स्त्री-पुरुष जनसंख्या में चार करोड़ का अन्तर। पुरुषों के मुकाबले चार करोड़ स्त्रियां कम। जाँच-परख कर और चुन-चुन कर मारा है हमने कन्या को। सभी को चाहिए अपने घर में एक पुरुष। ऐसा पुरुष जो बुढ़ापे का सहारा बने, परिवार का सुरक्षा-प्रहरी बने, अर्थ का सम्पूर्ण प्रबंधन करे। इसी पुरुष की कामना में यज्ञ किए, हवन किए, प्रभु से प्रार्थना की। हे प्रभु! मुझे ऐसा पुत्र दे, जो बलवान हो, धैर्यवान हो, अर्थवान हो। युद्ध की विभीषिका में जूझ रहे भारत में, अपनी सुरक्षा के लिए पुरुष की कामना की गयी। लेकिन केवल पुरुष की नहीं अपितु संस्कारित पुरुष की। भारत ने भी स्वतंत्रता प्राप्त की लेकिन मानसिक स्वतंत्रता नहीं प्राप्त की। पुरुष की चाहत मन में घर कर गयी, यह मेरा वारिस बनेगा, मुझे सुरक्षा प्रदान करेगा, मेरे बुढ़ापे का सहारा बनेगा। धीरे-धीरे संस्कार गौण हो गए और केवल चाहत रह गयी। पुरुष को संस्कारित करना परिवार का कर्तव्य नहीं रहा, बस लाड़-प्यार रह गया। संस्कारों के अभाव में विकृति आने लगी। पुरुष बड़ा है, इस बात की घोषणा होने लगी और पुरुष ने भी स्वयं को बड़ा मान लिया। विवाह के सूत्र बदल गए – लड़के की आयु बड़ी होगी, कद बड़ा होगा, शिक्षा बड़ी होगी। समझदार कन्या पक्ष श्रेष्ठ दूल्हों की तलाश में निकल गए और दूल्हे बिकने प्रारम्भ हुए, दहेज शुरू हो गया। पुरूष का अहंकार बढ़ा और उसने स्त्री को अपने भोग की वस्तु मान लिया। यह दुर्गुण पुरुष में पूर्व में भी था लेकिन संस्कारों के कारण क्षीण होता रहता था और केवल शक्तिशाली पुरुषों में ही यदा-कदा देखने में आता था। लेकिन अब यह दुर्गुण सार्वजनिक हो गया। कृशकाय व्यक्ति भी दाढ़ी बढ़ाकर शक्तिशाली दिखने का प्रयास करने लगा। दहेज और बलात्कार से उत्पन्न डर ने कन्या-भ्रूण हत्या जैसे जघन्य अपराध को जन्म दिया। लड़ाका जातीयों में यह कुकृत्य पूर्व में भी था लेकिन वह सीमित था, अब सार्वजनिक हो गया।
आंकड़े कम होते गए और वर्तमान में चार करोड़ का विशाल अन्तर उपस्थित है। दहेज के कारण शिक्षित, योग्य दूल्हों को तो खरीद लिया गया इसलिए उन्हें दुल्हन भी मिली और पुरुष होने का अहंकार भी। लेकिन गरीब, अशिक्षित, बेरोजगार को कोई खरीददार नहीं मिला। गाँवों और कस्बों से ऐसे युवाओं का पलायन नगरों और महानगरों की ओर हुआ। जिस बालक ने अपने गाँव में विद्युत-प्रकाश तक नहीं देखा था अब महानगरों में बड़े-बड़े होर्डिंग्स को चमकते-दमकते देख हैरान हो गया। इन होर्डिंग्स में फिल्मों के अधनंगे दृश्य विशाल आकार में दृश्यमान थे। उस बेरोजगार युवक ने महानगरों में मजदूरी की, रिक्शा चलाया और अपना पेट भरा। लेकिन शरीर की भूख होर्डिंग्स और फिल्म देखकर जाग गयी। अपनी खोली में एक छोटा सा टीवी भी ले आया, अब तो रात-दिन का ही काम हो गया, अधनंगे दृश्यों को देखना। कुछ दलालों ने रूपहले पर्दे के लालच में लड़कियों को