अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

पुत्र-वधु, परिवार की कुलवधु या केवल पुत्र की पत्‍नी?

Written By: AjitGupta - Feb• 09•13

 

पुत्र के विवाह पर होने वाली उमंग से कौन वाकिफ नहीं होगा? घर में पुत्र-वधु के रूप में कुल-वधु के आने का प्रसंग परिवारों को रोमांचित करता रहा है। माता-पिता को अपनी वधु या बहु आने का रोमांच होता है, छोटे भाई-बहनों को अपनी भाभी का और पुत्र को अपनी पत्‍नी का। परिवार में न जाने कितने रिश्‍ते हैं और सभी को रिश्‍तों के अनुसार ही रोमांच होता है। जो पिता रात-दिन परिवार को थर्राते रहते थे, वे भी रातों-रात बदल जाते हैं। उनकी स्‍वभाव की नरमी सबके लिए आश्‍चर्य का विषय बन जाती है। घर को सजाया जाता है, बंदनवार लगायी जाती है। घर का माली भी डलिया में फूल भरकर कुल-वधु को भेंट करता है। बहु के पद-चिह्न कपड़े में लेकर रखे जाते हैं। न जाने कितना उत्‍साह भरा रहता है, सभी के मन में। आपको स्‍मरण है अभिषेक बच्‍चन और ऐश्‍वर्या का शादी? जब अमिताभ बच्‍चन स्‍वयं गाड़ी चलाकर बहु को अपने घर लेकर आए थे! अधिकांश भारतीय परिवारों में इतना ही उत्‍साह रहता है, वह बात अलग है कि कहीं दहेज के रावण ने इन सारी खुशियों को लालच में बदल दिया है। विवाह के बाद भी एक वर्ष तक प्रत्‍येक त्‍योहार पर परिवार में रौनक बनी रहती थी। हर त्‍योहार अलग ही उत्‍साह से मनाया जाता था, बहु के पीहर से सौगात आती थी और बहु के पीहर सौगात जाती थी। इन सौगातों को परिवार में ही नहीं पूरे मोहल्‍ले में बांटा जाता था। कम से कम एक वर्ष तक तो घर में रौनक और नयापन बना ही रहता था। ऐसे परिवारों में जाने पर अलग सा उत्‍साह दिखायी देता था। नयी-बहु को घेरे हुए हमेशा छोटे बच्‍चे और खासतौर से लड़कियां होती थी। हम भी बचपन में ऐसी नयी-बहुओं को हमेशा घेरे ही रहते थे। उनके एक इशारे पर सारा काम कर दिया करते थे।

लेकिन जमाना तेजी से बदला, पुत्र के विवाह के चन्‍द दिनों बाद ही जब मैंने एक परिवार में फोन किया तो वहाँ से बहुत ठण्‍डी सी आवाज आयी। माता-पिता में विवाह का उत्‍साह समाप्‍त हो गया था, घर के अन्‍य सदस्‍यों में भी कोई उत्‍साह शेष नहीं था। सौगातों का तो अन्‍त ही हो गया था। किसी ने अपना दुख स्‍पष्‍ट नहीं बताया लेकिन वे सुखी नहीं हैं, इतना स्‍पष्‍ट दिख रहा था। यह सिलसिला बढ़ता ही गया और जिस भी परिवार में जाओं वहाँ ठण्‍डक सी पसरी दिखायी देने लगी। कई सालों की घुटन के बाद आखिर शब्‍द भी फूटने लगे, लोग अपनी पीड़ा बताने लगे। वे कहने लगे कि हम यह अनुभव नहीं कर पा रहे कि हमारे घर हमारी पुत्र-वधु रहती है, अपितु हम एक अन्‍जान व्‍यक्तित्‍व को देख रहे हैं। जिसकी दुनिया केवल उसकी अपनी है। वह हमारी दुनिया में शामिल नहीं है और ना ही हमें अपनी दुनिया में शामिल करना चा‍हती है। पुत्र भी ऐसा ही व्‍यवहार करने लगा है। एक माँ ने बताया कि परिवार में पहले जब भी पुत्र और पुत्र-वधु को कहीं जाना होता था तो वह माता-पिता से पूछते थे, उनकी मर्जी के बाद ही वे कहीं जाते थे। कुछ दिनों के बाद पूछना भी बन्‍द हो गया और वे केवल सूचित करने लगे कि हम वहाँ जा रहे हैं। लेकिन वर्तमान में वे सूचित भी नहीं करते, आपको उपेक्षित करते हैं। वे आपके अस्तित्‍व को ही नकार रहे हैं। परिवार में यदि माता-पिता और पुत्र और पुत्र-वधु हैं तो उन्‍हें किसी भी तरह की कोई सूचना नहीं रहती, एक दूसरे के लिए। यह अजीब सी स्थिति है। ऐसा लगने लगा है कि परिवार में पुत्र-वधु या कुल-वधु के स्‍थान पर पुत्र की केवल पत्‍नी रहती है। पुत्र भी अब केवल पति बनकर ही रहना चाहता है, शेष सारे रिश्‍ते बेमानी से हो गए हैं।

