कहते हैं बचपन की कसक जीवन भर सालती है। बचपन के अभाव जिन्दगी की दिशा तय करते हैं। कभी अभाव मिलते हैं और कभी अभावों का भ्रम बन जाता है। कभी प्रेम नहीं मिलता तो कभी प्रेम का अतिरेक प्रेम को विकृत कर देता है। हमारी पीढ़ी के समक्ष तीन पीढ़ियां हैं। एक स्वयं की, एक उनकी संतान की और एक उनकी संतान की संतान की। मैंने अपने पुत्र से प्रश्न किया कि क्या कारण है कि तुम्हारा बचपन इतना सरल था और तुम्हारे पुत्र का बचपन जटिल बन रहा है। तुम्हारे बचपन में जिद नहीं थी और इनके बचपन में जिद के अतिरिक्त कुछ और नहीं है। उसका एक सीधा सा उत्तर था कि हम अच्छे थे और ये नालायक हैं। हमारी पीढ़ी से पूछो तो हम भी यही कहेंगे कि हम अच्छे थे और अब ये नालायक हैं। लेकिन यह उत्तर उचित नहीं है। यदि यही प्रश्न समाजशास्त्री से पूछा जाए तो वह कहेगा कि माता-पिता ही संतान के विकास में उत्तरदायी हैं। लेकिन मेरा अनुभव कहता है कि ना संतान जिम्मेदार है और ना ही माता-पिता। जिम्मेदार पूरा परिवेश होता है, युग होता है। राम केवल माता-पिता और स्वयं के कारण ही राम नहीं बने, अपितु उस युग के कारण और उस युग के परिवेश के कारण राम बने। इसलिए संतान के विकास को परिवेश के अनुरूप ही समझना होगा।
मेरी पीढ़ी अर्थात 1950 के बाद की पीढ़ी। उस काल में परिवार की संरचना क्या थी? भौतिक संसाधन क्या थे? शिक्षा का स्तर क्या था? इन सारे आयामों को देखना होगा। परिवार में माता-पिता के अतिरिक्त ढेर सारे परिजन होते थे। भाई-बहन होते थे। माँ के पास तो शायद हारी-बीमारी में ही जाया जाता था। सारा दिन खेलना और किसी के साथ भी खा लेना और कहीं भी सो जाना। यही कमोबेश उस युग का परिवेश था। पिता अक्सर डांटने वाला इंसान हुआ करता था, इसलिए बच्चे हमेशा दूरी बनाकर ही चलते थे। भौतिक संसाधनों में टीवी, कम्प्यूटर नहीं था। रेडियो आ गया था। घर में पानी और बिजली भी आ गयी थी। बाजार में खाने का चलन नहीं था। घर में जो भी भोजन बनता था, उसे ही खाने की परम्परा थी, कोई अन्य विकल्प था ही नहीं। परिवार में सदस्यों की संख्या अधिक होने के कारण सभी को सीमित साधनों में ही रहना होता था। जिद की गुंजाइश ही नहीं थी। यदि कभी कोई जिद करता भी था तो यह आवश्यक नहीं कि उसकी जिद उसके माता-पिता ही पूर्ण करे, परिवार के अन्य लोग भी पूरा कर देते थे। शिक्षा का स्तर भी लगभग एक जैसा ही था। सभी के लिए सरकारी स्कूल थे। पाँच वर्ष से पूर्व स्कूल में प्रवेश नहीं था, यह आयु सीमा सात वर्ष तक भी जा सकती थी। अधिकतर परिवारों में पारिवारिक व्यावसाय या खेती-बाड़ी थी इसकारण बच्चों पर शिक्षा बोझ नहीं थी। कुछ ही परिवारों में शिक्षा के प्रति जागरूकता थी। वहां भी प्रथम ही आना है, ऐसा बोध नहीं था। 60 प्रतिशत नम्बर आना पर्याप्य था।
