प्रदर्शन होता है .

  10. डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल says:

    आपने बहुत सही जगह उंगली रखी है. कवि सम्मेलन के नाम पर जो होता है उसे एक अपराध ही कहा जाएगा. एक लम्बे अंतराल के बात पिछले दिनों मैं अपने इस गुलाबी शहर में एक विशाल कवि सम्मेलन में गया, और लौटा तो बहुत व्यथित था. वजहें वही, जिनका आपने ज़िक्र किया. कवि गण अपनी 30-40 बरस पुरानी रचनाओं से आगे नहीं बढ़ते, तालियों की भीख ऐसे मांगते हैं कि गली का भिखारी भी उनका शागिर्द बन जाए, और एक घण्टे की लफ्फाजी में ढाई मिनिट से ज़्यादा कविता नहीं आने देते.
    लेकिन घपला मुद्रित कविता में भी कम नहीं है. हद दर्ज़े की अराजकता वहां भी विद्यमान है. परस्पर प्रशंसा का कारोबार इतना ज़्यादा फैल गया है कि कुछ पूछिये मत.
    क्या यह कहने की हिमाकत करूं कि कविता के लिए ये बुरे दिन हैं?

    • AjitGupta says:

      दुर्गाप्रसाद जी, कविता के नाम पर कविता की हत्‍या हो रही है, इसे रोकने का प्रयास अवश्‍य करना चाहिए।

  11. sktyagi says:

    बात तो सही है! यह तो ‘आए थे हरी भजन को ओटन लगे कपास’ वाली बात हुई । कपास ओट सम्मेलन को सत्संग समझ कर बर्दाश्त करना वाकई मुश्किल है!!

  12. shikha varshney says:

    ठीक कह रही हैं आप ..हास्य काव्य के नाम पर फहडता का ही बोलबाला है ..टीवी पर ही देखिये क्या स्तर हो गया है.

  13. vandana gupta says:

    हास्य के नाम पर फ़ूहडता को हमे ही नकारना होगा खुद आगे आकर वर्ना ना जाने और कितनी गिरावट देखनी पडे वरिष्ठ साहित्यकार यदि अपनी जिम्मेदारी समझते तो ऐसा होता ही नहीं सभी जगह बुरा हाल है ………हर संवेदनशील इंसान को खुद पहल करनी चाहिये और ऐसे सम्मेलनो का विरोध यदि वहाँ ऐसा प्रदर्शन हो रहा हो तो अपने आप सब सुधर जायें।

  14. यही हाल मेरा हुआ जब कुछ सालों पहले मैं एक कवि सम्मेलन में गया था। आप जिस सम्मेलन में गईं उसमें तो “नयी खरपतवार” थी परन्तु मैं जिस कवि सम्मेलन से निराश हुआ उसमें तो दिग्गज कवि भी थे।
    मैने इस विषय पर एक पोस्ट भी लिखी थी।
    हास्य कवियों को लगा अनोखा रोग

  15. बहुत बढ़िया प्रस्तुति!
    घूम-घूमकर देखिए, अपना चर्चा मंच
    लिंक आपका है यहीं, कोई नहीं प्रपंच।।
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

  16. Rajni Nayyar says:

    अजित माँ’म नमस्कार ,
    आपके कथित समस्या से आज हम सभी गुजर रहे हैं, कहीं भी ऐसे समरोह में जाकर वापस आने पर यही प्रश्न मन में अब कविता पथ का मंच हो या पूजा का प्रांगन पंडाल सभी जगह वही हाल|पर बात है कविता की स्तर को बिल्कुल गिरा देना कविता के नाम पर फुह्द्बज़ … तो ये गलती सरासर संयोजक की है , जब वो कोई कार्यक्रम रखते हैं तो उन्हें मंच पर आनेवाले के स्तर को उसके गुणवत्ता को भी ध्यान रखना होगा की अमुक व्यक्ति क्या प्रस्तुत करने जा रहा, और उससे समाज को कितनी हानि या लाभ होगी…….वगैरह वगैरह …….मै अपने तरफ ही एक कवि सम्मेलन में काव्य पाठ करने गयी थी और वहीँ एक कवि महोदय जो हास्य के नाम पर लगे महिलायों पर गन्दी-गन्दी फब्तियां फिकरे कसने और महिला के स्तर को इतना नीचे गिरा दिया अपने वाक्यों में, जैसे उनकी माँ भी कोई महिला नहीं | वो किसी महिला कवित्री को कभी, किसी कामकाजी महिला को, किसी छात्रा को अपना निशाना बनाते रहे ……..इस तरह की घटिया हरकतें उन्हें ठीक उसी तरह चलते कार्यक्रम में उन्हें रोक कर करना चाहिए जैसा मैंने भी किया और आपने भी बताया………पर उनसे बदले में मुझे मेरी कविता जो भ्रूण हत्या पर समाज को तस्वीर दिखाती उम्दा रचना रही उसको उन्होंने सतही बताया और लगे बुरा सा मुंह बना कर मुझे देखने……..

