अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

काश हम विशेष नहीं होते

Written By: AjitGupta - Feb• 15•17

सामान्य और विशेष का अन्तर सभी को पता है। जब हम सामान्य होते हैं तो विशेष बनने के लिये लालायित रहते हैं और जब विशेष बन जाते हैं तब साँप-छछून्दर की दशा हो जाती है, ना छछून्दर को छोड़े बनता है और ना ही निगलते बनता है। आपके जीवन का बिंदासपन खत्म हो जाता है। जब मैं कॉलेज में प्राध्यापक बनी तब कई बार कोफ्त होती थी कि क्या जीवन है! फतेहसागर पर जाकर गोलगप्पे भी नहीं खा सकते। क्योंकि कोई ना कोई छात्र आपको देख लेगा और आपका विशेषपन साधारण में बदल जाएगा। महिलाओं के साथ तो वेशभूषा को लेकर भी परेशानी होती है, बाहर जाना है तो साड़ी ही पहननी है, नहीं तो ठीक नहीं लगेगा। कई बैठकों में सारा दिन साड़ी में लिपटे गर्मी खा रहे होते थे तब मन करता था कि शाम को तो सलवार-सूट पहन लिये जाये लेकिन फिर वही विशेष का तमगा! सारे ही पुरुष कुर्ते-पाजामे में और हम साड़ी में।
यह सब तो बहुत छोटी-छोटी बातें हैं, असली बात है सम्मान और अपमान की। इस देश में जो भी चाँदी का चम्मच लेकर पैदा होता है, उसे ही सम्मान मिलता है। आप साधारण हैं और संघर्षों के बाद विशेष बने हैं तो दुनिया चाहे आपको स्वीकार ले लेकिन आपके नजदीकी कभी भी आपको स्वीकार नहीं पाते हैं। आप सम्मानित व्यक्ति हैं यह बात उनके गले नहीं उतरती, यहाँ तक तो ठीक है लेकिन वे आपको छोटा सिद्ध करने के लिये कदम-कदम पर अपमानित करते रहते हैं, यह बात आपको हिला देती है। क्या मित्र और क्या परिवारजन सभी आप से दूर होने लगते हैं या कभी-कभी आप ही अपमान से बचने के लिये उनसे दूर हो जाते हैं। जब तक आप किसी को भी लाभ देने की स्थिति में हैं तब तो आपको सम्मान मिलेगा लेकिन यदि आप लाभ देने की स्थिति में नहीं हैं तो अपमान के लिये तैयार रहना होगा।
लेखन ऐसी चीज है, जिससे आप किसी को लाभ नहीं दे सकते हैं लेकिन यदि आपके विचार अच्छे हैं तो आप सम्मान जरूर पा जाते हैं। बस यही सम्मान जी का जंजाल बन जाता है। आपका सम्मान मुठ्ठीभर लोग करेंगे और अपमान को तैयार सारा जग रहेगा। तब लगने लगता है कि काश हम विशेष ही ना बने होते। एक कहानी याद आ रही है – एक नगर में पानी के लिये दो कुएं थे, एक प्रजा के लिये और दूसरा राजा के लिये। प्रजा के कुएं के पानी में अचानक ही बदलाव आ गया, जो भी उस पानी को पीता वह पागल होने लगता। धीरे-धीरे प्रजा पागल होने लगी और एक दिन पूरी प्रजा पागल हो गयी। लेकिन राजा के कुए का पानी ठीक था तो राजा भी ठीक ही रहा। लेकिन एक दिन प्रजा ने राजा पर यह कहकर आक्रमण कर दिया कि हमारा राजा पागल है। अब राजा के पास बचाव का कोई साधन नहीं था, हार कर राजा ने भी उसी कुए का पानी पी लिया। विशेष होने पर हमारे साथ भी यही होता है, कोई भी हमें स्वीकार नहीं कर पाता और राजा की तरह हमें भी सर्वसामान्य के कुए का पानी पीना पड़ता है। यदि ऐसा नहीं करते हैं तब अकेलेपन का संत्रास भुगतना पड़ता है। इसलिये ही लोग बचपन को याद करते हैं, जब विशेष का दर्जा होता ही नहीं था। बचपन में हम, मैदान में फुटबॉल खेल रहे होते हैं और बड़े होकर हम खुद फुटबॉल बन जाते हैं। चारों तरफ से लाते पड़ना शुरू होती हैं, बस स्वयं को और स्वयं के विशेषपन को बचाते हुए चुपके-चुपके आँसू बहा लेने पर मजबूर हो जाते हैं। अब लगने लगा है कि काश हम विशेष नहीं होते!

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4 Comments

  1. सर्र्योवोपयोगी,मार्मिक, हृजयस्पर्शी, अन्तर्मन को झकझोरने वाला सामयिक लेख

  2. AjitGupta says:

    आभार रामविलास जी।

    • आभार व्यक्त करने के लिए साधुवाद. मै आपका लगभग हर लेख पढता हूँ, क्योकि मुझे अच्छा लगता है.

  3. AjitGupta says:

    यह मेरा सौभाग्य है।

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