अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

काश हम एक नहीं अनेक होते

Written By: AjitGupta - Dec• 19•18

रोज सुनाई पड़ता है कि यदि एक सम्प्रदाय की संख्या इसी गति से बढ़ती रही तो देश का बहुसंख्यक समाज कहाँ जाएगा? उसे केवल डूबने के लिये हिन्द महासागर ही मिलेगा। फिर तो हिन्द महासागर का नाम भी बदल जाएगा। ऐसे में मुझे इतिहास की एक बड़ी भूल का अहसास हुआ। जब भारत स्वतंत्र हो रहा था तब अंग्रेजों ने देश की 565 रियासतों के राजा-रजवाड़ों को बुलाकर कहा था कि आज से आप स्वतंत्र हैं, आप चाहें तो स्वतंत्र राष्ट्र बन सकते हैं और चाहें तो हिन्दुस्थान या पाकिस्तान के साथ मिल सकते हैं। कल क्या हुआ था यह मत सोचिये, यह सोचिये कि यदि जो हुआ था वह नहीं होता तो क्या होता? 565 रियासतों में से बहुत सारी ऐसी होती जो स्वतंत्रता के पक्ष में होती और भारत एक ना होकर अनेक भारत में विभक्त हो जाता। छोटी-छोटी रियासते हो सकता है कि अपनी नजदीकी रियासत के साथ मिल जाती, जिसकी सम्भावना न के बराबर है। अब देश में ही कितने देश होते? 100? 200? 300? 400? 500? या इससे भी ज्यादा। पाकिस्तान की तर्ज पर कुछ मुस्लिम देश और होते लेकिन कोई तमिल होता तो कोई मलयाली, कोई उड़िया तो कोई बंगाली, कोई राजस्थानी, कोई पंजाबी तो कोई गुजराती। कहीं ब्राह्मण प्रमुख होते तो कहीं वैश्य और कहीं क्षत्रीय। कहीं जाट तो कहीं गुर्जर तो कहीं शूद्र। सभी को अपना देश मिल जाता। किसी देश में लोकतंत्र होता तो किसी देश में राजतंत्र। धर्मनिरपेक्षता का नाम भी होता या नहीं, कह नहीं सकते। ऐसे में मुस्लिम विस्तार की बात बामुश्किल होती और यदि होती भी तो जनता को अनेक हिन्दू राष्ट्र में शरण लेने की जगह होती। 
अभी क्या देखते हैं कि एक सम्प्रदाय विशेष को ही आजादी के बाद से सारे सुख मिले हैं, अन्य सम्प्रदाय के विद्वानों को वह स्थान नहीं मिला जो मिलना चाहिये था। आरक्षण के कारण भी बहुत दमन हुआ। हो सकता है तब आरक्षण की आवश्यकता ही नहीं पड़ती और समाज में वैसे ही समानता आ जाती। किसी भी जाति वर्ग के विद्वान को यदि अपने देश में सम्मान नहीं मिलता तो दूसरे देश में मिल जाता। देश भी पास-पास होते तो परिवार भी टूटने के खतरे से बच जाते। इतने बड़े देश में आज केवल धर्मनिरपेक्षता से काम नहीं चल सकता। आज जो हो रहा है, वह एक सम्प्रदाय की खेती को तेजी से बढ़ाने का काम हो रहा है। हर वर्ग में असंतोष बढ़ता जा रहा है, वे जायज भी हैं और एक देश की दृष्टि से देखें तो नाजायज भी हैं। लेकिन हम एक देश नहीं होते तो यह समस्या नहीं होती। कोई भी जाति या सम्प्रदाय इस प्रकार सर नहीं उठाते। हम आपस में मित्र राष्ट्र होते और एक दूसरे को सम्मान देते। अब तो देख रहे हैं कि 20 करोड़ की जनसंख्या भी अल्पसंख्यक कहलाती है और बहुसंख्यक के सारे अधिकार छीन रही है। ब्राह्मण से लेकर दलित तक सभी आन्दोलित हैं, सभी को विशेष दर्जा चाहिये। 
सरकारें भी पेशोपेश में हैं कि किसे खुश करें और किसे नाराज! यही कारण है कि हर रोज सरकारें बदलती हैं, वादे बदलते हैं और खुश करने का तरीका बदल जाता है। नेता कभी इधर तो कभी उधर का खेल खेलते हैं और जनता भी कभी इसका पलड़ा तो कभी उसका पलड़ा भारी करती रहती है। इन सबके बीच यदि नुक्सान हो रहा है तो सनातन धर्म का हो रहा है। हमारे सनातन मूल्यों का नुक्सान हो रहा है। हमारी संस्कृत भाषा और हमारी संस्कृति का हो रहा है। सर्वकल्याणकारी संस्कृति का विनाश ऐसा ही है जैसे सम्पूर्ण मानवता का विनाश। क्या हम आसुरी काल में प्रवेश करेंगे? क्या राम और कृष्ण मय धरती इनसे विहीन हो जाएगी? प्रश्न बहुतेरे हैं, लेकिन उत्तर कहीं नहीं हैं! हम सब एक-दूसरे को समाप्त करने में लगे हैं लेकिन इसका अन्त कहाँ जाकर होगा, यह कोई नहीं जानता। इसलिये मन में आया कि काश हम एक ही नहीं होते तो कम से कम सुरक्षित तो रहने की सम्भावनएं बनी रहती। अभी भी कुछ टुकड़े हो जाएं तो बचाव का मार्ग बचा रह सकता है नहीं तो सारा हिन्दुस्थान नाम लेने को भी नहीं बचेगा। फिर तो यहूदियों जैसा हाल होगा कि ओने-कोने में बचे हिन्दू एकत्र होंगे और फिर इजरायल की तरह अपना देश हिन्दुस्थान बसाएंगे। वही हिन्दुस्थान शायद अजेय होगा।

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