  17. Rajni Nayyar says:

    अजित माँ’म नमस्कार ,
    आपके कथित समस्या से आज हम सभी गुजर रहे हैं, कहीं भी ऐसे समारोह में जाकर वापस आने पर यही प्रश्न मन में अब कविता पाठ का मंच हो या पूजा का प्रांगन पंडाल , सभी जगह वही हाल|पर बात है कविता की स्तर को बिल्कुल गिरा देना कविता के नाम पर फुहद्बाज़ी … तो ये गलती सरासर संयोजक की है , जब वो कोई कार्यक्रम रखते हैं तो उन्हें मंच पर आनेवाले के स्तर को उसके गुणवत्ता को भी ध्यान रखना होगा की अमुक व्यक्ति क्या प्रस्तुत करने जा रहा, और उससे समाज को कितनी हानि या लाभ होगी…….वगैरह वगैरह …….मै अपने तरफ ही एक कवि सम्मेलन में काव्य पाठ करने गयी थी , और वहीँ एक कवि महोदय जो हास्य के नाम पर लगे महिलायों पर गन्दी-गन्दी फब्तियां फिकरे कसने और महिला के स्तर को इतना नीचे गिरा दिया अपने वाक्यों में, जैसे उनकी माँ भी कोई महिला नहीं | वो किसी महिला कवित्री को कभी, किसी कामकाजी महिला को, किसी छात्रा को अपना निशाना बनाते रहे ……..इस तरह की घटिया हरकतों पर रोक , ठीक उसी तरह चलते कार्यक्रम में उन्हें रोक कर करना चाहिए जैसा मैंने भी किया और आपने भी बताया………पर उनसे बदले में मुझे मेरी कविता जो भ्रूण हत्या पर समाज को तस्वीर दिखाती उम्दा रचना रही उसको उन्होंने सतही बताया और लगे बुरा सा मुंह बना कर मुझे देखने……..

  18. जी हाँ बिलकुल सही हैं आपके विचार …… टीवी से लेकर ऐसे आम सम्मेलनों तक यही हाल है ..यक़ीनन यह सब जो हो रहा है सार्थक साहित्य के भविष्य पर तो प्रश्न चिन्ह लगता ही है …..

  19. शर्मनाक है …
    आवश्यक एवं चिंतनीय लेख के लिए आभार आपका !

  20. आपकी चिंता दुरुस्त है.
    आज कविता ही नहीं साहित्य मात्र को फूहड़ अपदस्थ कर रहा है.
    और भद्रजन ताली पीटने वाले बनकर रह गए हैं.

  21. दराल साहब-पतन हर संस्था का हो रहा है तो डाक्टर क्यों पीछे रहें. अजित गुप्ता जी- आपका कहना ठीक है लेकिन इसे दुरुस्त भी तो हम लोगों को ही करना है. ऐसी चीजों का विरोध करना ही पडेगा.

  22. कविता ही क्या , अनर्गल से साहित्य की कोई विधान बच नहीं पा रही है …वास्तव में साहित्य समाज का दर्पण है , जो समाज की स्थिति है , वही तो वहां भी नजर आ रही है !

