अजित गुप्ता का कोना

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#तीनतलाक – पुरुषों को पारिवारिक निर्णय से वंचित किया जाए

Written By: AjitGupta - May• 19•17

आज अपनी बात कहती हूँ – जब मैं नौकरी कर रही थी तब नौकरी का समय ऐसा था कि खाना बनाने के लिये नौकर की आवश्यकता रहती ही थी। परिवार भी उन दिनों भरा-पूरा था, सास-ससुर, देवर-ननद सभी थे। अब यदि घर की बहु की नौकरी ऐसी हो कि वह भोजन के समय घर पर ही ना रहे तब या तो घर के अन्य सदस्यों को भोजन बनाना पड़े या फिर नौकर ही विकल्प था। सास बहुत सीधी थी तो वह नौकरानी के साथ बड़ा अच्छा समय व्यतीत कर लेती थीं। कोई कठिनाई नहीं थी। लेकिन हमारी नौकरानी ऐसी नहीं थी कि हम सब उस पर ही निर्भर हों। घर में सारा काम सभी करते थे। इसलिये कोई यह नहीं कह सकता था कि यहाँ तो नौकरानी के हाथ का भोजन खाना पड़ता है। विशिष्ट व्यंजन तो अक्सर मैं ही बनाती थी। नौकरानी होने से बस मुझे सहूलियत हो गयी थी कि मेरी जगह वह काम को निपटा लेती थी और मैं निश्चिंत हो जाती थी। उन दिनों रसोई तो सारा दिन ही चलती थी, किसी को 10 बजे भोजन चाहिये किसी को 12 बजे और हमें 2 बजे। लेकिन कुल मिलाकर सब ठीक ही चल रहा था।
लेकिन एक दिन अचानक ही हमारे एक आदरणीय सामाजिक कार्यकर्ता ने मुझे कहा कि मैंने एक प्रतिज्ञा की है, कि मैं घर की गृहिणी के हाथ का बना भोजन ही ग्रहण करूंगा, नौकरानी के हाथ का नहीं। मुझे इस बात से कोई कठिनाई नहीं थी, क्योंकि हमारे यहाँ तो सब मिलजुल कर ही भोजन बनाते थे और जब किसी अतिथि को आना होता था तब तो मैं ही बनाती थी लेकिन मुझे इस बात ने सोचने के लिये बाध्य कर दिया। हम नौकरीपेशा महिला से यह उम्मीद रखते हैं कि वह नौकरी भी करे और सारे घर की सेवा भी करे, क्योंकि वह महिला है। इतना ही नहीं एक प्रबुद्ध महिला से यह उम्मीद भी की जाए कि वह सामाजिक कार्य में भी योगदान करे। मैंने इस मानसिकता के बारे में कई वर्षों तक चिन्तन किया। मैंने कभी भी किसी भी सामाजिक या धार्मिक कार्यकर्ता को यह प्रतिज्ञा करते नहीं देखा कि वह कहे कि मैं ऐसे पुरुष से अर्थ या धन नहीं लूंगा जो उसकी खरी कमाई का ना हो। लेकिन हम महिलाओं को लिये दायरे बनाने में सजग रहते हैं।
कहीं न कहीं पुरुष के मन में कुण्ठा का भाव रहता है, वह महिला को सेवा करते देख ही तृप्त होता है। यह तृप्ति यौन-तृप्ति से भी अधिक मायने रखती है। महिला पुरुष की सेवा करती रहे, उसमें हमेशा सेवा भाव बना रहे इसके लिये अनेक perception याने धारणा बना ली गयी हैं। तरह-तरह के मुहावरे घड़ लिये गये हैं। महिला जितनी शिक्षित या प्रबुद्ध होगी उसके प्रति सेवा कराने का भाव उतना ही अधिक जागृत होगा। मानो उसे यह बताने का प्रयास किया जाता है कि तुम महिला हो और तुम्हारा प्रथम कर्तव्य है हम पुरुषों की सेवा करना। अभी दो दिन पहले जब न्यायालय के सामने #kapilsibbal ने यह कहा कि महिलाएं निर्णय लेने में अक्षम रहती हैं इसलिये उन्हें अधिकार नहीं दिये जा सकते। तब मुझे लगा कि यदि मैं वकील होती तो यह कहती कि तीन तलाक के निर्णय हमेशा क्रोध में लिये जाते हैं जिसे हम जल्दबाजी का निर्णय कहते हैं और पुरुष हमेशा अपने अहम् की संतुष्टि नहीं होने पर महिला को अपमानित करते हैं और तलाक तक की नौबत आ जाती है इसलिये पुरुष जो केवल अपनी सत्ता बनाये रखने के लिये महिला को अपनी सेवा के लिये मजबूर करता है उसे तो किसी भी पारिवारिक निर्णय लेने का अधिकार होना ही नहीं चाहिये। महिलाओं को न्याय दिलाने के लिये जब तक पुरुष न्यायाधीश और पुरुष वकील होंगे, न्याय की उम्मीद क्षीण ही रहेगी। लेकिन समानता के लिए न्याय का एक कदम भी उठता है तो हम उसका स्वागत करेंगे, क्योंकि जिस असमानता के कारण महिला हजारों वर्षों से अपमानित हो रही है, जिस दुनिया को पुरुषों ने कब्जा कर रखा है, ऐसी परिस्थिति को सामान्य होने में समय लगेगा। मुस्लिम महिला को न्याय तो मिलकर रहेगा, बस कतरों-कतरों में मिलने की सम्भावनाएं अधिक है।

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