अचानक आए इस बदलाव ने अनेक परिवारों की खुशियां छीन ली हैं। कुछ लोगों ने धैर्य से काम लिया और कुछ अपना आपा खो बैठे। जिन लोगों ने धैर्य से काम लिया, वे परिवर्तन के इस समय को दृष्‍टा बनकर देखने लगे। वे मानते रहे कि यौवन का उफान जब ठण्‍डा होगा तब परिवार और रिश्‍तों का स्‍मरण अवश्‍य होगा। लेकिन इस उफनती नदी में पत्‍थर मारने से कुछ हासिल नहीं होगा, धीरे-धीरे यह नदी तटबंध पर आकर मंद पड़ ही जाएगी। लेकिन ऐसा क्‍या हुआ इन दस-पद्रंह वर्षों में, कि दुनिया एकदम से बदल गयी? जैसे ही संचार क्रान्ति का युग आया, सूचनाओं का तेजी से दुनिया भर में फैलाव हुआ। दुनिया की समस्‍त संस्‍कृतियों से हम आत्‍मसात हुए। भारतीय कुलवधु की छवि भी बदली अब उसका स्‍थान पति की ही केवल पत्‍नी या जीवनसाथी ने ले लिया। परिवार के अन्‍य रिश्‍ते गौण हो गए। वे केवल आवश्‍यकता में उपयोग के लिए रह गए, सम्‍मान का स्‍थान नहीं रहा। जैसे भारत के जनजातीय समाज में सदियों से होता रहा है कि पुत्र का विवाह होते ही उसका नया झोपड़ा बनता है, ऐसा ही शेष समाज में होने की मानसिकता बनी। झोपड़ा या घर अलग हो, यह मानसिकता खुलकर प्रकट नहीं हुई लेकिन उसका मार्ग उपेक्षा या अपमान में ढूंढा गया। दहेज प्रथा बन्‍द नहीं हुई लेकिन परिवार को मिलने वाली सौगाते बन्‍द करा दी गयी। किसी भी लड़की ने दृढ़ता के साथ या वैसे भी कभी नहीं कहा कि मुझे दहेज नहीं चाहिए, अपितु परिवारों को मिलने वाली सौगातों पर प्रतिबंध के लिए दृढ़ता का सहारा लिया। पुत्र ने भी कभी स्‍वयं की लेन-देन का विरोध नहीं किया। विवाहों की धूमधाम भी बढ़ी लेकिन विवाह के बाद वे छले गए, ऐसी प्रतीती भी बढ़ी। परम्‍परावादी परिवारों में जहाँ कल तक माँ का शासन था, वहाँ रातों-रात का बदल अवसाद का कारण बन गया। माता-पिता इतने उपेक्षित बन जाएंगे, उनके सपने में भी यह विषय नहीं था। लेकिन अब माँ का स्‍थान परिवार में पत्‍नी ने ले लिया था। अब कुलवधु नाम गौण हो गया और केवल पत्‍नी नाम गूंजने लगा।

