हम एक बार पूरे 24 घण्टे से भी अधिक समय तक रास्ते में फंसे रहे, गाडी जब ठीक होती तो थोड़ा चलती फिर ठुमक कर बन्द हो जाती और चार-पाँच घण्टे की यात्रा को पार करने में इतना समय लग गया। हम तीन महिलायें और तीन पुरुष थे। रास्ता रेगिस्तानी था तो जैसे ही गाडी हिचकी मारकर रुकती हम महिलाएं कभी रेत के टीले पर तो कभी पेड़ के नीचे या किसी खटिया पर गप्प का बाजार गर्म करने बैठ जाती। आदमी लोग जैसे-तैसे गाडी को धकेलने लायक बनाते और चिंतित रहते कि कब महिलाओं का ज्वालामुखी फूटेगा और हम कैसे अपनी जान बचा पायेंगे। ना हमारा गप्प का खजाना खत्म हो और ना ही गाडी अपनी जिद छोड़े, वह तो अडियल टट्टू की तरह अड़ गयी थी। लेकिन गप्प के सहारे हम जीवंत बने हुए थे। ना गुस्सा, ना चिड़चिड़ाहट और ना ही रास्ते की दुश्वारियां। सभी को हमारी गप्प ने पीछे धकेल दिया था। हमें समय कम पड़ रहा था।
अब कल्पना कीजिये चुप्पा लोगों की, जिनका आनन्द उनके अन्दर नहीं है, जो अपना आनन्द टीवी में ढूंढते हैं। ऐसी स्थिति में वे क्या करेंगे? वे दूसरों को देखकर खुश होते हैं, उनके साथ ही रोते हैं, हंसते हैं। अपने अंदर का दुख-सुख बाहर निकालने की क्षमता ही जैसे खो चुके हैं। ऐसे लोगों के साथ बरसों की मित्रता के बाद भी उनके जीवन से हम अछूते ही रह जाते हैं। पानी के ऊपर तैल की बूंद के समान दोस्ती बनकर रह जाती है।
युवावस्था में हमारा अधिकांश समय खेलकूद में ही गुजरता था। गर्मियों की छुट्टियों में दिन में चार घण्टे इनडोर गेम, शाम को तीन घण्टे आउटडोर गेम और फिर रात को खेल बस खेल। हम क्रिकेट खुद खेलते थे, टीवी पर दूसरों को देखकर दुखी या सुखी नहीं होते थे। जितने भी खेल थे सारे ही हमारे जीवन का अंग थे। अभी तो नवीन पीढ़ी जैसे लुंज-पुंज हो गयी है, खुद खेलना नहीं बस टीवी पर दूसरों को खेलते देखना ही इनका काम रह गया है। टीवी तो हम बुजुर्गों के लिये है लेकिन युवा पीढ़ी चिपकी हुई है।
गर्मी की छुट्टियों में सारे ही बच्चे ननिहाल जाते थे, वहाँ बराण्डे में या पेड़ के नीचे अपनी दुनिया बसा लेते थे। जो भी घर में खाना बनता था सब मिलकर उस पर टूट पड़ते थे। ना नाना को चिंता थी और ना ही मामा को, कि इनको कहाँ घुमाकर लायें? हमारा ननिहाल तो गाँव में था, ज्यादा से ज्यादा खेत तक या रेल की पटरियों तक ही हमारी मंजिल होती थी। लेकिन अब बच्चें ननिहाल नहीं जाते अपितु ननिहाल उनके पास जरूर आ जाता है। यदि भूल चूक से कभी बच्चे आ भी जायें तो नाना-नानी की खेर नहीं, हम बोर हो रहे हैं ये शब्द अनगिनत बार सुनने को मिल जाता है। जेब बरसात की तरह टपकती नहीं अपितु बादल फटने जैसी स्थिति बन जाती है, फिर भी संतुष्टि पल भर की ही। नाना-नानी कहते हैं अगली बार हम ही आ जाएंगे। याने बच्चों के अन्दर भी उनका अपना आनन्द नहीं है। वे भी पैसे के बलबूते ही आनन्द खोजने का प्रयास कर रहे हैं।
ढूंढिये खुद को, ढूंढिये अपने आनन्द को, निकाल दीजिये अपने गुबार। फिर देखिये दुनिया को देखने का नजरियां बदल जायेगा। जितनी गप्प मार सकते हैं मारिये, जितना खेल सकते हैं खेलिये। हमारे पास कोई गप्प मारने वाला नहीं है तो यहाँ लिख-लिखकर ही अपनी मन की निकाल लेते हैं, मन को जीवन्त बनाये रखते हैं। जीवन खुशियों से भर जायेगा। बोलिये गप्प जिन्दाबाद।
जिन्दाबाद ।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, ” कंजूस की मेहमान नवाज़ी – ब्लॉग बुलेटिन ” , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है … सादर आभार !
आभार