कतिपय सदवाक्य, हमें अंधकार में धकेल रहे हैं
अभी एक सदवाक्य पढ़ा – don’t find fault, find a remedy.
चिकित्सकीय भाषा में एक बात कही जाती है – रोग का निदान हो जाए तो चिकित्सा हो जाती है। समाज, परिवार और व्यक्ति का रोग यदि हमें समझ आ जाए तो उसका ईलाज करना आसान होता है। लेकिन ऐसे सदवाक्य जो कहते हैं कि “गल्तियां मत ढूढों बस समाधान ढूंढो”, कितने उपयोगी हैं? हमें हमारी गलती पता नहीं तो सुधार कैसे होगा? इस सदवाक्य जैसे ही goody-goody विचार हमारे समाज में बहुतायत से प्रचलित हैं। जैसे – बुराई मत देखो केवल अच्छाई ही देखो, आधा गिलास भरा है, यह बोलो ना कि यह बोलो कि आधा गिलास खाली है, बुरा मत देखो – बुरा मत बोलो – बुरा मत सुनो आदि आदि। सृष्टि ने अच्छाई और बुराई दोनों बनायी हैं। हमारे जीवन में दोनों ही पक्ष सदा साथ रहते हैं। समाज और परिवार हमें अच्छाई को परखने का भी ज्ञान देता है और बुराई को जाँचने की भी समझ देता है। लेकिन आज केवल एकतरफा ज्ञान बांटा जा रहा है। यह एकतरफा ज्ञान ही समस्त विकारों का जन्मदाता है।
एक धर्म ग्रन्थ में लिखा कि यदि तुम्हारे एक गाल पर कोई थप्पड़ मारे तो तुम दूसरा भी उसके सामने कर दो। गाँधीजी ने भी इसे प्रचारित किया। परिणाम क्या हुआ? समाज का वीरत्व समाप्त होने लगा। मुझे तो एक बात समझ आती है कि समाज में जो नेतृत्व दे रहा है, फिर चाहे वे राजनेता हों, धर्मनेता हो या समाजनेता हों, सभी ऐसे सदवाक्यों का प्रयोग जनता को अपनाने के लिए कहते हैं। अर्थात जनता को वीर नहीं होना चाहिए, जनता को सत्य का अनुयायी नहीं होना चाहिए, जनता को असहिष्णु नहीं होना चाहिए। यदि इतिहास में झांके और प्रागतैहासिक काल में पहुँच जाए तो उस काल में कहा जाता था कि जो सूक्तों की रचना कर सकता है वह हमारा राजा होगा। बाद में ऐसे प्रबुद्ध वर्ग को ब्राह्मण कहा गया और उन्हें विशेष सुविधाएं प्रदान की गयीं। ब्राह्मण इसीलिए पूज्य रहे कि वे साहित्य और इतिहास लिख रहे थे। समाज में कार्य विभाजन हुआ। लेखन करने वाले, सत्य अर्थात सृष्टि के नियमों की खोज करने वालों को ब्राह्मण कहा गया, राजकार्य का प्रबंधन करने वाले वीर पुरुषों को क्षत्रीय, वित्त का प्रबंधन करनेवालों को वैश्य और सेवा करने वालों को शूद्र कहा गया। ब्राह्मणों ने समाजोपयोगी लेखन किया, रामायण को यदि आदि-ग्रन्थ माने तो उसमें रावण और दानवों का वर्णन किया और उनके समूल नाश का भी प्रचार किया। महाकवि वाल्मिकी ने समाज के सारे ही पहलुओं पर विस्तार से लिखा। महाभारत को देखें उसमें भी कंस से लेकर दुर्योधन तक की कथा लिखी। वेदों में भी सभी मनुष्यों को मर्यादा का पाठ पढ़ाया गया। एकतरफा वर्णन कहीं नहीं है।