इसके बाद आयी दूसरी पीढ़ी। हमारी संतानों की पीढ़ी। इसका काल रहा 1980 के बाद का। इस काल में परिवारों का सीमित होना प्रारम्भ हो गया था लेकिन फिर भी अमूमन परिवारों में दादा-दादी, बुआ, चाचा आदि साथ रहते थे। माता-पिता दोनों ही नौकरीपेशा होने लगे थे। लेकिन तब भी बच्चे परिवार के अन्य सदस्यों के पास अधिक समय व्यतीत करते थे। टीवी आ गया था, परिवारों में सीमित कार्यक्रमों के साथ सीमित समय के लिए देखा जाता था। शिक्षा अब तीन वर्ष से ही प्रारम्भ हो गयी थी। सरकारी स्कूल के साथ प्राइवेट स्कूलों की भरमार हो गयी थी। माता-पिता की पहली पसन्द प्रायवेट स्कूल बन गए थे। बच्चों के पास खेलने का समय कम हो गया था लेकिन तब भी खेलकूद बच्चे की पहली पसन्द ही था। बाजार और होटल का जमाना प्रारम्भ हो चुका था। खिलौनों से बाजार भरने लगे थे। बच्चों के हाथ में भी बाजार के खिलौने आ गये थे। बच्चा भी बाजार की चकाचौंध से प्रभावित होने लगा था और उसे घर से ज्यादा बाजार जाना रूचिकर लगने लगा था। संतान भी सीमित होने लगी थी इस कारण संतानों पर माता-पिता अधिक ध्यान देने लगे थे। पिता भी अब बच्चों से लाड़-प्यार करने लगे थे। इसकारण उनकी फरमाइशे पूर्ण होने लगी थी। धीरे-धीरे फरमाइशे बढ़ने लगी और साथ में जिद भी। लेकिन उस परिवेश में सभी कुछ एक सीमा तक ही रहा। शिक्षा पर अधिक बल आ गया था और केरियर का भूत भी बाहर निकल आया था। लेकिन फिर भी स्थिति भयावह नहीं थी।
अब आयी तीसरी पीढ़ी, अर्थात 2000 बाद की पीढ़ी। जिसे इक्कीसवीं शताब्दी की पीढ़ी भी कहा जा सकता है। महानगरों की पीढ़ी और विदेशों की पीढ़ी। परिवार के नाम पर केवल माता-पिता रह गए। कहीं-कहीं अपवाद स्वरूप दादा-दादी दिखायी देते भी हैं तो परिवार में उनका वजूद नहीं होता है। बच्चे के लिए निर्णायक माता-पिता ही होते हैं। बाजार की चकाचौंध उच्च स्तर तक जा पहुंची। खाने से लेकर खिलौनों तक का बाजार गर्म हो गया। कम्प्यूटर, लेपटॉप, मोबाइल हर घर की आवश्यकता बन गयी। बच्चे भी खेलकूल भूल गए और केवल कम्प्यूटर तथा मोबाइल के गेम ही उनके गेम हो गए। इन्टरनेट ने सारी दुनिया ही उनके सामने लाकर रख दी। माता-पिता की भी नौकरी है और घर के अतिरिक्त भी उनकी दुनिया है। बच्चे के लिए समय की मांग को पूरा नहीं कर सकते हैं तो उसे खिलौने और कम्प्यूटर गेम पर उलझाने का तरीका आ गया है। दादा-दादी का संग या उनकी जीवन पद्धति पुरातन हो चली है इसलिए उनसे दूर रखने की ही कवायद होने लगी। इस परिवेश में बच्चे के समक्ष केवल माता-पिता हैं और हैं उसकी फरमाइशें। जिद आसमान छूने लगी। रोज-रोज का बाजार का खाना और खाने के अनेक विकल्प बच्चों की जिद और बढ़ाने लगे। डे केयर अब एक वर्ष के बच्चे के लिए भी आवश्यक हो गए। बाहर की दुनिया से बच्चा बहुत जल्दी ही सम्पर्क में आ गया। दुनिया को पाने की ललक कम उम्र में ही पैदा हो गयी। प्राकृतिक बचपन कहीं खो गया बस कृत्रिमता रह गयी। केरियर ही प्रथम और अंतिम आवश्यकता बन गया। समाज, परिवार, रिश्ते-नाते सभी पीछे छूट गए, बस व्यक्ति अकेला रह गया। मानसिक आवेग निकलने के सारे ही मार्ग अवरूद्ध हो गए।
