प्रयोगशाला में जिसप्रकार परखनली स्टेण्ड में परखनलियों के अन्दर अलग-अलग जीवों को रखकर उनपर परीक्षण किया जाता है, बस उसी प्रकार है मनुष्य का जीवन भी। हम सब अपनी अपनी परखनलियों में कैद हैं। हमें वहीं करना है, हमें वही बनना है, जो हमारे माता-पिता चाहते हैं। उनकी परखनली में हम कैद रहते हैं। कोई डॉक्टर बनाना चाहता है तो कोई इंजीनियर। कोई नेता तो कोई पत्रकार। कोई व्यापारी तो कोई प्रबंधक। कोई कलाकार तो कोई निर्माता। उस नन्हें से जीव से कोई नहीं पूछता कि तू किस दिशा में बढ़ना चाहता है? इसलिए आज हम सब फड़फड़ातें रहते हैं, हमारे पंखों को खुले आसमान में उड़ने के लिए खोल देना चाहते हैं, लेकिन परखनली की दीवारे हमें ऐसा नहीं करने देती।
वर्तमान बदला है, आकाश में उड़ते हुए कई परिंदे नजर आ जाते हैं, जो किसी परखनली के बन्धन को नहीं मानते, उन्होंने तोड़ दी हैं वे कांच की दीवारें। अब माता-पिता की परखनली भी कमजोर हो गयी है और उसमें पल रहे जीव की प्रतिरोधक-क्षमता भी शायद विकसित हो गयी है, वह लात मारकर परखनली को तोड़ने लगा है। वंशानुगत व्यवसाय पर चोट पड़ी है, अब डॉक्टर की संतान डॉक्टर नहीं बनती, इंजीनियर की भी इंजीनियर नहीं बनती। वे नवीन दुनिया ढूंढ रहे हैं, ऐसी दुनिया जो उनकी अपनी हो। सदियों से होता आया है, यह खेल। लेकिन तब इक्का-दुक्का ही हिम्मत कर पाता था लेकिन आज आम बात हो गयी है। इस हिम्मत पैदा करने में फिल्मों की महती भूमिका रही है। कल ही एक फिल्म देखी – “ये जवानी है दीवानी“। बहुत दिनों बाद किसी थियेटर में देखी गयी यह फिल्म। फिल्म का नायक – रणवीर कपूर, खुले आकाश में उड़ना चाहता है, सारी दुनिया घूमना चाहता है। किसी बंधन को स्वीकारने की मानसिकता नहीं है। इसके विपरीत नायिका – दीपिका पादुकेन, डॉक्टर है, अपने माता-पिता की परखनली में बन्द। उसने आजाद पक्षियों की दुनिया नहीं देखी है। वह फिल्म की सहनायिका – कल्कि से अचानक ही मिल जाती है और उसे लगता है कि यह दुनिया कुछ अलग है। दीपिका अपने बंधन तोड़कर बाहर निकलती है, खुली हवा में सांस लेती है और जीवन में एक मनुष्य को क्या चाहिए, उसका अनुभव करती है। कभी खुलकर हँसना, खुलकर लड़ना और खुलकर ही जीवन को जीना सुखद अनुभव लगता है। लेकिन हमारी परखनलियों ने हमें ऐसा बना दिया है कि हम चाहकर भी वह सब नहीं कर सकते जो हमें करना अच्छा लगता है। हम चाहते हैं कि पहाड़ की चोटी पर चढ़कर, जोर से चिल्लाएं, लेकिन हम नहीं कर पाते। हम चाहते हैं कि सड़क पर चलते हुए गाना गाए, लेकिन नहीं कर पाते। ऐसे ही कितने ही खयाल हमारे मन में आते हैं, जिन्हें हम नहीं कर पाते। इस फिल्म में बस इतना ही है कि जीवन में जहाँ बन्धनों की आवश्यकता है तो स्वतंत्रता की भी। मैं फिल्म समीक्षक नहीं हूँ इसलिए समीक्षा नहीं कर रही, बस इतना भर बताने का प्रयास कर रही हूँ कि अपनी अभिव्यक्ति की तलाश को पूरा करती है यह फिल्म। हमें दुनिया देखने के लिए उकसाती है यह फिल्म। हमें अपने सपने पूरे करने के लिए धकेलती है यह फिल्म। लेकिन जब उड़ चुको तो एक पड़ाव पर आकर ठहर जाने को इंगित करती है यह फिल्म। अपनी लीक पर चलो, लेकिन जीवन को जीना भी सीखो। उदयपुर की खूबसूरती को बाखूबी दर्शाया है इस फिल्म में, कि मन खुश हो गया। गुलमर्ग के दृश्य भी बेहद खूबसूरत है। बस कभी-कभी ऐसी फिल्म देख लेनी चाहिए, जिससे जीवन में कुछ करने का हौसला आ जाए। कम से कम अपने बंधनों को कुछ ढीला करने की कसमसाहट तो पैदा हो जाए।