  23. यह एक महत्वपूर्ण मुद्दा है जिसे आपने कई सरस संबोधनों के साथ प्रस्तुत किया है। जैसे पारम्परिक नाटकों में विदूषक अनिवार्य रूप से होता था,वैसे ही अब कवि सम्मेलनों में हास्य कवि के नाम पर एकाध मसखरा जरूर होता है। इनमें से कुछ लोग तुकबंदी,प्रस्तुति-कौशल और तात्कालिक मनोरंजन में इतने सिद्धहस्त हो गए हैं कि राष्ट्रीय स्तर के कवि कहलाने लगे हैं। दुर्भाग्यवश,श्रोताओं में से भी अधिकतर साहित्य-प्रेमी नहीं होते और दिल बहलाने के लिए आते हैं। इसलिए सम्मेलनों में,इन पर बजती तालियों से बहुधा यह भ्रम पैदा होता है कि इनके जितना किसी को सुना-समझा ही नहीं जा रहा। जब तक एक पीढ़ी को इनसे ऊब पैदा हो,तब तक दूसरी पीढ़ी खड़ी हो चुकी होती है,इन्हें सुनने के लिए और इस तरह इनका क़ारोबार चलता रहता है।
    अफ़सोस यह देखकर होता है कि ऐसे कवियों में कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनका अन्यथा साहित्यिक योगदान बहुत महत्वपूर्ण है।
    निर्मल हास्य का सृजन और उसे श्रोताओं में मर्यादित स्थान हासिल कराना तभी संभव होगा,जब ऐसे लोगों को बुलाना बंद किया जाए जो केवल हास्य कवि की आभासी-छवि बनाए हुए हैं और बड़े मंचों पर हास्य कविता केवल उस कवि को प्रस्तुत करने दिया जाए जो मुख्यधारा का प्रतिष्ठित कवि हो। ऐसे लोग ही मंच और साहित्य दोनों की गरिमा का ध्यान रख सकेंगे।

    • AjitGupta says:

      मैंने विचार किया है कि अब जब भी शहर में कवि सम्‍मेलन होंगे, आयोजकों को एक पत्र लिखूंगी और उनसे निवेदन करूंगी कि वे कविता की मर्यादा को बनाए रखें। समाज के समक्ष कविता की हत्‍या ना करे। यदि हम सभी आयोजकों को पत्र लिखना प्रारम्‍भ कर दें तब शायद कुछ लाभ हो सकता है।

  24. रवि says:

    बिलकुल नहीं जी, किसी को भी बर्दाश्त नहीं करना चाहिए.
    इसीलिए हम पिछले पंद्रह वर्षों से किसी कवि सम्मेलन में ही नहीं गए.

    और, दुर्गाप्रसाद जी की बात भी समीचीन है. प्रिंट/इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी कविता में अराजकता है – भयंकर!!!

  25. Digamber says:

    आपकी बात से असहमति की कोई गुंजाइश नहीं है …
    साहित्य के नाम पे होने वाली इस गन्दगी को बंद करने के प्रयास होने ही चाहियें … और जैसा आपने किया वैसेही हर प्रतिष्टित साहित्यकार को करना चाहिए क्योंकि उन्ही के नाम पे ऐसे लोग पैसा इकठ्ठा करते हैं और प्रचार करते हैं …

  26. डॉक्टर दी,
    एक समय था कि टीवी ने होली और हास्य कवि सम्मेलनों को जन-जन तक पहुंचाया… शैल चतुर्वेदी, ओम् प्रकाश आदित्य, जैमिनी हरियाणवी, सुरेन्द्र शर्मा, के.पे.सक्सेना, शरद जोशी जैसे साहित्यकारों को सुनना एक अनोखा अनुभव होता था.. फिर इसी टीवी ने फूहड़ हास्य के नाम पर भद्दे चुटकुले और भोंडी तुकबन्दियाँ परोसनी शुरू कर दी..
    उसी की नक़ल मंच तक आ गयी.. और अब कार्यक्रम की सफलता की डोर मुन्नी और शीला, जलेबी बाई और चिकनी चमेली के हाथों सौंप दी गयी है!!
    सचमुच एक शोचनीय स्थिति है!!

  27. आपने बात मुद्दे की उठाई, पहले के कवि सम्मेलनों में फ़ूहड़ता नहीं होती थी, कवि सम्मेलनों की रिकार्डिंग सपरिवार सुनते थे। कालांतर में श्रोताओं का स्वाद बदल गया। सी ग्रेड के श्रोता और ए ग्रेड के कवि (भांड) हो गए। साथ ही बाजारीकरण ने भी कवियों को भांड बनाने में मुख्य भूमिका निभाई। हमने तो कवि सम्मेलन सुनने ही छोड दिए। कविता एवं गीतों का वो रस माधूर्य मंचो से सुनाई नहीं देता। चुटकुलेबाजी का ही जोर है।

  28. संजय says:

    टीआरपी सुरसा की तरह स्वस्थ रचनात्मकता को लील गई है। यह सुझाव सही है कि ऐसे आयोजनों का नाम ’रंगारंग उत्सव’ या ऐसा ही कुछ रखा जाये ताकि आमंत्रित लोग सोच समझकर जायें। भीड़ तो कम होने से रही क्योंकि अधिकतर दर्शक या श्रोता भी वही सब पसंद करते हैं।

  29. Kajal Kumar says:

    मुख्‍य अति‍थि‍ होना तो और भी खतरनाक काम है, उठ कर भी नहीं जा सकते

    • AjitGupta says:

