अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

कस्तूरी-सुगंध को हर दम महसूस करूंगी

Written By: AjitGupta - Dec• 19•16

बहुत खो दिया मैंने, ऐसे सुख को, जिसमें अपार सृजन और कला का वास है। जिसमें प्रेम-प्यार-आत्मीयता को एक ही शब्द में समेटने का जन्मजात गुण है। जिसमें बाहुबल के स्थान पर अपने आँचल में परिवार को समेटने की असीमित शक्ति है। जिसके एक इशारे पर दुनिया का चलन बदल जाता है। जो माँ के रूप में ममतामयी है, पत्नी के रूप में भी प्रेममयी है, बहिन के रूप में भी स्नेहमयी है, बेटी के रूप में भी प्यारभरी है। जो जन्म से लेकर मृत्यु तक परिवार को बांधकर रखती है, ऐसा सुख दुनिया का सबसे बड़ा सुख है। महिला होने का सुख महिला को जी कर ही जाना जा सकता है।
बचपन से पिता ने पुरुष बनाने की दौड़ में शामिल करा दिया, बहुत सारे सुख अनजाने ही रह गये। उम्र के इस पड़ाव पर पूरे जतन से महिला बनने का प्रयास कर रही हूँ, जैसे-जैसे महिला होने के करीब जाती हूँ, मेरा सुख बढ़ता जाता है। दुनिया का सबसे बड़ा सृजन महिला के पास ही है। कला का प्रगटीकरण तो हर क्षण ही होता है, दरवाजे के बाहर रंगोली दिख जाती है तो हाथ में मेंहदी रच जाती है। रसोई से आती सुगंध टेबल पर नाना रूप में सज जाती है। शरीर का आकर्षण कभी वस्त्रों सें झलकता है तो कभी गहनों में खनकता है। बस सृजन ही सृजन और कला ही कला।
साधारण सी दिखने वाली महिला भी असाधारण बनकर सामने खड़ी हो जाती है। तभी तो अच्छे से अच्छे धुरंधर भी उनके समक्ष नतमस्तक से खड़े दिखायी देते हैं। ममता की सत्ता – प्रेम-प्यार-आत्मीयता से बड़ी बन जाती है। परिवार उसका साम्राज्य बन जाता है और साम्राज्यों के अधिपति परिवार के इस साम्राज्य के समक्ष बौने हो जाते हैं। सारी ही भाषाओं के ज्ञान को मन की भाषा निरूत्तर कर देती है। तभी तो शंकराचार्य से उभय भारती जीत जाती है।
सब गड्डमड्ड कर दिया हैं हमने। अपना सुख खुद ने ही छीन लिया है हमने। अपने आकाश को मोदी की तरह विस्तार चाहे कितना ही दे दो लेकिन एक कोना ममतामयी सी सुषमा के जैसा भी रहने दो। मोदी भी मोदी बनकर सफल तब होते हैं जब उनकी आँखों से ममता टपकने लगती है, जब वे अपने अंदर ममता का वास रखते हैं तो भला हम अपनी ममता से कैसे किनारा कर लें। दृढ़ता की कितनी ही प्राचीर बन जाओ लेकिन उस प्राचीर के हर छिद्र में स्नेह की आपूर्ति हमेशा रहनी चाहिये। जो महिला होकर भी इस सुख से अनजान हैं वे ऐसे ही हैं जैसे फूल बनकर भी सुगंध से कोसों दूर हों। अपनी मुठ्ठी में अब अपने आपको रखूंगी, अपने अन्दर इस आनन्द को समेट कर रखूंगी और कस्तूरी मृग के समान कहीं नहीं भटकूंगी बस अपने अन्दर की कस्तूरी-सुगंध को हर दम महसूस करूंगी।

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4 Comments

  1. इस कस्तूरी-गंध का बोध, जो हमारे व्यक्तित्व में व्याप्त है ,कितना आत्मसंतोष प्रदान करता है -स्मरण कराने का आभार !

  2. AjitGupta says:

    आभार प्रतिभाजी।

  3. param says:

    दिल से लिखा है … बहुत अच्छा l पुरुष बनने बनाने की दौड़ छीनती तो बहुत कुछ है पर अपने विश्वासों पर जिन्दगी जीने की कुव्वत भी देती है l वे पिता महान होते हैं जो पुत्रियों को इस दौड़ में शामिल करते हैं l

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