यह है संक्षिप्त सा विवरण, तीनों पीढ़ियों का। हमारा परिवेश प्रतिदिन बदल रहा है। परिवार अभी भी हैं, लेकिन वे निरर्थक सिद्ध हो गए हैं। जहाँ-जहाँ उच्च शिक्षा आयी है, वहाँ-वहाँ की यही कहानी है। ना पहले के बच्चे लायक थे और ना ही वर्तमान के बच्चे नालायक हैं। परिस्थितियों ने उन्हें जिद्दी बनाया है। अब इसका समाधान कहीं दिखायी नहीं देता। पहले की तरह ही संयुक्त परिवारों में इसका समाधान छिपा है, लेकिन सत्ता पति और पत्नी के पास होने से परिवार के अन्य सदस्य फालतू से हो गए हैं। जिन परिवारों में दादा-दादी हैं भी तो वे लाचार से दिखायी देते हैं। उनका प्रत्येक व्यवहार तिरस्कार बन जाता है। कैसे दादा-दादी या नाना-नानी का व्यवहार रहता है और कैसे उन्हें तिरस्कार मिलता है, यह भी नवीन पोस्ट की सामग्री हो सकती है। लेकिन अभी केवल बच्चों की बढ़ती जिद पर ही यदि केन्द्रित किया जाए और कारण ढूंढ लिए जाए तो शायद कुछ आसानी होगी। आप सभी की क्या प्रतिक्रिया है?
इतने ऑप्शन,इतना विज्ञपन,आपसी होड़ -कमाई और खर्च में(बच्चे अपने मता-पिता की कमज़ोरियाँ और मजबूरियाँ खूब समझते हैं और फ़ायदा उठाते हैं),जीवन मे इतना खुलापन ,और दिखावा ऊपर से परिवार में साथ कम अकेलापन ज़्यादा,नैतिक शिक्षा और सदाचार -व्यवहार के पाठ कहीं से नहीं, रास्ता विषम – सबका परिणाम उलझा हुआ जीवन!
हो सकता है अधिक सोच गई होऊं ,एकाध निकाल दें तो भी चलेगा .
प्रतिभा जी, आप कुछ भी ज्यादा नहीं सोची हैं, न जाने कितने आयाम है वर्तमान जीवन शैली के? लेकिन यह सच है कि सारे ही बच्चे की जिद बढ़ाने वाले हैं।
सही कहा। समय के साथ परिस्थितियां बदलती हैं और जीवन शैली भी। दोष किसी का नहीं। लेकिन फिर भी प्रयास जारी रहना चाहिए।
अजित गुप्ता जी नमस्कार इस देश ,वेश, नारी , नर , जिव जंतु , जल , आकाश , धरती वेश , भूषा , खान , पान , रहन . सहन , प्रक्रति सब कुछ तो बदल गया है और इस के साथ ही इस प्रक्रति ने भी इस ज़माने के हिसाब से अपने आप को बदल लिया है हम सब दोष तो ज़माने को देते है की जमाना बदल गया है पर सच मैं हम लोगो ने ही इस ज़माने को बदल ने पर मजबूर किया है वो समय भी दूर नहीं जब ये आधुनिक वस्तु वे जो अभी बड़ी आराम और अच्छी लगती है ये ही हमारी मुसीबत बनेगी क्यूँ की कोई भी वस्तु हो या फिर कुछ भी अत्यधिक इस्तेमाल से भारी नुकसान ही भुगतना पड़ता है आज हम ग्लोबल वोमिंग का तो हाल देख ही रहे हैं
वो दिन दूर नहीं
आप से आशा करता हूँ की आप एक बार मेरे ब्लॉग पर जरुर अपनी हजारी देंगे और
दिनेश पारीक
मेरी नई रचना फरियाद
एक स्वतंत्र स्त्री बनने मैं इतनी देर क्यूँ
युग कहें या काल कोई भी हो उनकी सोच में अलगपन होना स्वाभाविक है क्योकि मुंडे मुंडे मतिर भिन्ना कुंडे कुंडे नवम पयः की स्थिति सदैव होती है .काल के साथ पात्र अर्थात पीढ़ी की सोच कहें या सम सामयिक मांग का प्रभाव सदैव परिलक्षित होता है …वह धनात्मक या रिनात्मक कुछ भी हो सकता है …
जिद पूरी करें मगर मजबूती के साथ , भयभीत न हों न दिखें ! बच्चों को संतुलन सिखाना हमारा ही दायित्व है !