लेकिन आज समाज में उपदेश ही उपदेश हैं। मनुष्य का धर्म क्या है, प्राणी मात्र का धर्म क्या है इस पर कोई चर्चा नहीं करता, बस चर्चा होती है तो धार्मिक कर्मकाण्डों पर। मनुष्य का धर्म है, सृष्टि का संरक्षण करना। सृष्टि को प्राणीमात्र के लिए उपयोगी बनाना। सृष्टि के संसाधनों का सम्यक उपयोग। लेकिन आज सभी धार्मिक नेता क्या कह रहे हैं? हमारा धर्म ही श्रेष्ठ है, शेष निकृष्ट हैं। आपस में तलवारे खिंच गयी हैं। एक-दूसरे के समूल नाश के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हुआ जा रहा है। लेकिन यहाँ भी उपदेशक आ गए हैं। जो सर्वनाश कर रहा है, उसे उपदेश नहीं दिया जा रहा लेकिन जिसका सर्वनाश हो रहा है उसे कहा जा रहा है कि सहिष्णु बन। मानवीय सुरक्षा के लिए धर्म और समाज लामबंद हो गए हैं। जिसकी संख्या कम, उसे मरने के लिए तैयार रहना होगा।
दुनिया में जितनी भी प्रजातियां हैं, उनमें सभी के प्रकृति प्रदत्त नियम एक से हैं। नर और मादा के नियम पृथक नहीं हैं। लेकिन मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसके दरबार में पुरुष और स्त्री के कानून अलग-अलग हैं। अर्थात प्रकृति से विपरीत कार्य। प्रकृति को समाज हित में संस्कारित करने का नाम है संस्कृति लेकिन प्रकृति को केवल स्वयं के हित में परिवर्तित करने का नाम है विकृति। प्राणीमात्र में युगल उत्पत्ति है तथा उनका कार्य ही प्रजनन है। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि पशुओं तथा अन्य प्राणियों में प्रजनन ही प्रमुख कर्म है। लेकिन मनुष्य में प्रजनन के अतिरिक्त सृष्टि संरक्षण का कर्म प्रमुख हैं। इसलिए श्रेष्ठ मानव स्वयं को काम-भाव से विरक्त करने का प्रयास करते हैं। जिनमें केवल काम-भाव ही होता है, उन्हें निकृष्ट मानव कहा जाता है। इस श्रेष्ठता और निकृष्टता का ज्ञान तभी होता है जब हमें दोनों का अन्तर पता हो। हमारी दृष्टि दोनों ही पक्षों को देख और समझ सकने में सक्षम हो। यदि हमारी दृष्टि केवल श्रेष्ठता को ही चिह्नित करेगी तो निकृष्टता का परिमार्जन हम नहीं कर सकेंगे। इसलिए उपदेशों से बाहर आकर वास्तविकता के जगत से साक्षात्कार करना होगा। देश की गन्दगी को समझना होगा तभी उसका परिष्कार हम कर सकेंगे।
पूरी तरह से सहमत!! बुराई को जाने समझे देखे बिना उसे दूर रखने का विवेक ही नहीं आएगा।
वाह . बहुत उम्दा,मार्मिक रचना व् सार्थक प्रस्तुति . हार्दिक आभार आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
नब बर्ष (2013) की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
मंगलमय हो आपको नब बर्ष का त्यौहार
जीवन में आती रहे पल पल नयी बहार
ईश्वर से हम कर रहे हर पल यही पुकार
इश्वर की कृपा रहे भरा रहे घर द्वार.
सुज्ञ जी, क्या यह साइट भी देर से खुल रही है?
सहमत … बुराई को जाने बिना उससे दूरी कैसे रह पायगी … ओर वैसे भी वीरोचित, गर्व से रहना जरूरी है किसी भी समाज के लिए …
आपको नव वर्ष की मंगल कामनाएं …
ramayan mahabharat aur vaidik sahitya me jo samaj me ghatit ho ra tha rachanakaro ne purna pardarshita ke sath likha sanjoya ,taki aanewale samay me samaj ke log usase sikhe .shorya ,shakti aur manviya guno ko sthapit kiya.bad me shasak, satta dhriyo ki prasansha ko dor chala ati adarshwal ka dor aaya jisase desh ka bada nusan hua hai . aaj bhi shanti aur soharda ke nam par sarakar hath par hath dare baithi hai . kattar panathi aur kanoon todane wale samanya nagarik ke liye jina dubhar kar rakha hai .