      आप सही कह रहे हैं, बहुत भुगतना पडता है। बचने की कोई उम्‍मीद नहीं बचती है।

  30. ——-ये जो बार बार बडे हास्य कवियों के गुन गाये जारहे हैं,,,सुरेन्द्र शर्मा….चक्रधर…आदि आदि यही तो इस फ़ूहड सन्स्था, हास्य कवि सम्मेलनों के जनक हैं…क्योंकि वे साहित्यिक सान्स्क्रितिक कविता के लायक नहीं थे……सुरेन्द्र शर्मा जी ने ही तो घराली..आदि शुरू किया था….स्त्रियों ..पत्नियों पर चुटूकुले अब कविताओं में फ़ूहड बन कर आगये हैं ….. आगाज़ ही गलत था ..लोग तो उन्गली पकद कर हाथ पकडते हैं…उन्गली ही क्यों पकडाई जाय…

    —वास्तव में तो ये सारे हास्य सम्मेलन ही बन्द कर देने चाहिये…….सिर्फ़ काव्य-सम्मेलन हों..जिसमें हर विषय पढा जाय …हास्य भी …स्वयं ही हास्य का स्तर उठेगा ….उच्च साहित्यिक कवि भी हास्य पढेंगे जो स्तरीय होगा ..और फ़ूहड, दारूबाज़ अकवियों का रास्ता ही कट जायेगा ..

    • AjitGupta says:

      आप सही कह रहे हैं लेकिन इन लोगों ने फिर भी कविता को इतनी नहीं ठगा है जितना आज हो रहा है। आज तो एक लाइन भी कविता नहीं है बस केवल लफ्‍्फाजी है।

  31. डॉ श्याम गु‍प्‍ता जी से सहमत, हास्य कविता के गिरते स्तर को गिराने की शुरुआत इन्हीं कवियों ने की थी, जिनका जिक्र डॉ गुप्ता जी ने अपनी टिप्पणी में किया है।
    “चार लाईना” कौनसी हास्य कविताएं थी!!

  32. Kavita Rawat says:

    अपनी वाह वाही के लिए किसी भी स्तर तक जाना यह बेहद दुखद तो है लेकिन जब जाने माने लोकप्रिय कहे जाने वाले लोग जब फूहड़ता पर उतर आते हैं तो और भी शर्मनाक बन जाते हैं यह सब आयोजन ……वास्तव में जो लोग इन आयोजनों के पीछे रहते है उनमें से बहुतों को तो केवल धूम-धडाका से मतलब है और कुछ नहीं …फिर अपेक्षा कैसी और किससे…. हम तो दूर ही रहना पसंद करते है ऐसे आयोजनों से ….
    ..बहुत बढ़िया जनजाग्रति भरी प्रस्तुति हेतु आभार!

  33. मैंने आपके ब्लॉग पर दो बार टिप्पणी की पर पता नहीं वो आई नहीं …बार बार ब्लॉग रिलोड की सूचना आ जाती थी …
    खैर … बहुत सार्थक मुद्दा उठाया है … हास्य के नाम पर आज अश्लीलता ही दिखाई देती है … हर जगह के कवि सम्मेलनों की जानकारी तो नहीं मिल सकती पर अपने स्तर पर अवश्य प्रयास किए जाने चाहिए …

  34. आदरणीया!श्रोताओं में जब कूली से लेकर कुलपति तक शामिल हों तब आयोजक को मजबूरन एक ही मंच पर नीरज जी और बालकवि बैरागी जी जैसे शब्द साधकों के साथ चंद चुटकुलेबाज़ कवियों को भी बिठाना पड़ता है -आयोजक पहले तय करें कि कवि सम्मलेन किस वर्ग के श्रोताओं के बीच है,उसी हिसाब से टीम बनाये, ताकि दोनों वर्ग एक दुसरे को झेलने कि पीड़ा से बच सकें और कविता सिर्फ कविता रहे,विवाद का विषय न बने-कविता’किरण’

  35. Vipul Gupta says:

    Namaskar Madam ji , your post has really made a harsh comment on what is going on in present era with regrad to the institutiton of poetry and those who claim themselves to be great poets have done blunder to ,what in my vision , they have lower down the standard of poems and are now bent upon to present third grade poetry by reciting few lines that have no meaning rather not linked with one another and are devoid of the hidden meaning which each and every prose / poem carry with it ,and as per me those so called poets are responsible for the elimination of institution of poetry in India and due to their so called contribution , presently new generation lack interest in reading peoms rather a time will come when the poems may be called as hidden treasure . I hope respected personalitties like your goodself may take steps to again revive the institution of poetry in India and younger ones may know what is the real purpose for which the poems are composed and recited. namaskar