अपने बड़ों के प्रति उपेक्षा का रवैया , भविष्य में हमारे तिरस्कार का रास्ता प्रशस्त कर देता है !
अजीत जी ,
आपने कितनी सहजता से विश्लेषण कर दिया परिवेश का …. सच ही आज सब केवल स्वयं तक ही सीमित रह गए हैं , हमारी पीढ़ी अब एक बोझ सरीखी ही रह गयी है …. साथ रह कर भी साथ नहीं लगता । सोचने पर मजबूर करता लेख …
आलेख का विषय एक कटु सत्य है. पर लगता है यह एक उफ़नती नदी की तरह बेकाबू है. चाहे अनचाहे ये नासूर की तरह बढता ही जा रहा है, फ़िर भी प्रयत्न तो करते रहना पडेगा.
रामराम.
परिवार के अलावा परिवेश का तो बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है क्योंकि वो स्वतंत्र अवस्था में अधिकाँश समय उस माहोल में ही बिताता है .,..एक फेक्टर इस के अलावा भी है ओर वो है बच्चे की ग्रहण शक्ति … कई बार बच्चे मानना ही नहीं चाहते जो अभिवाहक कहना चाहते हैं …
दिगम्बर जी, आपने नया बिन्दु निकाला है – ग्रहण शक्ति। जिद के पीछे कई बार यह कारण भी प्रमुखता से रहता है। उनकी रचना-प्रक्रिया में ही शायद अन्तर है।
बहुत बढ़िया आदरेया-
अच्छी तुलना-
एक चित्र इस कुंडली में-
पानी बिजली आ गई, बढ़ी जरुरत मूल |
इक-जुटता परिवार की, अब भी रहा उसूल |
अब भी रहा उसूल, अभी तक बिजली रानी |
रही जरुरत मूल, विलासी नहीं निशानी |
सरकारी इस्कूल, पढो घूमो मनमानी |
मरा नहीं अब तलक, मित्र आँखों का पानी ||
अच्छा लेख लिखा है। अब आगे के लेख का इंतजार करते हैं!
मैड फेक्टर ,होम वर्क का स्पेक्टर ,होबी क्लास कहीं स्केटिंग कहीं संगीत के पाठ समर स्कूल मरने की फुर्सत नहीं है बित्ते सी जान को .सुबह होने से पहले स्कूल के लिए लदो .नाश्ते का भी वक्त
कहाँ .वो बस आई मुंह की रोटी मुंह में भागो भागो भागो …..जिद्दी नहीं करुना के पात्र बन रहें हैं बच्चे जिद तो उनकी हताशा का परिणाम है .ऊपर से कार्टून फिल्म का नशा ,नेट का नशा ,होश कहाँ
,सेहत कहाँ .खाने का रंग देखने तक का वक्त नहीं .चिपको चिपको टेलीविजन से चिपके रहो बस मुंह चलाते रहो ग्रास मम्मी या मैड मुंह में टपकाती रहेगी .लगे रहो डेट रहो ….होबी क्लास का
वक्त हो गया .पूरा सो भी नहीं पा रहें हैं बच्चे .