भी फंसा लिया और वे गाँवों से ऐसी लड़कियों को शहर ले आए। अब धन्धा चलने लगा। धीरे-धीरे यही गाँव का मासूम शातिर बनता गया और शिकार करने लगा। शहर का विवाह से वंचित पुरुष तो और भी शातिर हो गया। नये-नये शब्द बाजार में आ गए – गुण्डे, मवाली, शोहदे, लफंगे आदि आदि। इन पर समाज और परिवार का नियन्त्रण स्वत: ही समाप्त हो गया क्योंकि ये परिवार बनाने में अक्षम रहे। इन पर केवल सरकारी तन्त्र का नियन्त्रण शेष था। ऐसे युवाओं की बढ़ती संख्या और प्रशासन की घटती संख्या ने सुव्यवस्था के स्थान पर आपसी समझौता अर्थात धंधे का रूप दे दिया। राजनीति में भी ऐसे मवाली काम आने लगे। जब भी धरना-प्रदर्शन हो, बुलाओ इनको। पूरे भारत में ऐसे शातिर तत्वों ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया। अब ये नव-आगन्तुकों की खोज में रहने लगे। निम्न मानसिकता से ग्रस्त विवाहित पुरुष भी इनके साथ आ मिला। फिल्म और टीवी ने शरीर की आग को भड़काने में कोई भी कसर नहीं छोड़ी। लड़कियों के लिए भी यह धंधा सम्मान का हो गया और ऐसे कलाकारों की संख्या बढ़ने लगी। कभी बार-बालाओं के रूप में तो कभी काल-गर्ल्स के रूप में और अब तो खेलों में भी चीयर-लीडरर्स के नाम पर धंधा खूब चल पड़ा। कहने का तात्पर्य यह है कि एक समानान्तर समाज स्थापित हो गया। चार करोड़ तो ये लोग और न जाने कितने करोड़ और इस देह व्यापार में लिप्त हो गए। लेकिन फिर भी देह का शिकार करना इतना सरल नहीं था। आसान शिकार की खोज होने लगी। आसान शिकार तो परिवारों में ही मिलते हैं, कभी पुत्री, कभी बहन, कभी भाभी शिकार होने लगी। दूध पीती बच्चियां भी शिकार होने लगी। इस दैत्य ने अपने पैर और पसारे, प्रशासन और राजनेताओं के सम्बंधों के कारण साहस और आया, अब जहाँ भी अवसर मिला शिकार कर लिया। कानून इतना लचर कि कुछ ना हो और समाज का चरित्र इतना सजग की महिलाएं शिकार भी बने और अपने चरित्र से हाथ भी धो बैठे। ऐसे में शिकायते बाहर नहीं आयीं लेकिन बड़े हादसों ने समाज की नींद उड़ा दी। मीडिया भी अपना कर्तव्य कम और व्यापार ज्यादा के चक्कर में पुण्य कमाने लगे। लेकिन फिर भी ऐसे कुकृत्य उजागर होने लगे। इसलिए हम सब के सामने ये चार करोड़ पुरुष और न जाने कितने करोड़ अन्य पुरुष यक्ष-प्रश्न बनकर खड़े हैं, जो जितनी शक्ति एकत्र कर पाया है, वह उतना ही शिकार कर लेता है। जो लोग यह कह रहे हैं कि बड़े नेता आदि की पुत्रियां तो सुरक्षित हैं, उनका भ्रम भी शीघ्र ही टूटेगा। क्योंकि ऐसे लोगों की शक्ति तो बढ़ती जा रही है, इसलिए ऐसे ही शक्तिशाली वर्ग इन बंगलों में सुरक्षित बैठी पुत्रियों के दरवाजे पर भी दस्तक दे ही देंगे। मैं सुरक्षित हूँ, केवल यह सोचकर आँख मूंदने की आवश्यकता नहीं है। यह जनसंख्या का अन्तर तीव्रता से कम होना चाहिए। मनोरंजन के नाम पर हो रहे भड़काऊ प्रदर्शन पर तत्काल रोक और संस्कार देने का कार्य