औरंगाबाद से 120 किमी की दूरी पर स्थित अजन्ता गुफाएं भारतीय कला और संस्कृति की अनूठी मिसाल है। यह अद्भुत ही नहीं अपितु आश्चर्यचकित करने वाली हैं। दो किलोमीटर के दायरे में फैले पहाड़ के गर्भ में अनेक गुफाओं को कलाकारों ने इस प्रकार से तराशा है कि वे विश्व के आश्चर्यों में चाहे शामिल नहीं की गयी हो लेकिन वे किसी भी आश्चर्य से कम नहीं हैं। लेकिन इन्हें भारत के सात आश्चर्यो में अवश्य गिना जाता है। इसी प्रकार औरंगाबाद से 20 किमी की दूरी पर स्थित है एलोरा की गुफाएं। अजन्ता की गुफाएं जहाँ बौद्धदर्शन को प्रतिबिम्बित करती हैं वहीं एलोरा की गुफाएं बौद्ध, जैन और हिन्दु दर्शन को उकेरती हैं। गुफाएं 5वीं शताब्दी के बाद की बतायी जाती हैं। इन्हें 1819 में खोजा गया। विकीपिडिया में इनका वर्णन मौजूद है।
मुझे एक मीटिंग के सिलसिले में नाशिक जाना था, औरंगाबाद वहाँ से 4 घण्टे की दूरी पर था। मैंने निश्चय किया कि अजन्ता और एलोरा अवश्य देखना है। नाशिक स्थित अपनी मित्र को कहा कि कैसे भी हो इस बार इन गुफाओं को अवश्य देखेंगे। उन्होंने ही पूरा कार्यक्रम बनाया और फिर मेरी एक और मित्र हमारी यात्रा में जुड़ गयी। अब हम तीन महिलाएं थी, इस यात्रा के लिए तैयार और उत्सुक भी। नाशिक से हम बस के द्वारा औरंगाबाद पहुंचे और फिर औरंगाबाद से एक टैक्सी की गयी और निकल पड़े अजन्ता की ओर। हम मंगलवार को दिन के 10 बजे औरंगाबाद पहुँचे हमारी योजना थी कि पहले एलोरा देखेंगे क्योंकि वह केवल 20 कीमी की दूरी पर ही स्थित है लेकिन हमारे ड्राइवर ने बताया कि आज अजन्ता चलेंगे क्योंकि एलोरा मंगलवार के दिन रख रखाव के कारण बन्द रहता है। अजन्ता सोमवार को बन्द रहता है। अब हमारे पास समय की कमी थी इसी कारण बिना देर किये हम अजन्ता की ओर निकल पड़े। पूरे दो घण्टे हमें अजन्ता पहुंचने में लगे। गुफाओं से 4 किमी दूर ही गाड़ी को रोक लिया गया, वहाँ से आगे की यात्रा आर्केलोजिकल विभाग की बस द्वारा ही की जाती है। हमें बताया गया कि गुफाओं के पास ना तो भोजन की सुविधा है और ना ही टायलेट की। अत: हमने वहीं एक रेस्ट्रा में गर्मागर्म आलू के परांठे खाए और चल दिए बस में बैठकर गुफाओं की ओर। गुफाओं के लिए टिकट भी है लेकिन वह इतना कम था कि उल्लेखनीय ही नहीं है। गुफाएं पहाड़ी पर स्थित हैं और पहाड़ पर थोड़ी चढ़ाई भी है। जैसे ही हमने चढ़ाई प्रारम्भ की, कुछ पालकी वाले वहाँ आ गए। हमसे अनुरोध करने लगे कि पालकी ले लो क्योंकि दो किमी की चढ़ाई है। हम तीनों ही महिलाएं कमोबेश 60 वर्ष की आयु की थी। लेकिन सभी चुस्त और तंदरूस्त। दिन का 1 बज चुका था लेकिन मौसम सुहावना था। हमने पालकी वाले का प्रस्ताव ठुकरा दिया और अपने पैरों पर ही भरोसा व्यक्त किया। पालकी वालों ने हमें भ्रमित करने के पूरे प्रयास किये लेकिन हमारी दृढ़ इच्छाशक्ति के कारण उनका प्रयास विफल हो गया। कुछ ही मिनटों में समझ आ गया कि हमने समझदारी की है। चढ़ाई बहुत ज्यादा नहीं थी। बस गुफाओं में जाने के लिए सीधी चढ़ाई के लिए सीढ़िया थी। वे थका देने वाली थी लेकिन फिर भी हमारा उत्साह कम नहीं हुआ। गुफाओं में बौद्धकालीन मूर्तियां, बौद्धस्तूप भव्य रूप में बने हुए थे। गुफाओं की दीवारों पर पेन्टिंग थी जो बड़ी मात्रा में नष्ट हो गयी थी। गुफाओ में प्रकाश के लिए रोशनी की व्यवस्था भी की गयी थी लेकिन कारीगरी को