वीरेन्द्र शर्मा जी आप सही कह रहे हैं। बड़ा अजीब सा जीवन है, जो आजकल के बच्चे जी रहे हैं।
एकदम सटीक रेखांकन किया है आपने …… पूरा परिवेश ही बदल गया है , परिणाम दिख ही रहे हैं | इस बदलते परिवेश और पारिवारिक सामाजिक माहौल की जिम्मेदारी भी हमें ही लेनी होगी…..
बातें एकदम दुरुस्त हैं। समस्या सारी एक दूसरे से इस तरह गुंथी हुई हैं कि एक को सुलझाएंगे तो साथ में दूसरी को सुलझाना पड़ेगा। पर इसके लिए रुका नहीं जा सकता। वैसे बदलता परिवेश हर पीढ़ी को पूर्व की पीढ़ी से अलग रहने खाने कार्य करने का मजबूर भी करता है। तेजी से बढ़ते शहर…छोटे होते घर…..बढ़ती मंहगाई .. समय का अभाव आपको अपनों से दूर करता जा रहा है..महज कुच किलोमीटर पर रहने वाले भाई-बहनों से हफ्ते महीने में मुलाकात हो जाती है पर रिश्तेदारों से मिलना या दोस्तों के घर परिवार सहित जाना तो असंभव सा हो गया है।
आप की इस बात से सहमत हूँ की आस पास के परिवेश का बहुत ही फर्क पड़ता है , बच्चे घर से ज्यादा बाहर से सिखते है , इसी कारण अब माता पिता उन्हें किसी स्कुल संस्थान आदि में भेजने से पहले देखते है की वहा कैसे बच्चे आ रहे है किन घरो के बच्चे आ रहे है क्योकि परिवेश का फर्क तो है किन्तु परिवार ख़त्म नहीं हो गया है आज भी परिवार के सिखाये मूल्य ही बच्चे में होते है , अपने आस पास देखा है कितने ही बच्चे है जो जिद्दी है और न जाने कितने ही है जो बहुत ही शांत और समझदार है , सामान्य बच्चे है , क्योकि उनमे माता पिता ऐसे है , जो बच्चो पर ध्यान देते है की वो क्या सिखा रहे है , सारी माये बाहर काम नहीं कर रही है , बहुत ही कम प्रतिशत है , बल्कि उन माँ का प्रतिशत बहुत ही ज्यादा है जो बच्चो के लिए काम छोड़ देती है एक तो मै खुद हूँ दुसरे मेरे साथ ही मेरी 8=10 मित्र है और आस पास न जाने कितनो को देखा रही हूँ आप का आकलन इस बारे में सही नहीं है । आज स्थितिया बदल गई है अब बच्चे पिता से नहीं माँ से डरते है , आज कल की माये अनुशाशन और बच्चो के ठीक व्यवहार को लेकर काफी सख्त होती है , आज बच्चो को पिता भी माँ के नाम से डराते है , घर का अनुशासन पत्निया , माँ ठीक रखती है ।
अंशुमाला जी, मैंने तो कोई आकलन ही नहीं किया। बस मैंने तीन पीढियों के बच्चों की एक झलक बतायी है और आप सभी में विमर्श कर रही हूँ कि ऐसे क्या कारण है जो बच्चे जिद्दी बन रहे हैं? आप सही कह रही हैं कि कुछ बच्चे निहायत ही शान्त है, यह प्रभाव वंशानुगत भी होता है। लेकिन जहाँ पूर्व में अधिकांश बच्चे जिद्दी नहीं थे, वर्तमान में उनका प्रतिशत बढ़ रहा है। आपने अच्छा किया की नहीं, अपनी नौकरी छोड़कर, यह भी बहस का विषय हो सकता है। क्योंकि नौकरी करने वाले लोग भी यही कहेंगे कि हम भी समय दे रहे हैं। यह बात सत्य है कि आज पिता से अधिक माँ से डर लगने लगा है। यह विमर्श है, इसमें सारे ही पहलू आने चाहिए। मैंने तो सीमित पहुलुओं पर बात की है, हम सब मिलकर ही इसे विस्तार देंगे।
sabhi bate sahi he samsaye gambhie he .per ishka nidan nahi batya he. vah bhi app batyae to aar acha legega.