भी तीव्रता से होना चाहिए। परिवारों को अपने बिगडैल नौनिहालों के प्रति सावचेत होना चाहिए। प्रशासन में घटती जिम्मेदारी पर विचार होना चाहिए। महानगर और गाँव की जनसंख्या के संतुलन पर भी चर्चा होनी चाहिए। जो महानगर जनसंख्या की मार झेल रहे हैं वहाँ चिंतन होना चाहिए। इस चार करोड़ की आबादी को तुरन्त प्रभाव से बिखेरना चाहिए और विवाह संस्था को सुदृढ़ बनाने का संकल्प लेना चाहिए। परिवारों को ज्यादा से ज्यादा जिम्मेदार होने की आवश्यकता पर बल देना चाहिए। जितने भी साधु-संन्यासी, मुल्ला-मौलवी, सिस्टर-पादरी आदि समाज को संस्कारित करने में लगे ना कि अपने अपने मठों को बनाने में। जब तक सम्पूर्ण देश एकसाथ उठ खड़ा नहीं होगा, तब तक इस देश का भविष्य ऐसे ही खतरों से जूझता रहेगा। युवापीढ़ी क्रान्ति का बिगुल बजा रही है, लेकिन उसे पथ का मालूम होना चाहिए, पाथेय भी मिलना चाहिए और मंजिल का ठिकाना भी। नहीं तो यह युवाशक्ति भी एक अनियंत्रित भीड़ में बदल जाएगी।
बहुत भयावह स्तिथि है …
विवाह संस्था को सुदृढ़ बनाने का संकल्प लेना चाहिए,युवापीढ़ी क्रान्ति का बिगुल बजा रही है, लेकिन उसे पथ का मालूम होना चाहिए, पाथेय भी मिलना चाहिए और मंजिल का ठिकाना भी।- ये समाज के कर्तव्य है।
शायद पिछले १००० वर्षों की गुलामी ने भारत वासियों को पलायनवादी ओर भीरु बना दिया है … ऐसी अनेक सामाजिक समस्याओं के प्रति घोर उदासीनता का कारण आपने अंदर ही छुपा हुवा है … निजीकरण की सोच इतनी हावी हो रही है … संस्कृति, समाज, धर्म का चिंतन (धार्मिक होने की नहीं) खत्म सा हो गया है … सरकार तो उदासीन है ही … लोग भी अब अब सब कुछ सरकार करेगी ये सोच के आराम से बैठ जाते हैं … समय है की सामाजिक संस्थाओं को, मान्यताओं को जागृत करने की … नई, अच्छी विचारधारा को पुनर-स्तापित करने की …
भयानक स्थिति , जब समस्या बढ़ जाएगी तो ये लोग खड़ताल मंजीरा बजायेंगे
खतरनाक स्थिति है। हर तबका असहाय सा है।
bhavishy ke bare main sochna hoga, barna
अजित जी, बहुत सटीक लिखा है…बलात्कार की बढ़ती घटनाएं सिर्फ सुरक्षा से ही जुड़ा पहलू नहीं है…ये समाज के अधोपतन से जुड़ा विषय है…अमीर और गरीब के बीच चौड़ी होती खाई से भी ये अछूता नहीं है…पेज थ्री पार्टियों में अमीरों का भोग-विलास का निर्लज्ज प्रदर्शन भी कहीं न कहीं इसके लिए ज़िम्मेदार है…फिल्मों में लौंडिया पटाएंगे मिसकॉल जैसे गानों से हम क्या संदेश देना चाहते हैं..इसी से मिलते-जुलते विषय पर विस्तार से लिखने की कोशिश कर रहा हूं…पढ़ियेगा ज़रूर…
जय हिंद…
समस्या का जड़ से अवलोकन किया है।
सटीक।
बहुत सारगर्भित चिंतन…आज सभी को इस पर विचार करना चाहिए…
ये समस्या अब भयानक रूप धारण कर चुकी है …अब समाधान भी जरुरी हो गया है …पर कैसे ????
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल बृहस्पतिवार 27 -12 -2012 को यहाँ भी है
….
