अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

घर वापसी

Written By: AjitGupta - Mar• 07•19

कहावत है कि गंगा में बहुत पानी बह गया। हमारा मन भी कितने भटकाव के बाद लेखन के पानी का आचमन करने के लिये प्रकट हो ही गया। न जाने कितना कुछ गुजर गया! कुम्भ का महामिलन हो गया और सरहद पर महागदर हो गया। राजनैतिक उठापटक भी खूब हुआ और सामाजिक चिंतन भी नया रूप लेने लगा। कई लोग सोचते होंगे कि आखिर हम कहाँ गायब थे, क्या नीरो की तरह हम भी कहीं बांसुरी बजा रहे थे? या इस दुनिया की भीड़ में हमारा नाम कहीं खो गया था! लेकिन ना हम बांसुरी बजा रहे थे और ना ही अपने नाम को खोने दे रहे थे, बस मन को साध रहे थे। मन बड़ा विचित्र है, खुशी मिले तो वहीं रम जाता है और दुख मिले तो वहीं गोते खाने लगता है, जब समाज का ऐसा कोई रूप जो मन को झिंझोड़ कर रख देता है तो मन कुछ टूटता ही है और कभी ऐसा भी होता है कि मन अंधेरे में डूब जाना चाहता है। देश से लेकर अपने मन तक की उथल-पुथल को महसूस करती रही हूँ मैं। सब कुछ विभ्रम पैदा करने वाला है, सत्य को सात तालों के बीच छिपाने का जतन हो रहा है। जो सत्य है उसे भ्रम बताया जा रहा है और जो मृग-मरीचिका है उसके पीछे भागने को मजबूर किया जा रहा है। लोग धर्म के नाम पर अपने शरीर में बम बांधकर खुशा-खुशी मर रहे हैं कि उन्हें ऐसे किसी लोक में सारे काल्पनिक सुख मिलेंगे जो कभी किसी ने नहीं देखे! चारों तरफ मार-काट मची है, जितना मारोंगे उतना ही कल्पना-लोक के सपने दिखाये जा रहे हैं और लोग वास्तविकता से आँख मूंदकर मरने को तैयार बैठे हैं।

नासमझी हर मोर्चें पर झण्डे गाड़े बैठी है, मेरी सत्ता – मेरी सत्ता करते हुए लोग घर-परिवार से लेकर देश-दुनिया तक तबाह करने पर तुले हैं। पहले लोग आराधना करते थे, श्रेष्ठ आचरण करते थे कि श्रेष्ठ पुत्र हो और वह परिवार और राज्य पर श्रेष्ठ शासन करे लेकिन अब श्रेष्ठ को हटाने की मुहिम छिड़ी है। सुख के लिये पुरूषार्थ के स्थान पर दुख को न्यौता जा रहा है। सूर्य निकलता है और पृथ्वी के सारे रोग हर लेता है, रोग हरता है साथ ही शक्ति प्रदान करता है लेकिन अब लोग सूर्य की चाहत नहीं रखते, वे अंधेरे की कामना कर रहे हैं। खुद को शक्तिशाली बनाने के स्थान पर दूसरे की शक्ति के पक्षधर बन रहे हैं। हमने मान लिया है कि हम कमजोर हैं और हम किसी के अधीन रहने से ही सुखी हो सकते हैं। जैसे स्त्री खुद को कमजोर मान बैठी है और पुरुष के अधीन रहने में ही सुरक्षित महसूस करती है ऐसे ही कुछ लोग देश और समाज को पराधीन करने में ही सुख मान रहे हैं। आततायियों को खुला निमंत्रण दिया जा रहा है, उनका समर्थन हो रहा है, अपने रक्षकों के विरोध में लामबन्द होने का प्रयास किया जा रहा है। यही तो है सुख के स्थान पर दुख के लिये पुरुषार्थ करना।

अपने मन को टटोलने का प्रयास कर रही हूँ, कुछ सार्थक लिखना हो जाए, बस यही प्रयास है। बहुत दिनों बाद की-बोर्ड पर खट-खट की है, रफ्तार आगे ही बन पाएगी। शुरूआत के लिये इतना ही। लग रहा है जैसे घर वापसी हो रही है, अपने लोगों से मिल रही हूँ, अपने मन को परत दर परत खोल रही हूँ। जहाँ अपना मन खुल सके, वही तो अपने लोग और अपना घर होता है। मैं ही खुद का अपने घर में स्वागत कर लेती हूँ, पता नहीं कितने लोग भूल गये होंगे और कितने याद कर रहे होंगे। लेकिन अब क्रम जारी रहने का प्रयास रहेगा।

You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.

Leave a Reply