यह सारा परिवर्तन रातों-रात ही हुआ। इसलिए सम्‍पूर्ण भारतीय समाज पेशोपेश में पड़ गया। स्‍मरण कीजिए विवेकानन्‍द के समय को, जब अमेरिका में उनसे प्रश्‍न किया गया था कि आपके यहाँ स्‍त्री की क्‍या दशा है? तब उन्‍होंने प्रतिप्रश्‍न किया था कि आपके यहाँ माँ की क्‍या दशा है? उन्‍होंने कहा था कि आपके समाज में परिवार की मुखिया पत्‍नी होती है और हमारे समाज में परिवार की मुखिया माँ होती है। लेकिन संचार क्रान्ति के इस युग में भारतीय परिवारों में भी पत्‍नी को ही मुखिया मानना प्रारम्‍भ कर दिया गया है और माँ उपेक्षित हो गयी है। शिक्षा के कारण जहाँ परिवारों में प्रेम समृद्ध होना चाहिए था वहीं शिक्षा के कारण प्रेम नष्‍ट हो रहा है। पति और पत्‍नी दोनों की आपसी समझदारी बढ़ी है लेकिन शेष परिवार उपेक्षित हो गए हैं। अब अन्‍य रिश्‍ते केवल उपयोग की वस्‍तु-भर रह गए हैं। यदि आज किसी व्‍यक्ति की आवश्‍यकता है तो रिश्‍तों का स्‍मरण होता है और जैसे ही काम निकला, वे बोझ लगने लग जाते हैं। इसलिए बेटों वाले माता-पिता को सावधान हो जाना चाहिए, उन्‍हें इस उपेक्षा के दौर से गुजरना ही है। उपेक्षा का कारण भी स्‍पष्‍ट है, क्‍योंकि अभी युवा पीढ़ी में इतना साहस भी पैदा नहीं हुआ है कि वे स्‍पष्‍ट बोल सकें कि हम अब एक युगल हैं और हमें अपना जीवन अपनी मर्जी से जीना है। वे जानते हैं कि हमारे जीवन में माता-पिता का हस्‍तक्षेप है और रहेगा इसलिए उसे उपेक्षा और अपमान द्वारा दूर करना चाहते हैं। लेकिन पुत्री इस बात को अच्‍छी तरह से समझती है कि माता-पिता और अन्‍य रिश्‍तों की आवश्‍यकता जीवन में रहेगी ही इसलिए वह अपने माता-पिता और परिवार से मधुर सम्‍बंध बनाकर रखती है जबकि पुत्र इस बात को समझ नहीं पाता। इसलिए आज पुत्री वाले लोग ज्‍यादा सुखी हैं और पुत्र वाले लोग अक्‍सर दुखी देखें गए हैं। इस समस्‍या से निजात का मुझे एक ही तरीका दिखायी देता है और वह है धैर्य। बस इस बदलाव को सहजता से स्‍वीकार करो और धैर्यपूर्वक इंतजार करो। अपनी तरफ से अपेक्षाओं के बोझ मत लादो नहीं तो यह अपेक्षा उपेक्षा में बदल जाएगी और आप अवसाद का शिकार बन जाएंगे। इस बदलाव को समाज के सम्‍मुख निर्भीकता से स्‍वीकार करो और जो परिवर्तन नवीन पीढ़ी चाहती हैं, उसे पूर्ण स्‍वतंत्रता से करने का अवसर दो। समाज के सम्‍मुख रीति-रिवाज निभाने के चक्‍कर में हम अपेक्षा रखते हैं और फिर जब औंधे मुंह गिरते है तब आहत होते हैं। अब हमारे पुत्र और पुत्र-वधु केवल मित्र हैं, मित्रता में अपेक्षाएं नहीं होती हैं, इसलिए उनसे मित्रता का ही सम्‍बंध रखिए। आप सुखी रहेंगे। समाज या परिवार के अन्‍य जन आपसे कुछ पूछते हैं तो स्‍पष्‍ट बोलिए कि उनके जीवन में हम दखलअंदाजी नहीं करते हैं। मेरा आग्रह तो यह रहता है कि उन्‍हें अपने निर्णय स्‍वयं को लेने चाहिए, जिससे उलाहने की कोई गुंजाइश ही नहीं रहे। बस इस बदलते दौर को धीरज से देखिए और दौर गुजर जाने दीजिए। नहीं तो आप मित्रता से भी वंचित हो जाएंगे।