देखने के लिए साथ में लेजर टार्च की आवश्यकता थी। केमरे का प्रयोग पूर्णतया: वर्जित नहीं था, बस फ्लेश चमकाने की मनाही थी। इसलिए बहुत ही कम अवसर थे जब अंदरूनी भाग की फोटो ली जा सकती थी। गुफाओं में जूते पहनकर जाना भी वर्जित था। लेकिन एलोरा में यह देखकर दुख हुआ कि वहाँ जैन और हिन्दु दर्शन की गुफाओं में जूते पहनकर जाना वर्जित नहीं था। जबकि वहाँ जैन और वैष्णव सम्प्रदाय की मूर्तिया स्थापित थी। इसलिए आर्केलोजिकल विभाग को यहाँ भी जूते पहनकर प्रवेश को अनुमति नहीं देनी चाहिए।
शताब्दियों की कला को कोई धार्मिक उन्माद में क्षणभर में खण्डित कर दे तो यह सम्पूर्ण मानवता पर कलंक है। यही देखकर अपार दुख हुआ जब विशाल मूर्तियों को खण्डित पाया और यह सब औरंगजेब के काल में हुआ। कला पर हथौड़ी चलाना ऐसा ही है जैसे परिष्कृत व्यक्तित्व पर आघात करना। कला चाहे मूर्ति के रूप में हो या फिर किसी मकबरे या महल के रूप में, कला कला ही होती है। अजन्ता और एलोरा की गुफाएं देखकर भारत के मनीषियों के प्रति गौरव का भाव जागृत होता है। हम पाँचवी शताब्दी में कितने सुसंस्कृत और कलापूर्ण थे इसका आभास इन गुफाओं को देखकर होता है। न जाने कितने कलाकारों ने अपना जीवन कला को समर्पित कर दिया होगा। इन गुफाओं का निर्माण 200 से 300 वर्षों तक होता रहा। कितनी पीढ़ियों ने अपना सबकुछ समर्पित किया होगा! विशाल पर्वत को काटकर गुफाओं का निर्माण या फिर प्राकृतिक गुफाओं को कला द्वारा उच्च आयाम देना कलाकार का लक्ष्य रहा होगा। दुनिया की किसी भी सभ्यता का इतिहास इतना पुराना नहीं है जितनी पुरानी हमारी कला और संस्कृति है।
कहते हैं कि कृष्ण सोलह कलाओं में प्रवीण थे इसीलिए उन्हें पूर्ण पुरुष कहा गया। वर्तमान में कलाओं को विस्मृत किया जा रहा है। आज का सामान्य व्यक्ति कला के नाम से भी अनभिज्ञ है। पुरातन काल में कला ही व्यक्तित्व का आधार थी। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति अक्षुण्ण रही है। आज हम केवल विज्ञान के सहारे आजीविका प्राप्त करते हैं लेकिन स्वयं की कला या हुनर हमारे पास नहीं है। ऐसे में हमारा अस्तित्व संकट में नहीं होगा तो क्या होगा? कलाकार जंगल में चले गया, उसके अपनी कूंची और छेनी-हथौड़ी उठायी और लग गया साधना में। कितने ही लुटेरे आए, कितने ही धर्मांधता की आँधी आयी लेकिन कलाकार, कला के रूप हमेशा जीवित रहा। भारतीयता हमेशा कला के रूप में विश्व के समक्ष जीवित रही। कभी हमने वेद लिखे, कभी उपनिषद लिखे, कभी पुराणों की रचना की, कभी विशाल मन्दिर बनाए, कभी गुफाओं को सुन्दर आकार दिया। कभी संगीत को आकाश दिया तो कभी नृत्य से धरती को डांवाडोल कर दिया। भारतीय दर्शन में आजीविका द्वारा उदर-पोषण करने वाले को शूद्र की संज्ञा दी और कलाकार को पूर्ण पुरुष माना। वर्तमान में हम सब कहाँ खड़े हैं इसका अवलोकन अवश्य करना चाहिए। बिना कला के हमारी आत्मा कितनी शुष्क हो चली है इसे भी कभी अनुभूत करना चाहिए। अजन्ता और एलोरा विश्व धरोहर हैं, हमारे गौरव हैं, इन्हें सुरक्षित रखना और इनसे प्रेरणा लेना ही हमारा कर्तव्य होना चाहिए। इस अनूठे निर्माण को जीवन में एकबार अवश्य देखना चाहिए और स्वयं को भारतीय होने पर गौरवान्वित करना चाहिए।
आपके लेख को पढ़ कर उन कलाकारों कि याद आयी है जिन्होंने यह सुंदर कलाकृतियां ( पेंटिंग्स ) बनायी हैं !