आज की हलचल में ….मुझे बस खामोशी मिली है …………. संगीता स्वरूप . .
गहन चिंतन किया है जो झलक रहा है
जितने भी साधु-संन्यासी, मुल्ला-मौलवी, सिस्टर-पादरी आदि समाज को संस्कारित करने में लगे ना कि अपने अपने मठों को बनाने में। जब तक सम्पूर्ण देश एकसाथ उठ खड़ा नहीं होगा, तब तक इस देश का भविष्य ऐसे ही खतरों से जूझता रहेगा। युवापीढ़ी क्रान्ति का बिगुल बजा रही है, लेकिन उसे पथ का मालूम होना चाहिए, पाथेय भी मिलना चाहिए और मंजिल का ठिकाना भी। नहीं तो यह युवाशक्ति भी एक अनियंत्रित भीड़ में बदल जाएगी।
पूरे लेख की एक एक पंक्तियों से सहमत ..
अंतिम दो चार पंक्तियों में बढिया समाधान भी दिया आपने ..
आज के युवापीढी को एक अच्छा नेतृत्व मिलना चाहिए !!
टीवी,चलचित्र और पत्र-पत्रिकाओं की निर्लज्ज अभिव्यक्तियाँ ,और विज्ञापन अब घरों के साथ सड़कों के जीवन में घुले जा रहे हैं .वही सस्तापन और कामुकता आज के संस्कारों में समा रही है (छोट-छोटे बच्चे भी उसकी चपेट में आ रहे हैं .,सोच बहुत बदल गई है -सारी मर्यादाएँ समाप्त होती जा रही हैं .उन्मुक्त भोग की संस्कृति बड़ी आकर्षक लगती है. उसका अंजाम और क्या होगा !
प्रतिभाजी, इससे अधिक अंजाम क्या होगा? समाज की सारी ही मर्यादाएं ध्वस्त की जा रही हैं। मनुष्य को पशुवत बनाने के सारे ही प्रयास रंग ला रहे हैं। काम-भाव ही प्रमुख हो गया है। प्रकृति में भी केवल प्रजनन ही ध्येय था, लेकिन अब प्रजनन के स्थान पर काम-भाव को वरीयता दी जा रही है। अर्थात मनुष्य नाली के कीड़े से भी अधिक कामी हो गया है। वह तो केवल प्रजनन के लिए काम-भाव रखता है लेकिन मनुष्य की पिपासा तो विकराल रूप धारण कर रही है।
समाज की आँखें खोलता लेख …
अजीत जी ,
आपने सभी समस्याओं के उद्गम और इन पर कैसे रोक लगाई जा सकती है उस पर प्रभावशाली रूप में लिखा है …. सच ही आज सारी मर्यादाएं खत्म होती जा रही हैं ॥ मुझे याद है कि संगम पिक्चर जब आई थी तो शायद मैं छठी या सातवीं कक्षा में थी … पापा ने मना कर दिया था उस पिक्चर को बच्चों को दिखाने से और आज बच्चे क्या क्या देखते हैं बताया भी नहीं जा सकता । सार्थक लेख
अजित जी नमस्कार
पूर्व में हुई चर्चा के अनुसार आपके ब्लाग ‘अजित गुप्ता का कोनाÓ के ‘क्या करेंगे ये चार कारोड़ लोग?Ó शिर्षक के लेख को ‘आजाद भारत को कब मिलेगी मानसिक स्वतंत्रता?Ó शिर्षक से भास्कर भूमि में प्रकाशित किया गया है। इस लेख को आप भास्कर भूमि के ई पेपर में ब्लॉगरी पेज नं. 8 में देख सकते है। हमारा ई मेल एड्रेस है http://www.bhaskarbhumi.com
धन्यवाद
नीति श्रीवास्तव
नीति जी
आपने सूचित किया इसके लिए आभार। लेकिन शीर्षक बदलने से पूर्व आज्ञा ली जाती तो अच्छा होता।
प्रभावी यथार्थ चित्रण।
सटीक आंकलन
bilkul sahmat hun ap se …..prabhavshali prastuti ke liye abhar.