    • AjitGupta says:

      विपुल, यहाँ दो मुद्दे हैं, एक है कविता के अन्‍दर फूहड़बाजी और दूसरा है कविता के नाम पर फूहड़बाजी। मैंने अभी कविता के नाम पर फूहड़बाजी को उठाया है। मंच पर बैनर लगा होता है कवि सम्‍मेलन और कवि बनकर आया व्‍यक्ति कविता के नाम पर चुटकुलेबाजी करता है। वहाँ कविता की दो लाइने भी नहीं होती। इसलिए मेरा यह कहना है कि आपका बैनर लाफ्‍टर शो आदि होना चाहिए। आप कविता के नाम पर दुनिया को गुमराह ना करें। दूसरा विषय जो तुमने उठाया है कि कविता का स्‍तर अच्‍छा हो। यह विषय भी गम्‍भीर है, इस विषय पर भी दिग्‍गज साहित्‍यकारों को आवाज उठानी चाहिए।

  36. anil merani says:

    mam what u call phhad pana might be entertainment for some. Culture is not the preserve of only the elitist class . even the back benchers need their two minutes of fun. I am a tv journalist and find commedy circus jokes below the belt but they sell . Popular culture neeeds to be populari guess

  37. .

    छद्म कवियों / चुटकुलेबाजों का खुलेआम विरोध हो तो मुझ जैसे सच्चे सृजन-साधकों सरस्वती-सुतों के काव्य लेखन-वाचन से आम पाठक-श्रोता लाभान्वित-आनंदित ही होंगे …

    लेकिन श्रेष्ठ सृजकों का गला काटने वाले, अकादमियों और सेठ-साहूकारों से पैसा ऐंठने वाले दलाल-बिचौलिये इस फूहड़बाज़ी को कभी बंद नहीं होने देंगे …

    समाज के दुर्भाग्य पर दुख होता है , जब अकादमियों के आयोजनों में भी गुणी घर बैठे होते हैं , और भांड-मसखरे और चोट्टे चुटकुलेबाज़ कुछ बिचौलियों की सांठ-गांठ से मंचों पर बेशर्मी से सड़े चुटकुले पेल कर दलालों का हिस्सा दे’कर मोटी रकमें ऐंठ कर ले जाते हैं …

    आप अकादमी अध्यक्ष रह चुकी हैं , भविष्य में गुणी रचनाकारों के अधिकार के लिए कोई अवसर तलाशिएगा …

    • AjitGupta says:

      राजेन्‍द्र जी आपका दर्द ही मेरा दर्द है। मैंने अपने कार्यकाल में कभी भी ऐसे चुटकुलोंबाजों को मंच नहीं दिया।

  38. alpana says:

    चिंताजनक विषय है.
    कवि सम्मलेन के मंच उस के मध्य पर ‘मुन्नी बदनाम जैसे’ नृत्य होना और भी अधिक शर्मनाक घटना है.
    कैसे लगेगी इस तरह के आयोजनों पर लगाम?कहीं से शुरुआत होनी तो चाहिए –

    साहित्य संबंधी आयोजनों हेतु कोई आचार संहिता बनायी जाये..या कोई मानक तय किये जाएँ ?

  39. sameer lal says:

    पूर्णतया सहमत ..चुटकुलेबाजी का ही जोर है।

  40. कवि सम्मेलन तो स्कूल के बाहर कभी देखे नहीं मगर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर तो आज की कई कवितायें फूहड़ता की सीमा से कहीं आगे जा चुकी हैं। समाज में अच्छे-बुरे सभी हैं यह हम पर है कि हम किसे चुनते हैं और किसके पाँव पर कुल्हाड़ी लगाते हैं। सच यह है कि मौका पड़ने पर अक्सर लोग अपने-पराये के झूले में झूलते दिखते हैं और ज़्यादातर वही करते हैं जिसमें उनका निहित स्वार्थ सिद्ध हो रहा हो। खुशी की बात इतनी ही है कि फिर भी कुछ लोग सिद्धांतों पर चलने का साहस करते हैं और इस बात की परवाह नहीं करते कि कौन उनके साथ है।

  41. छोटी दी! यह कविता बाज़ी नहीं ‘चुटकला थिरेपी है .’आज के सन्दर्भ में इसका स्वास्थ्य लाभ है इससे इनकार नहीं किया जा सकता ,भौंडा ही सही हास्य तो है . .

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