आपने सटीक विवेचना की है .प्रकृति में नर और मादा पुरुष और प्रकृति के अधिकार समान हैं इस लिए एक संतुलन है ,प्रति -सम हैं प्रकृति के अवयव ,दो अर्द्धांश एक जैसे हैं .आधुनिक मानव एक
अपवाद है .एक अर्द्धांश को दोयम दर्जे का समझा जाता है उसके विरोध को पुरुष स्वीकार नहीं कर पाता ,उसकी समझ में नहीं आता है वह क्या करे लिहाजा वह प्रति क्रिया करता है .घर में नारी
स्थापित हो तो बाहर समाज में भी हो .इस दिशा में हर स्तर पर काम करना होगा .बलात्कार जैसे जघन्य अपराध तभी थमेंगे .
एक धर्म इंसानियत का भी है जिसे सब भूलते जा रहे हैं। इसे कोई पढाता भी नहीं।
इसलिए उपदेशों से बाहर आकर वास्तविकता के जगत से साक्षात्कार करना होगा। देश की गन्दगी को समझना होगा तभी उसका परिष्कार हम कर सकेंगे।
….बिल्कुल सही…बहुत सार्थक और विचारणीय आलेख…नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें!
डॉक्टर दीदी,
बहुत सी सूक्तियों के अर्थ बदले हैं.. क्योंकि समाज में मूल्यों का ह्रास हुआ है.. एक कथा याद आ रही है.. ईसा मसीह कहीं से गुजर रहे थे तो देखा कि एक स्त्री को लोग पत्थर मार रहे हैं.. पूछने पर बताया कि वह कुलटा है.. उन्होंने कहा कि मारो उसे पत्थर, लेकिन पहला पत्थर वो मारे जिसने कभी कोई पाप न किया हो..
पुरानी कथा में लोगों के सिर झुक गए!! लेकिन आज के युग में लोग और जोर जोर से बढ़-चढ़कर पत्थर मारते, क्योंकि उन्हें यह साबित करना होता कि वे तो बड़े सदाचारी हैं और कभी पाप नहीं किया उन्होंने..
बहुत प्रासंगिक प्रश्न उठाया है आपने. धन्यवाद!!
पुनश्च: यह साईट मुझसे भी बहुत देर से खुली!!
aapane sach kaha
डॉ दराल से सहमत. इंसानियत और उसके प्रति कर्तव्यों की शिक्षा मिलनी बंद हो गई है .
बहुत सार्थक आलेख.
“ब्राह्मण प्रवृत्ति के ज्ञानियों ने संस्कृति की स्थापना की और क्षत्रीय प्रवृत्ति के लोगों ने विकृति की।”
@ इस एक लाइन को छोड़कर पुरे लेख से अक्षरशः सहमत|
ब्राह्मण प्रवृत्ति के ज्ञानियों ने संस्कृति की स्थापना के लिए साहित्य लिखा जबकि क्षत्रिय प्रवृति के लोगों ने उस साहित्य को लिखने के लिए आदर्श संस्कृति को अपने जीवन में आत्मसात कर उदाहरण पेश किये |
अत: संस्कृति की स्थापना में दोनों का बराबर का सहयोग है और विकृति में भी दोनों का बराबर दोष !!