आभार आपका !
औरंगाबाद से 120 किमी की दूरी पर स्थित अजन्ता गुफाएं भारतीय कला और संस्कृति की अनूठी मिसाल है। यह अद्भुत ही नहीं अपितु आश्चर्यचकित करने वाली हैं। दो किलोमीटर के दायरे में फैले पहाड़ के गर्भ में अनेक गुफाओं को कलाकारों ने इस प्रकार से तराशा है कि वे विश्व के आश्चर्यों में चाहे शामिल नहीं की गयी हो।।।।।हों …हों ……. लेकिन वे किसी भी आश्चर्य से कम नहीं हैं। लेकिन इन्हें भारत के सात आश्चर्यो में अवश्य गिना जाता है। शेष पोस्ट को पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें –
मुझे एक मीटिंग के सिलसिले में नाशिक …………..(नासिक )………..जाना था, औरंगाबाद वहाँ से 4 घण्टे की दूरी पर था।
हम मंगलवार को दिन के 10 बजे औरंगाबाद पहुँचे हमारी योजना थी कि पहले एलोरा देखेंगे क्योंकि वह केवल 20 कीमी।।।।किमी …………किलोमीटर …… की दूरी पर ही स्थित है लेकिन हमारे ड्राइवर ने बताया कि आज अजन्ता चलेंगे क्योंकि एलोरा मंगलवार के दिन रख रखाव के कारण बन्द रहता है। अजन्ता सोमवार को बन्द रहता है। अब हमारे पास समय
कला और संस्कृति विहीना प्राणि विकास की आदिम अवस्था में ही रह जाता है .परिष्करण हैं कलाएं चाहें फाइन आर्ट्स हों,ललित कलाएं हों या या परफोर्मिंग आर्ट्स संगीत और नृत्य .दर्शन और सहानुभूति से आप्लावित है आपकी पोस्ट .
नवाबों के बिगडैल लौंडों को इसीलिए थोड़ी तहजीब सीखें के लिए मुजरे वालियों के पास भेजा जाता था .
अजंता गुफाओं के बारे में बस जितनी भी जानकारी है पढ़ कर ही मिली है ….. सच है हम अपनी संस्कृति से विरक्त होते जा रहे हैं … उस काल में सुविधाएँ भी नहीं थीं तब कितना दुरूह कार्य होगा मूर्तियों को बनाना ….. आभार इस लेख के लिए .
सदियों की संस्कृति पर हथौड़ा, कोई इतिहास को इस ढंग से भी सोचे अब।
भारत में है इसलिए बच गए अफगानिस्तान में तो पूरी तरह ही नष्ट कर दी गई है वो भी 12 वि सदी में ।
दस वर्षो से हम इनके इतने पास रह रहे है फिर भी आज तक नहीं जा पाए देखेने के लिए ।
जानकारी भरी पोस्ट के लिये आभार
थोडा सा समय निकलकर आपको जल श्रोतों को भी देखना था . अँधेरी गुफाओं में सुन्दर मूर्तियों को किस रोशनी में तराशा गया होगा .
सही कहा . कला किसी भी धर्म , वर्ग या समूह तक सीमित नहीं होती . उसका सम्मान करना ज़रूरी है . दुःख होता है यह दुर्दशा देखकर .