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27 Comments

  1. rachna says:

    @किसी भी लड़की ने दृढ़ता के साथ या वैसे भी कभी नहीं कहा कि मुझे दहेज नहीं चाहिए, अपितु परिवारों को मिलने वाली सौगातों पर प्रतिबंध के लिए दृढ़ता का सहारा लिया।

    दहेज़ केवल स्त्री धन हैं , आज की लडकियां इस बात से परिचित हैं वैसे भी वर के परिवार को सौगात मिलनी ही क्यूँ चाहिये ?? इस प्रश्न का आज तक जवाब नहीं मिल सका हैं . वधु को उसके घर से क्या मिलता हैं ये भी वर के परिवार के लिये जानना क्यूँ जरुरी होता हैं ??

    पति पत्नी स्वयं में एक इकाई हैं इस लिये उनके लिये उनका ये रिश्ता ही सर्वोपरि होना चाहिये . उसके बाद ही उनके लिये उनके अभिभावक आते हैं चाहे वो किसी भी पक्ष के क्यूँ ना हो .
    माँ की स्थिति भारतीये परिवार में क्या हैं ??

    अगर वो माँ हैं और मुखिया हैं तो इसका सीधा अर्थ हैं की अपने सास ससुर से तो अलग हो ही चुकी हैं अन्यथा उसकी सास मुखिया होती . चलिये एक समय बाद सास नहीं रही होगी तब वो मुखिया बनी होगी तब तक उसकी स्थिति इस घर में क्या थी “एक बेटे की पत्नी मात्र ” यानी जो आज हो रहा उसमे कुछ भी नया नहीं हैं केवल पीढ़ी ही बदली हैं .

    हाँ आज के समय में लड़कियों की शिक्षा ने उनको सक्षम बनाया हैं और वो अपने अधिकारों के प्रति सचेत हैं .

    मै व्यक्तिगत रूप से ये मानती हूँ की हमें अपने बुजुर्गो का ध्यान रखना होगा पर समस्या हैं की

    जैसे जैसे परिवार को नियोजित किया गया हैं बच्चे कम हो गए .
    इस कारण से किसी घर में केवल एक पुत्र हैं तो कहीं एक पुत्री मात्र हैं
    जहां केवल एक पुत्र हैं वहाँ तो उसके माँ पिता की सेवा के लिये एक बहू की कामना फलीभूत होती हैं
    पर जहां केवल एक पुत्री हैं और वो भी विवाह के बाद पति के घर जाती हैं वहाँ उसके अभिभावक किसी के सहारे रहेगे
    आज के समानता के दौर लडकियां चाहती हैं उनके पति उनके अभिभावक का भी ख्याल रखे , पर अभी तक भी वर पक्ष के लोग इस बात को अपने बेटो को नहीं समझा सके हैं
    और यही कारण हैं की लडकियां अपनी ससुराल में अरुचि से सारा काम करती हैं

    भारतीये परम्परा के अनुसार अगर सब चले तो सब ठीक होगा जैसे सही समय पर वान प्रस्थ , पर नहीं हम “चुन ” कर अपनी परम्परा से अपने लिये जो सही हैं वो लेते हैं
    हम अपने बच्चो को महज कठपुतली की तरह रखना चाहते हैं हम उनके परिवार को भी अपनी सोच और अपनी समझ से चलाना चाहते हैं