Gyan Darpan
रतन सिंह जी, आपने जिन पंक्तियों का उल्लेख किया है, मैंने भी इन्हीं पंक्तियों के लिए विचार किया था। मेरा अर्थ यह था कि क्षत्रीय प्रवृति से भोगवाद बढ़ा। लेकिन आपकी बात सही है। इसी प्रकार विमर्श होगा तो बहुत कुछ अच्छा निकलेगा। आभार।
‘जहाँ कुछ बुरा हो रहा है वहाँ से आँख-कान और मुँह बंद कर भाग आओ’ – यह कायरता की सीमा है, कोई आदर्श वाक्य नहीं .जो कुछ न्यायोचित है उसके लिये जूझ जाने का साहस आज कितनों में है – देश का युवा-वर्ग दिशाहीन -सा हो रहा है !वह तुल जाये तो सारी निरंकुशताओं को रास्ते पर ला सकता है .
shekhavat ji se sahamat aapne bhi sadvachan kahte kahte nirpeksh nahi rakh paaye apne ko
kam bhavana va kamukata dono alag alag vastu hai tatha kamukata badhane me aaj ki apsanskriti ya vikriti bahut had tak jimmevaar hai
अरुण जी, शेखावत जी ने संकेत किया है लेकिन आपने संकेत नहीं किया। आप स्पष्ट बताएं जिससे हम अपने विचारों को परिष्कार कर सकें। निरपेक्षता कहां नहीं रही, बताए तो मैं समझ पाऊँ। अभी बहुत सारी माइंड सेट है, इसलिए पता नहीं लगता है कि हम क्या लिख रहे हैं। दूसरा इंगित करता है तभी पता लगता है।
सूक्तियों और अमृत वचनों के अर्थ और परिभाषाएं समय के साथ बदलती है !
सहिष्णुता और कायरता का फर्क किया जाना जरुरी है !
बुराई को जाने बिना उससे दूरी कैसे रह पायगी
@ लेकिन मनुष्य में प्रजनन के अतिरिक्त सृष्टि संरक्षण का कर्म प्रमुख हैं।
सच कहा आपने मगर इसे समझने के लिए सद्बुद्धि कहाँ से लायें …?
जो थी वह टीवी देख कर बेकार हो गयी ! 🙁
आभार आपका !
बुराई को जाने बिना अच्छाई और बुराई में भेद नहीं किया जा सकता सहमत हूँ आपकी बात से रही बात धर्म की तो एक डीएचआरएम इंसानियत का भी है हमारे समाज में जिसकी शिक्षा लगभग हर धर्म देता है मगर हम उसका पाठ पढ़ना और अपने बच्चों को पढ़ना भूलते जा रहे है और उसका नतीजा है यह वर्तमान हालात….
आज के जेट युग में आप बहुत लंबा और कठिन रास्ता बता रही हैं, इससे आसान तो हर बात के लिये भारतीय संस्कृति को दोषी ठहराने वाला रास्ता है – हर बात के लिये भारतीय संस्कृति को कोसा जाये और फ़िर आगे की तैयारी की जाये।
संजय भाई, बहुत बढिया बात कह दी। भारतीय संस्कृति को गरीयाते रहो और खुश रहो। जितने लोग भी कोसते हैं, उनमें से किसी को भी संस्कृति तक का अर्थ मालूम नहीं होता है और ना ही वे जानते हैं कि भारतीय संस्कृति का मूल सिद्धान्त क्या है? यही कारण है कि आज हिंसा का बोलबाला है।
सच में निदान ढूढ़ने में ही ऊर्जा व्यक्त हो..
समाधान सुझाने वाली से सहमत। पुरानी बातों को आंख खोलकर ग्रहण करना चाहिये!
देश की सबसे बड़ी गंदगी यह है हम उसे चुनते हैं जो तिहाड़ जाने की योग्यता रखता है ,एक ख़ास खानदान का वारिस है भले मंद -मती हो ,निर्बुद्ध हो ,जाती से आगे हम सोच नहीं पाते ,आज यही मंद मति बालक ओवैसी साहब के साथ बैठा है क्लीन शेव ,खुदा खैर करे .शुक्रिया आपकी ताज़ा टिपण्णी का जो हमारी अन्यतम धरोहर है ..
सुंदर चिंतन …… वैचारिक रूप से जागरूक बने रहना ही होगा