अरुण डागा जी, निदान मेरे पास नहीं है, शायद हम सब मिलकर इसे खोज सकते हैं। इसलिए ही यहाँ विमर्श है। बस समाज में यह पहलू भी आना चाहिए, इसलिए लेखक अपनी बात लिखता है। जब नवीन पीढ़ी इस तथ्य को अनुभूत करेगी तो कुछ हल निकल सकता है। अनुभूत तभी करेगी जब समाज में इस विषय की चर्चा होगी।
सार्थक विश्लेषण किया है.
बहुत अच्छा topic है,बच्चे हर युग में ज़िद्दी ,समझदार,लायक,नालायक या शैतान हुए है और होते रहेंगे ।यह सही है कि बच्चे की परवरिश में माहौल का बड़ा योगदान रहता है,पहले भी परिवार की परम्परा अनुसार ही बच्चे ढल जाते थे ।आज कल बच्चों का घर से बाहर के माहौल का exposure भी नियमित है ,कब कहाँ जाना है सब निश्चित है,बच्चे प्राकृतिक माहौल में नहीं पल रहे है,बच्चों को माॅ बाप क्या बनाना चाहते है उस ही हिसाब से उनका schedule तय किया जाता है ।खाना पीना भी कम समय में जो आसानी से बन जाए ,पर मैने जहां तक देखा है आजकल की मां nutritious &healthy खाने का ध्यान रखती है over all personality development पर ध्यान दे रही है ।,पहले घर के सदस्यों के अलावा भी अड़ोस पड़ोस का बहुत प्रभाव पड़ता था,कभी अच्छा कभी बुरा भी,वही बच्चे के विकास की प्रयोग शाला थी,पिता के निर्देश के अनुसार चलना होता था ,ख़ुद की मर्ज़ी का कोइ माने नहीं होता था ।आज के विभिन्न साधनों T.V,Computer,आदि के exposure से parents भी ज़्यादा सचेत हो गए है ,इसलिए मुझे नहीं लगता कोइ चिंता करने की ज़रूरत है ।
waqt badla , mahoul badla , soch badli ………. Anavashyak raruraten badi ……. anavashyak tareeke se unhen poora kiya gaya
तीनों पीढियों को देख रहे हैं और गुन रहे हैं कि चौथी आकर क्या गुल खिलायेगी।
बहुत बढ़िया रचना पढ़ वाई है आपने .बहुत खूब .शुक्रिया आपकी टिपण्णी का .आज तीसरी (हमारे बच्चों के बच्चे )और हमारी (पहली पीढ़ी )पीढ़ी में पचास साल का फासला आ गया है .बच्चे रील दुनिया में बड़े हो रहे हैं .रीयल दुनिया कुछ और है .दंश झेल रहें हैं .
कोई शक नहीं की परिस्थितियां बदली है , परिवार भी …मगर अकेले रहकर भी बच्चों को अच्छे संस्कार और वातावरण दिया जा सकता है , बल्कि मैंने तो संयुक्त परिवार में जिद्दी बच्चों को ज्यादा देखा है !!
आज फ़ास्ट फ़ूड का ज़माना है। सब जल्दी में हैं .. धैर्य की कमी है या समय की??
तीन पीढ़ियों का बहुत सही विश्लेषण किया है और हम अपने सामने ही तीनों पीदियों में आ रहे बदलाव को महसूर कर रहे है.
आज आर्थिक सम्पन्नता के चलते बच्चों के जीने और शौक के आयाम विस्तृत हो चुके हैं लेकिन संस्कारों की महत्ता कम दिखने लगी है . यही सामाजिक परिवर्तन है.
very well described