    • हाहाहा, रचना! वाणप्रस्थ! हेहेहे, क्या हम यह स्वीकार कर सकेंगे? और सन्यास! और भी अधिक हाहहाहा! हम तो धर्म और संस्कृति को अपने हाथ की कठपुतली मानते हैं, जब जैसी सुविधा हो नचा लेंगे. किन्तु वधु! हाहहाहा, अब उनमें जान आ गई है. अब उन्हें नचा न पाएंगे. 🙂 और कितना कष्ट होता है सजीव वधु पाकर ! हमें तो कठपुतली ही चाहिए किन्तु पुत्र को जीती जागती स्त्री चाहिए. 🙂

  2. नई पीढ़ी में स्वयं अपने निर्णय लेने की सोच बहुत बढ़ी है | इसीलिए शायद ये अपेक्षाएं इतनी अखरती हैं | आपने जो सुझाव दिए हैं वे उचित और व्यवहारिक हैं |

  3. AjitGupta says:

    रचना जी, आपकी टिप्‍पणी से हमेशा एक नया दृष्टिकोण मिलता है। ब्‍लाग पर लिखने का यही आनन्‍द है कि आपको बहुत सारे आयाम विषय के लिए मिल जाते है। आपका आभार।
    सौगात वर और वधु दोनों पक्षों के लिए ही होती है, केवल वर पक्ष को ही मिले यह नहीं होता है। यदि इसका आकलन करें तो पाएंगे कि सौगात दोनों तरफ बराबर ही रहती है।
    स्‍त्रीधन के रूप में आज दहेज नहीं आता है, ऐसा कुछ रहता है जो धन तो कभी नहीं होता है। यह धन भी दोनों पक्षों से ही मिलता है।
    मेरा कथन इतना भर है कि आज क्‍या हम अपनी पुत्रवधु को कुलवधु का नाम दें या केवल पुत्र की पत्‍नी ही मानकर चलें? यह समस्‍या शिक्षित परिवारों में तीव्रता से फैल रही है, वहां यदि धैर्य से काम लेते हैं तब समस्‍या इतनी विकट नहीं होती है।

    • rachna says:

      अजीत जी
      भारतीये समाज में पुत्र और पुत्री मे असमानता हैं
      भारतीये समाज में पुत्री का विवाह यानी उसके घर में खर्च ही खर्च
      पुत्री खुदा ना खस्ता विधवा हो जाए या उसके घर में उसके सास ससुर इत्यादि ना रहे तो भी उसी के घर से सामान आता हैं
      उसके बच्चो के विवाह में “भात ” भी मायके की ही जिम्मेदारी होती हैं

      क्या इस मुकाबले उसके परिवार को सौगाते मिलती हैं

      कुलवधू का अर्थ क्या है कैसे परिभाषित करते हैं

      कुल यानी पूरा खानदान / वंश
      पर क्या नियोजित परिवारों में अब इस प्रकार की कोई परिपाटी हैं जिसे “कुल” कहा जा सके

      और ये सब बदलाव धीरे धीरे ही आये हैं

      सबसे पहले ये कुल वधु जैसे शब्द ही बदलने चाहिये क्युकी कुल वधु , नगर वधु , इत्यादि शब्द मात्र हैं इनका ना तो कोई औचित्य हैं और ना जरुरत . वधु ही प्रयाप्त हैं
      इन शब्दों से नारी को दोयम दर्जे पर रखा जाता हैं

      पुत्र वधु अब इस शब्द से क्या पता चलता हैं पुत्र की वधु , क्या वधु किसी और की भी होंगी पुत्र की ही होगी कोई भी कुल की वधु हो ही नहीं सकती हैं

  4. sanjay says:

    sab kuchh hamari soch par nirbhar karta hai, putrvadhu ya bete ki patni ko hum kya maante hain

  5. CA ARUN DAGA says:

    आज पुत्री वाले लोग ज्‍यादा सुखी हैं और पुत्र वाले लोग अक्‍सर दुखी देखें गए हैं ,परिवर्तन नवीन पीढ़ी चाहती- bahut sunder