ब्लाग व फेसबुक की दुनिया में आपका यह आर्टिकल चौथे नम्बर पर सामने आ रहा है जो इस फिल्म की चर्चा करते हुए किसी भी रुप में इसे देखने की वकालत कर रहा है और यहाँ महत्वपूर्ण यह भी है कि इस बार यह वकालत आपकी ओर से होती दिख रही है । फिर भले ही उसमें उदयपुर की खूबसूरती भी एक अतिरिक्त कारण के रुप में क्यों न हो । मेरे पास पायरेटेड सीडी में बहुत अच्छी आडियो-वीडियो क्वालिटी के साथ अढाई घंटे (लगभग पूरी) की फिल्म मौजूद है जो थियेटर में ही देखने की चाह में मैंने अभी देखी नहीं है किन्तु अब लग रहा है कि शुभस्य शीघ्रम वाली शैली में ही थिएटर में जाकर इस फिल्म का लुत्फ ले ही लेना चाहिए । धन्यवाद सहित…
सुशील जी, मैंने केवल फिल्म के एक बिन्दु पर बात की है। पूरी फिल्म की समीक्षा नहीं की है। लेकिन फिल्म देखी जा सकती है, पर्दे पर देखने में ही आनन्द आएगा, सीडी से कुछ हासिल नहीं होगा।
SACH KAHA AAPNE, AAJ KI YUVA PEEDI KO AB PARAKHNALIYON SE BAAHAR AANA CHAHIYE AUR DEKHNA CHAHIYE KI KAISI DUNIYA HAI BAAHAR KII
चारों ओर क्या चल रहा है जानना बहुत जरूरी है – एकरसता भंग होनी चाहिये दुनिया में इतनी विविधता आखिर काहे के लिये है !
गुलमर्ग घूमने के लिए , फिल्म का टिकट लेना मुनाफे का सौदा रहेगा !
शुभकामनायें आपको !
सतीश भाई, गुलमर्ग देखने के लिए गुलमर्ग को ही देखना पड़ेगा, मुझे तो कम से कम ऐसा ही लगा।
बस कभी-कभी ऐसी फिल्म देख लेनी चाहिए, जिससे जीवन में कुछ करने का हौसला आ जाए। कम से कम अपने बंधनों को कुछ ढीला करने की कसमसाहट तो पैदा हो जाए।
इतना कोई फिल्म सीखा सके तो सार्थक है …. आपके दृष्टिकोण से फिल्म का ये रूप जानना अच्छा लगा ।
सोचते हैं हम भी देख ही आयें. वैसे कश्मीर के मुख्यमंत्री इसलिये नाराज हैं कि शुटींग तो गुलमर्ग में करळी और फ़िल्म में उसे मनाली बताया है.
जो भी हो..देखने का प्रोग्राम बना ही लेते हैं.
रामराम.
हमें तो १५-१६ वर्ष हो चुके टाकिज में पिक्चर देखें ….बस कभी कभार सन्डे को कुछ घंटे देख कर तसल्ली कर लेते हैं ..आपके माध्यम से नयी फिल्म “ये जवानी है दीवानी” के बारे में जानकार बहुत अच्छा लगा …. आभार
हम्म ठीक कहा आपने .मुझे फिल्म का एक संवाद बहुत भाया..मैं उड़ना चाहता हूँ, चलना चाहता हूँ , गिरना भी चाहता हूँ ,पर रुकना नहीं चाहता .
मुझे तो बहुत अच्छी लगी फिल्म .
हर प्रकार के बन्धन पर प्रश्न उठाती नयी पीढ़ी।
अब तक देखी नहीं है यह फिल्म मगर अब लगता है देखना ही पड़ेगी 🙂
पोस्ट के अक्षर उभर नहीं रहे, पढ़ना मुश्किल…
पेज खुलते ही अक्षर नहीं दिखते हैं बाद में श्वेत पृष्ठभूमि में काले अक्षर साफ़ दिखाई देते हैं!!
राहुल सिंह जी, अब देखें शायद कठिनाई नहीं होगी।
डॉक्टर दीदी, कल परसों देखनी है यह फिल्म.. इसलिए बाद में बात करूँगा इसपर!!
खुबसूरत समीक्षा चलिए इसी बहाने सिनेमा देखा जाए
उठाये गए मुद्दों का एहसास तो हो गया. अच्छा लगा. फिल्म तो देखने से रहे क्योंकि अभी भी परखनली में ही हैं.