इस तरफ कभी जाना नहीं हुआ .
वाह…
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (14-10-2012) के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!
आपके इस ट्रावेलौग को पढकर लगा बिलकुल ऑन द स्पॉट रिपोर्टिंग है.. लगा वहीं हैं हम और आपकी नज़रों से सब देख रहे हैं.. उन प्राचीन कलाकृतियों के विषय में तो यही कहा जा सकता है कि वे हमसे बेहतर थे और दरअसल हमने विकास किया ही नहीं है.. कहाँ हडप्पा और मोहन्जोदारो की वो गलियाँ और टाउन प्लानिंग और कहाँ आज के शहरों की बदहाल प्लानिंग..
उन अनाम कलाकरों को सलाम!! वे गुफा में रहते हुए भी सभ्य थे – हम नगर में रहते हुए भी आदिम हैं!!
ये गुफ़ाएँ देश कर उन कलाकारों के प्रति श्रद्धा उमड़ती है जिन्होंने ,अपनी एकान्त साधना सेर इन पर्वत-खंडों को मुखर कर दिया !
वर्तमान में हम सब कहाँ खड़े हैं इसका अवलोकन अवश्य करना चाहिए। बिना कला के हमारी आत्मा कितनी शुष्क हो चली है इसे भी कभी अनुभूत करना चाहिए। अजन्ता और एलोरा विश्व धरोहर हैं, हमारे गौरव हैं, इन्हें सुरक्षित रखना और इनसे प्रेरणा लेना ही हमारा कर्तव्य होना चाहिए। इस अनूठे निर्माण को जीवन में एकबार अवश्य देखना चाहिए और स्वयं को भारतीय होने पर गौरवान्वित करना चाहिए। बिलकुल सही कहा आपने आपकी यह पोस्ट पढ़कर मेरा भी मन हो रहा है यहाँ जाने का जानकारी पूर्ण आलेख।
सृजन कठिन है, विध्वंस सरल। बर्बर मानसिकता से और उम्मीद भी क्या कर सकते हैं?
अभी तक इन धरोहरों को नहीं देख पाये हैं लेकिन इच्छा है कि कभी देखें।
इस ऐतिहासिक धरोहर के दर्शन की बधाई और वर्णन का धन्यवाद!
आपने बिलकुल सही कहा….ये गुफाएं वाकई चकित कर देती हैं….उपरसे नीचे तराशी गयी ये गुफाएं बेमिसाल है.
वास्तव में कितना सभ्य और भव्य था हमारा अतीत.इन गुफाओं के बारे में भी तक सिर्फ पढ़ा ही है. क्या वहाँ अंदर फोटोग्राफी की मनाही है? तस्वीर नहीं दिखी एक भी.
मोतियों को ध्वस्त करने के बारे में मैंने साँची में भी सुना जहाँ हर मूर्ति के चेहरे को किसी न किसी तरह खंडित गया है.बहुत दुःख हुआ देख कर.
गुफा के अन्दर फोटो लेना पूर्णतया प्रतिबंधित नहीं था लेकिन फ्लेश काम में नहीं लेना था। इसलिए फोटो बढिया नहीं आ पायी। बुद्ध की यह फोटो मैंने मेरे मोबाइल से ली हैं। शेष फोटो मेरी मित्र के केमरे में थी जो अभी तक उपलब्ध नहीं हो पायी है।
इन गुफाओं में चित्रों का उकेरना वाकई अद्भुत है .. घुप्प अंधेरों में किस तरह हुआ होगा इन कलाकृतियों का निर्माण , हैरानी होती है !
देख आये हम भी !
अजन्ता गुफाएं भारतीय कला और संस्कृति की अनूठी मिसाल है. अजन्ता की गुफाएं बौद्धदर्शन को प्रतिबिम्बित करती हैं.अजन्ता विश्व धरोहर हैं, इन्हें सुरक्षित रखना और इनसे प्रेरणा लेना ही हमारा कर्तव्य होना चाहिए. इस अनूठे निर्माण को जीवन में एकबार अवश्य देखना चाहिए और स्वयं को भारतीय होने पर गौरवान्वित करना चाहिए।इस ऐतिहासिक धरोहर की बधाई और वर्णन का धन्यवाद!