  6. सम्बंद्धों के निर्वाह के लिए, यह आवश्यक है कि हम बिना शक और अविश्वास किये, स्नेही रिश्तों की बुनियाद, अपने घर में रखें ! अगर माता-पिता, पुत्र अथवा पुत्री के प्रति शंकित रहे हैं एवं उन्हें भरपूर स्नेहसिक्त सहारा नहीं दे पाए हैं तो यही अविश्वास उन्हें दुसरे पक्ष से मिलने की आशा रखनी चाहिए !
    अक्सर हम बड़े, अपनी भूलों पर गौर न करने के दोषी हैं , जिसे शायद ही कभी गौर करने का विषय माना जाता होगा !
    बधू भी किसी घर की पुत्री होती है , और उस घर में भी बधू होगी !
    हमें अपने मुखौटे टटोलने चाहिए !
    शुभकामनायें आपको !

  7. anshumala says:

    अजित जी

    अपनी निजी राय अपने आस पास के और निजी अनुभवों के हिसाब से रख रही हूँ ।

    1- विवाह में आज हफ्तो खर्च करने के लिए किसी के पास समय नहीं है न उस परिवार के पास जहा विवाह हो रहा है और न रिश्तेदारों के पास ।

    2- दहेज़ लेने से लड़की मना कैसे करे उससे पूछता ही कौन है और उसे मिलता ही क्या है कुछ कपड़ो और गहनों के सिवा , सारा पैसे और सामानों को तो ससुराल वालो के हाथ में दिया जाता है जिस दिन पैसा बेटियों को दिया जाने लगेगा सीधे उस दिन वो उसे लेने से इंकार भी करने लगेगी और जिन बेटियों की इतनी तारीफ कर रही है आखिर वो भी तो किसी न किसी की पत्नी पुत्र वधु है ।

    3- मै उत्तर भारत से हूँ और वहां पर लड़की वोलो को देने का शायद ही कोई रिवाज हो वहा तो एक ही परम्परा है लड़की वालो से लेना और सिर्फ लेना , फिर लडके वालो को क्यों साल भर तक सौगाते दिए जाये ताकि वो उसे अपने जानने वालो में बाँट कर अपनी वाह वाही कराये या लड़की वालो के दिए सामानों में मीन मेख निकाले । क्या आप ने कभी सोचा है की एक माध्यम और निम्न वर्गीय परिवार के लिए इन्ही कारणों से बेटिया बोझ बनती जाती है और उन्हें पैदा होने से ही रोक जाना लगा है ।

    4- कोई भी बदलाव रातो रात नहीं आया है ये धीरे धीरे हुआ है माता पिता जैसे जैसे बदलते गए उनके बच्चे उनसे ज्यादा बदलते गए , बस जब पति पत्नी खुद वृद्ध माता पिता बने तो उन्हें अपने बच्चो के वही बर्ताव अजीब लगने लगे जो वो खुद अपने माता पिता के साथ कर रहे थे ।

    5- आखिर उम्र बितने के साथ क्यों हम सभी ये चाहने लगते है की समय कुछ भी न बदले , अपने समय में तो हमने बहुत कुछ बदल किन्तु जब ये बदलाव हम पर असर डालने लगता है तो हम उसका विरोध करने लगते है ऐसा करना गलत है ।

    6- पत्नी का राज वाली बात पर मै रचना जी से सहमत हूँ , हर माँ किसी न किसी की पत्नी ही होती है और हर पत्नी एक दिन माँ तो बनती ही है ना , माफ़ कीजियेगा अजित जी मेरी दादी और नानी दोनों ही बड़ी आधुनिक है और थी इसलिए उन्हें तो नहीं कहूँगी किन्तु अपने आस पास कितने ही बुजुर्गो को देखा है यदि परिवार में सब कुछ उनकी मर्जी और सोच से चलने लगा तो आज के समय में दो दिन भी संयुक्त परिवार नहीं चलेगा , बीटा बेटी को छोडिये पोते पोती नाती कोई भी उन चीजो को बर्दास्त नहीं कर पायेगा ।

