अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

तेरे लिये मैं क्या कर सकता हूँ?

Written By: AjitGupta - Jul• 31•17

बादल गरज रहे हैं, बरस रहे हैं। नदियां उफन रही हैं, सृष्टि की प्यास बुझा रही हैं। वृक्ष बीज दे रहे हैं और धरती उन्हें अंकुरित कर रही है। प्रकृति नवीन सृजन कर रही है। सृष्टि का गुबार शान्त हो गया है। कहीं-कहीं मनुष्य ने बाधा पहुंचाने का काम किया है, वहीं बादलों ने ताण्डव मचा दिया है, नदियों में बाढ़ आ गयी है और जल अपने सहस्त्रों हाथों से बाधाओं को दूर करने में लगा है। कहीं मनुष्य की हठधर्मिता विनाश लिये खड़ी है तो कहीं बादलों का रौद्र रूप हठधर्मिता को सबक सिखाने को तैयार खड़ा है। प्रकृति और पुरुष, नदियाँ और बादल सृष्टि का नवीन श्रृंगार करने को तत्पर हैं लेकिन धरती के एक प्राणी की मनमर्जी उन्हें मंजूर नहीं। वे अपने कार्य में किसी को बाधक नहीं बनने देंगे, जो भी उनका मार्ग रोकेगा, वे ताण्डव करेंगे और उनका रौद्र रूप मनुष्य को त्राही माम् त्राही माम् करने पर मजबूर करेगा। इन्हें विसंगति नहीं चाहिये, संतुलन चाहिये। प्रत्येक प्राणी में संतुलन, प्रत्येक जीवन में संतुलन, प्रत्येक तत्व में संतुलन। ये जो वर्षा ऋतु है, इसी संतुलन की ओर संकेत करती है। हमें बता देती है कि हमने कहाँ प्रकृति को बाधित किया है। उसके एक्स-रे में कुछ नहीं छिपा है, सारा चित्र सामने आ जाता है। बाधा को तोड़ने बादल बरस उठते हैं, कहीं-कहीं अति होने पर बादल फट भी जाते हैं लेकिन बाधा को इंगित कर ही देते हैं। वे अपनी सहयोगिनी नदियों को आह्वान करते हैं कि प्रबल वेग से बह जाओ और बाधाओं को दूर कर दो।
मनुष्य ने धरती को बाधित कर दिया है, उसकी स्वतंत्रता को छीन लिया है। चारों तरफ पहरे हैं, नदियों से कहा जा रहा है कि हम बताएंगे कि तुम्हें किस मार्ग से बहना है। समुद्र को भी कहा जा रहा है कि हम तुम्हारे सीने पर भी अपना साम्राज्य स्थापित कर सकते हैं। पहाड़ जो धरती के रक्षक थे, उन्हें भी प्रहरी बनने से रोका जा रहा है, उन्हें नष्ट करके रक्षक की भूमिका से वंचित किया जा रहा है। रोज ही न जाने कितनी प्रजातियों को नष्ट किया जा रहा है। मनुष्य अपने विलास के लिये सृष्टि को लील रहा है। इसलिये वर्षा ऋतु में मनुष्य और प्रकृति का संघर्ष होता है। मनुष्य अपनी जिद पर अड़ा है, प्रकृति हर बार संदेश देती है लेकिन मनुष्य ठीट बन गया है। वह प्रकृति का सम्मान करना ही नहीं चाहता तो कब तक प्रकृति उसे क्षमा करती रहेगी? इस विशाल सृष्टि पर प्रकृति ने अनेक सम्भावनाएं प्रदत्त की हैं, मनुष्य सहित प्रत्येक जीवन को जीने की स्वतंत्रता दी है सब कुछ संतुलित है। संतुलन बिगाड़ने के उपक्रम में ही विनाश है। इसे रोकने लिये सुदृढ़ प्रशासन चाहिये। अनुशासन हमारे जीवन का आधार होना चाहिये। कम से कम हम अपने स्वार्थ के लिये धरती को बाधित करने का प्रयास ना करें, सृष्टि के संतुलन को बिगाड़ने का कार्य ना करे। यदि हमनें स्वयं को अनुशासित कर लिया तो फिर ऋतु आने पर बादल नहीं फटेंगे, नदियाँ सैलाबी नहीं बनेंगी और तटबंध तोड़कर जल, प्रलय को नहीं न्योता दे बैठेगा। इस वर्षा ऋतु को आनन्दमयी बनाइये, धरती को पुष्पित और पल्लवित होने दीजिये। सावन जाने में है और भादवा आने में है, बस इस सुन्दर धरती को निहारिये और इससे पूछते रहिये कि बता तेरे लिये मैं क्या कर सकता हूँ?

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