सुदृढ़ हवेलियों को जब वीराना अपनी चपेट में ले लेता है तब किसी कोने में पीपल का पेड़ फूट आता है। धीरे-धीरे पेड़ विस्तार लेने लगता है और हवेली खंडहरों में तब्दील होने लगती है। हमारे मन के अन्दर भी एक मजबूत हवेली हुआ करती थी, इस हवेली की नींव हमारे पुरखों ने डाली थी। परत दर परत उस पर संस्कार का लेप किया था, लेप की हर बूंद से एक ही आवाज आती थी कि हमारे माता-पिता सर्वोच्च हैं। हमें उनके साये में ही सुरक्षित रहना है। काल ने करवट बदली, नवीन सूरज उग आया। बुजुर्गों के साये तले रहना, अंधेरे में रहने समान लगने लगा। अब तेरा सूरज अलग और मेरा सूरज अलग का भाव आ गया। हवेली की संस्कार रूपी परते झरने लगी। देखते ही देखते हवेली वीरान हो गयी। माता-पिता के सर्वोच्च होने का भाव एक ही झटके में दरक गया। इस संस्कार को धकेल कर हवेली में पीपल का पेड़ उग आया। अब नवीन पेड़ सब कुछ हो चला और पुरातन हवेली कुछ ना रही।
ऑफिस में भी जहाँ पहले सर या मेडम हुआ करते थे अब दोस्ती के रिश्ते समान सम्बोधन हो गये हैं। घर परिवार से निकलकर कार्यस्थल पर भी समानता का कब्जा है। जिस पीढ़ी ने पुरानी आबोहवा में साँस लेना सीखा था वे नवीन परिवर्तन को समझ नहीं पा रहे हैं, उनका दिल और दिमाग उसी युग में फ्रिज हो गये हैं और जिद पर अड़ गये हैं कि यह हमें मान्य नहीं। हर ओर द्वन्द्व छिड़ गया है। दिल और दिमाग में भी द्वन्द्व है। दिमाग कहता है नवीन परिवर्तन को स्वीकार करो लेकिन दिल है कि मानता नहीं। सब अपने अपने अधिकारों की चिन्ता करने लगे हैं, लेकिन किसी भी समूह के लिये आवश्यक शासन प्रणाली की आवश्यकता के लिये कोई प्रतिबद्ध दिखायी नहीं देता। पुरातन हवेली पर जबरन पीपल का पेड़ उगा देने की चाह उत्पन्न होने लगी है। कैसे खरोचकर फेंक दें, सदियों से जमें संस्कारों को, एक ही पल में?
एक छोटी सी बच्ची प्रश्न कर उठती है – मम्मी-पापा मेरा कहना क्यों नहीं मानते? मैं ही उनका कहना क्यों मानू? इस प्रश्न में वर्तमान सोच परिलक्षित हो रही है। अब हम बड़े होने का लाभ नहीं ले सकते। हमें संतान को पालना भर है, उसके संस्कारों की चिन्ता करने का हक हमारे पास से निकल गया है। विदेश में यह दिखायी भी देता है। हम बात-बात में हर क्रिया कलाप में बच्चों को सभ्य नागरिक बनाने का प्रयत्न करते हैं, लेकिन विदेशों में अब बच्चों को टोकने पर रोक है। देश को सुन्दर उपवन बनाने के स्थान पर प्राकृतिक वनांचल बनाने पर जोर है। अब घर नहीं होंगे अपितु ये सराय समान होंगे, जहाँ केवल रात बितानी है। परिवार की सारी उष्मा को केन्दित कर दिया गया है, स्त्री और पुरूष की जिस्मानी जरूरतों में। अब एक-दूसरे के लिये कुछ करने के भाव को विस्मृत किया जा रहा है, रिश्तों को तोड़ने की, उन्हें नकारने की मुहीम चल पड़ी है। ऐसे में कौन अपना और कौन बेगाना है, पहचान करना कठिन है। अब कौन किसका सम्मान करेगा और कौन किससे अपेक्षा करेंगा, हिसाब का खेल मात्र बनकर रह जायेगा। मोह का स्थान स्वार्थ ले लेगा और अपनापन कहीं ढूंढने से भी दिखायी नहीं देगा। अब हम कैसे कह सकेंगे कि ये मेरे बड़े भाई हैं या मेरी बड़ी बहन है, जब सबसे बड़ा रिश्ता माता-पिता का ही कदमों तले रौंद दिया जायेगा। दादा-दादी, चाचा-ताऊ के रिश्ते तो दूर की कौड़ी ही बनकर रह जाएंगे।
बस हमारी पीढ़ी धकेलती रहेगी पीपल के पेड़ को जो हमारी हवेली जैसे मन में जबरिया उग आये हैं लेकिन कब तक? वीरान हवेली अपनी रक्षा कब तक कर पायेगी? नवीन विचार तो फूट कर ही रहेगा। सारी दुनिया जब इस विचार को ही श्रेष्ठ मान रही है तब मेरी पीढ़ी इसे कैसे रोक पायेगी? उगने दो मेरी हवेली में भी पीपल की इन शाखों को, हवेलियाँ खण्डहर होती रही हैं और होती रहेंगी। अब इनसे मोह कैसा? अब बिसर जाने दो – सम्मान का मोह, अब परे धकेल दो मेरेपन का भाव, अब मत सोचो किसी को संस्कार देने की बात। अब तो बस स्वयं में ही जीवन की तलाश करनी है। केवल जीवन, बिना कर्तव्य बोध का जीवन, अपनी-अपनी चारदीवारी में घिरे सूरज के साथ का जीवन। बिना टोका-टाकी का जीवन, बिना परामर्श का जीवन। बस तेरा जीवन मेरा जीवन।
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