झीलों के शहर में हो घर अपना – यह सपना किसका नहीं होता? पानी से लबालब झीले हों, पहाड़ हों और सुन्दर सा छोटा सा शहर हो, बस यही तो चाहिए जीवन के लिए। यदि यह सब मिल जाए तो स्वर्ग की कामना कौन करे? हम उदयपुर वासियों
को यह सबकुछ मिला है। छोटा सा शहर उदयपुर, शहर के बीच में बनी झीलें और चारों तरफ पहाड़, देश-विदेश के पर्यटकों को लुभाते रहे हैं। होटल व्यवसाय पूरी क्षमता के साथ फल-फूल रहा है। संसार के नामचीन होटल झीलों के किनारे अपनी छटा बिखेर रहे हैं। झीलें और होटल एक दूसरे का प्रतिबिम्ब बने हुए हैं। उदयपुर का राजमहल भी आधा महल और आधा होटल बनकर अद्वितीय आभा का प्रसार करता है इन झीलों के अन्दर। जब सूर्य अपनी किरणें बिखेरता है तो कभी राजमहल तो कभी जग मन्दिर और लेकपैलेस से लेकर अन्य होटल जगमग करने लगते हैं तब लगता है कि धरती पर यदि स्वर्ग है तो यहीं है बस यही हैं। सैलानी यहाँ आते हैं, पीछोला झील में नाव पर बैठकर इस सौंदर्य को अपनी आँखों से पीते हैं और भूल जाते हैं दुनियाभर की दुश्वारियां। मन करता है बस यहीं रह जाएं।
रात को कुछ मनचले भी यहाँ चले आते हैं, मदहोश होने का इंतजाम भी साथ लाते हैं और मदहोशी में भूल जाते हैं बोतलें, प्लास्टिक की थैलियां और भी ना जाने क्या क्या। ये सब हमारी झीलों में लाश की तरह तैरता दिखायी देने लगता है। राह चलते लोग भी अपनी आदत से मजबूर, इन झीलों में कचरा डाल देते हैं। सुन्दरता आँखों में तिनके की तरह खटकने लगती है। आँख से तिनका निकालूं तो सुन्दरता का जायजा लूं। सैलानियों के सामने शर्म भी आती है कि हम अपनी ही सुन्दरता को गन्दा कर रहे हैं! कभी महाराणाओं ने इन झीलों का निर्माण किया था। मन में सौंदर्य का भाव था और भाव था पशुओं के पानी की समस्या का। शहर के बीच में तीन झीलें बनायी गयी – एक फतहसागर, दूसरी स्वरूप सागर और तीसरी पिछोला। शहर का सम्पूर्ण सौंदर्य इन झीलों के आसपास सिमट गया। जब शहर में पानी की किल्लत आयी तब इन्हीं झीलों ने हमारी प्यास बुझायी। लेकिन हमने हमारी गंगा-माँ को गन्दा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
उदयपुर में हाजी सरदार खां ने इसी गंगा-माँ को साफ रखने का बीड़ा उठाया और एक झील हितैषी नागरिक मंच की स्थापना की। वे एक नाव में बैठकर झीलों में डाले गए कचरे को बाहर निकालते हैं और प्रयास करते हैं कि झीलें हमेशा स्वच्छ बनी रहें। लेकिन उनके पास नाव की कठिनाई बनी हुई थी। भारत विकास परिषद ने उनकी सेवाओं को देखा और उन्हें एक नाव देने की पहल की। दिनांक 16 जनवरी को शाम को 4-30 पर परिषद और नगर निगम की मेयर द्वारा विधिवत नाव की पूजा की गयी और नाव का जलावतरण करा दिया गया। शहर के नागरिक भी खुश थे कि अब झील की सुन्दरता कायम रह सकेगी। अब शायद कोई पर्यटक यह ना कह सके कि उदयपुरवासी अपनी झीलों को संवारकर नहीं रखते। हमने एक प्रयास किया है, शायद इस प्रयास को देखकर जनता भी जागृत हो और वे भी गन्दगी से झीलों को उबार ले। सभी के प्रयास से हम अपने शहर को सुन्दर रखने का एक छोटा सा प्रयास कर रहे हैं, शायद दूसरा प्रयास कोई और प्रारम्भ कर दे।
जब उदयपुर में प्रशिक्षण के समय थे तो सदा लगता था कि झीलें स्वच्छ रहें और बची रहें, शत् शत् शुभकामनायें
सराहनीय कदम …. हार्दिक शुभकामनायें
सच यदि हम अपने सौंदर्य की तरह इन खूबसूरत झीलों का भी सौंदर्य बरकरा रख सकें तो उसे न सिर्फ हमें फायदा हो बल्कि हमें कभी किसी पर्यटक के सामने भी शर्मिंदा न होना पड़े। अपनी धरोहर को बस अपना समझने की देर है जिस दिन ऐसा होगया उस दिन स्वर्ग धरती पर ही होगा। बहुत ही सराहनीय कदम, आपका यह प्रयास सफल हो…हार्दिक शुभकामनायें।
बहुत अच्छा प्रयास है . अपनी धरोहर को संभाल कर रखना अगली पीढी के लिये वरदान सबित होगा .
बहुत सुन्दर प्रस्तुति…!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (19-01-2014) को “सत्य कहना-सत्य मानना” (चर्चा मंच-1496) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’
उदयपुर गए मुझे 18 साल हो गए
हाजी सरदार खान जैसे लोगों की आवश्यकता है समाज को
सद्प्रयास छोटा या बड़ा नहीं होता। शुभ उद्देश्य से किये जा रहे इस सद्कार्य के लिये मंगलकामनायें।
हाजी सरदार खां की पहल को नमन। आपको इस सत्कार्य से जुड़े देखकर अच्छा ।
अनुराग जी, मैं जिस संस्था के साथ जुड़ी हूं, उसके माध्यम से हम देश भर में जितने सेवाकार्य करते हैं, इतने कार्य कोई भी संस्था नहीं करती।
बहुत ही सराहनीय कदम .. दरअसल अगर सभी अपने अपने क्षेत्र में नदियों की सफाई, झीलों की सफाई का अभियान चलायें तो आसानी से पानी की समस्या भी सुलझ जायगी …
डॉक्टर दी! आपने समाजी सरोकार से जुड़ी जितनी भी पोस्ट लिखी हैं, वो सब की सब प्रेरक हैं.. मैं जब उदयपुर गया था तब, मुझे भी यह सब देखकर बड़ा अफसोस हुआ था.. लेकिन ख़ाँ साहब की पहल और संस्था के सद्प्रयास से जो भी किया गया है वह सराहनीय ही नहीं एक मिसाल है!!
सराहनीय कदम,काश मेरे शहर में भी ऐसा होता ,यहाँ बहुत ताल हैै, पर सब गंदगी से भरे़!