अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

दोनों जीवन देख लिये

Written By: AjitGupta - Apr• 20•20

पुराने जमाने में विलासिता का प्रदर्शन दो जगह होता था – एक राजमहल तो दूसरा किसी गणिका का कोठा। हर आदमी लालायित रहता था कि कैसे भी हो एक बार राजमहल देख लिया जाए! इसी प्रकार जैसे ही जवानी की दस्तक हुई नहीं कि मर्द सोचने लगता था कि इस गणिका के कोठे पर नृत्य देखने तो जाना है! वक्त बदला और विलासिता ने पैर पसारे। विलासिता के दर्शन सभी के लिये सुलभ होने लगे बस पैसे फेंको और तमाशा देखो।

एक जमाना था जब भोजन सादगी लिये होता था लेकिन भोजन में भी राजमहलों जैसी विलासिता ने घर करना शुरू किया। आम आदमी के पास करने को दो ही कार्य रह गये, विलासिता पूर्ण वैभव को देखना और ऐसे जीवन का उपभोग करना। पर्यटन इसका सबसे सुन्दर साधन बन गया। एक सामान्य व्यक्ति से मैंने एक बार  पूछ लिया कि बहुत दिनों से दिखायी नहीं दिये, कहाँ थे? वे बोले कि हम साल में दो बार विदेश यात्रा पर जाते हैं, एक लम्बी दूरी की और दूसरी छोटी दूरी की। हमने सारा संसार देख लिया है, अच्छे से अच्छे होटल देख लिये हैं और मंहगे से मंहगा खाना खा लिया है।

मैं अपने शहर के जीवन पर नजर घुमाने लगी, देखा कि शनिवार-रविवार को कोई भी सभागार और होटल-रेस्ट्रा खाली नहीं है, सभी में कुछ ना कुछ कार्यक्रम चल रहे हैं। वहाँ भी अच्छे भोजन के लिये जा रहे हैं और मंचों पर मिलने वाले फूलों के हार का भी लालच है। कहीं पिकनिक है, कहीं किट्टी है, कही जन्मदिन मन रहा है तो कहीं विवाह की वर्षगाँठ। शहर में विवाह समारोह की तो धूम मची है, औसतन आदमी साल में 30-40 दिन तो समारोह में चले ही जाता है। याने की हर व्यक्ति विलासिता में डूब जाना चाहता है।

ऐसे जीवन के चलते अचानक ही हो गया लॉकडाउन। सब कुछ बन्द। विलासिता के दर्शन बन्द, पकवानों की वजह बन्द! एक तरफ डर पसर रहा था, जीवन के आनन्द छिन रहे थे तो दूसरी तरफ नई रोशनी भी हो रही थी। घर की मुंडेर पर चिड़िया चहकने लगी थी, धूल से पटा आंगन साफ रहने लगा था। सड़क के पार वाले घर से भी आवाजें सुनायी दे रही थीं। घर-घर में सादगीपूर्ण भोजन बन रहा था, सभी के पेट स्वस्थ हो रहे थे। कपड़ों से अटी पड़ी अल्मारी की ओर सुध ही नहीं थी! पैसे भी कृपणता से घर छोड़ रहे थे। बच्चों का जिद करना भी कम से कम होता जा रहा था।

पहले हम भाग रहे थे, अब घर में शान्त से बैठे हैं। विलासिता देखते-देखते हमने घर को भी अजायबघर बना डाला था। सादी दाल-रोटी खाना पुरातनपंथी लगती थी और विदेशी खाना हमारे लिये फैशन बन गया था। दुनिया की दौड़ में हम शामिल होकर अपना चैन खो बैठे थे। बस दौड़ रहे थे, दौड़ रहे थे। अपना स्वाद भूल गये थे, पराये स्वाद के पीछे पागल हो रहे थे! शाम 5 बजे बाद अब घर बसने लगते हैं, मर्द घर में आने लगते हैं, रात 9 बजे तक सारे घरों में अंधेरा होने लगता है। सड़कें खामोश हो जाती हैं। झिंगुर की आवाज भी सुनायी दे जाती है। लगता है जीवन का परम सुख पा लिया हो।  

विलासिता इतनी भी नहीं पैर पसारे कि कोरोना जैसा विषाणु हमारे अन्दर ही प्रवेश कर लें और वहीं बस जाएं! हम दौड़ना भूलकर घर में कैद हो जाएं! जीवन ने करवट बदली है, दोनों जीवन हमने देख लिये हैं, बस कौन सा कितना अच्छा है, यह आकलन हमें करना है। विलासिता के लिये कितनी दौड़ लगानी है और अपने घर के लिये कितनी हद बनानी है, यह निर्णय हम सबका है।

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