पहले पेट के अन्दर मार कर असंतुलन कर दिया, फिर बाहर भी नहीं छोड़ रहे हैं, मार्मिक स्थिति सामाजिक मान्यताओं की।
kya shadishuda log balatkaar nahin karte ????
शेखर सुमन जी, आप का प्रश्न एकदम जायज है। मैंने लिंखा भी है कि ऐसी निम्न मानसिकता के विवाहित पुरुष भी इनकी संख्या बढ़ा रहे हैं।
स्थितियां भयावह हैं. यह कारनामें रोज चारों तरफ़ हो रहे हैं, अभी मिडीया की सहज उपलब्धता ने इसे नजरों में ला दिया है. कितने ही अपराध तो इज्जत के मारे सामने ही नही आते. शायद हम मूल रूप से अपने सामाजिक नैथिक मूल्यों को खो चुके हैं. और इसके जिम्मेदार भी कहीं ना कहीं हम ही हैं.
ग्लोबलाईजेशन की आंधी में जो कुछ परोसा गया है उसके इफ़ेक्ट से कौन बचायेगा? हमारे फ़िल्मकार तो पोर्न स्टार्स के साथ फ़िल्में बना रहे हैं. ये आर्थिक युग है, सबको अर्थ ही कमाना है. नैतिकता कोई शर्त नही है.
मुझे लगता है इस समय भी यदि नियंत्रण कर लिया जाये तो हम इस अंधेरे से बाहर निकल सकते हैं. आपका आलेख अंदर तक झिंझोडता है.
रामराम
इस देश में समाजशासत्री सबसे फ़ालतू व्यक्ति माना जाता है, उसकी सुनता कौन है
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♥नव वर्ष मंगबलमय हो !♥
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स्त्री-पुरुष जनसंख्या में चार करोड़ का अन्तर !
पुरुषों के मुकाबले चार करोड़ स्त्रियां कम !
जाँच-परख कर और चुन-चुन कर मारा है हमने कन्या को…
बहुत भयावह स्थिति है !
सिहरन होती है सोच कर …
आदरणीया डॉ. अजित गुप्ता जी
पुरुष-नारी के बढ़ते आनुपातिक अंतर का सूक्ष्म विवेचन और समाज पर पड़ने वाले दुष्परिणाम का बहुत गहराई से खाका खींचा है आपने
लड़कियों के लिए भी यह धंधा सम्मान का हो गया और ऐसे कलाकारों की संख्या बढ़ने लगी। कभी बार-बालाओं के रूप में तो कभी काल-गर्ल्स के रूप में और अब तो खेलों में भी चीयर-लीडरर्स के नाम पर धंधा खूब चल पड़ा।
पूरा लेख रोंगटे खड़े करने वाला है …
अब भी नहीं संभले तो परिणाम और भी भयावह होते चले जाएंगे ।
युवापीढ़ी क्रान्ति का बिगुल बजा रही है, लेकिन उसे पथ का मालूम होना चाहिए, पाथेय भी मिलना चाहिए और मंजिल का ठिकाना भी। नहीं तो यह युवाशक्ति भी एक अनियंत्रित भीड़ में बदल जाएगी।
बहुत कुछ ऐसा घट रहा है , जिसकी अनदेखी संभव नहीं …
फिर भी आशा का दामन नहीं छोड़ना चाहिए
वर्ष २०१२ की विदा-वेला में मैं अपनी ओर से नव वर्ष के स्वागत में कहता हूं-
ले आ नया हर्ष , नव वर्ष आ !
आजा तू मुरली की तान लिये ‘ आ !
अधरों पर मीठी मुस्कान लिये ‘ आ !
विगत में जो आहत हुए , क्षत हुए ,
उन्हीं कंठ हृदयों में गान लिये ‘ आ !
हम सबकी ,सम्पूर्ण मानव समाज की आशाएं जीवित रहनी ही चाहिए …
नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित…
राजेन्द्र स्वर्णकार
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राजेन्द्र जी, वर्ष 2013 की समस्त तारीखें, हमारे कारण शुभ बने।