    7- समय कभी नहीं रुकता है वो आगे बढ़ता रहता है और हर किसी को उसे के साथ तालमेल कर के चलना चाहिए नहीं तो आप बहुत पीछे छुट जायेंगे , समय को रोकने का प्रयास करना बेवकूफी है । मेरे आस पास ऐसे लोगो की भीड़ भी है जो समय के साथ बदले और बड़े मजे से संयुक्त परिवार में रह रहे है और कुछ नहीं बदले वो आज भी टूटे परिवारों का रोना रो रहे है और अपनी गलती नहीं मान रहे है ।

    8- बहु आप के घर में आई है उसके लिए सभी लोग अनजान होते है घरवालो को पहले उसे अपना बनाना होता है , पति तो उसे अपनापन दे अपना बना लेता है किन्तु बाकि परिवार वो अपना पन नहीं दिखा पाते है । कही कही ससुवल वाले ये कर पाते है और खुश होते है और कही कही तो सारा जीवन पति भी अपना पन नहीं दे पाता है ।

  8. हम तो धैर्य रखे हुये हैं ….. देखते हैं कितना सार्थक रहता है ।

  9. AjitGupta says:

    अंशुमालाजी, आपके माध्‍यम से ही सभी को अपनी बात कह रही हूं। मुझे बहुत कुछ नया सीखने और समझने को मिल रहा है। भारत इतना बड़ा देश है, यहां न जाने कितनी परम्‍पराएं जीवित है। इसलिए सभी के अनुभव प्रेरक होते हैं। एक बात समझ आ रही है कि भारत में इन्‍हीं विविधताओं के कारण एक सर्वमान्‍य हल सम्‍भव नहीं है। आप सभी ने सौगातों की बात की, कहा कि वे केवल वधु पक्ष से ही आते हैं। लेकिन हमारे यहां ऐसा नहीं है। विवाह में भी दोनों पक्ष से सौगात दिए जाते हैं और विवाह के बाद भी। मायरा या भात भी यदि पीहर पक्ष से आता है तो उसी के अनुरूप विदाई भी होती है। हमारे यहां यह परम्‍परा रही है जो आजकल सीमित हो गयी है कि कन्‍या पक्ष रोकड़ देता था, लेकिन उसके बदले में वर पक्ष को सोना चढ़ाना होता था। इसलिए एकपक्षीय विवाह तो मैंने कहीं नहीं देखा। हो सकता है आपके अनुभव में यह हो। इसलिए ही यह विमर्श है।
    मेरा जो मूल कथन था कि पत्‍नी के रूप में ही आजकल लड़कियां विवाह करके आती हैं और परम्‍परावादी माता-पिता उसे सहजता से नहीं लेते हैं। इसलिए उन्‍हें अब इस बात को स्‍वीकार करना चाहिए जिससे अनावश्‍यक कटुता उत्‍पन्‍न न हो। यदि आप सभी एकबार पुन: मेरे कथन को पढ़ेंगी तो विमर्श का स्‍वरूप बदल जाएगा। अभी हम वही बाते कर रहे हैं जो हमेशा करते हैं।

    • rachna says:

      हमारे यहां यह परम्‍परा रही है जो आजकल सीमित हो गयी है कि कन्‍या पक्ष रोकड़ देता था, लेकिन उसके बदले में वर पक्ष को सोना चढ़ाना होता था

      kyaa jitna paesaa diyaa jaataa haen jaewar utane kaa hi chdhyaa jataa haen ? nahin var paksh paesaa laekar jewar chdhanaa chahtaa haen , jabki apni bahu kae liaye jewar unko khud dena chahiyae

      jab kanya paksh sae lae hi liyaa to khud kyaa diyaa

      aaj kal ladki kae mataa pitaa khud jewar daene lagae haen taaki unki ladki kae paas jewar rahey

  10. यह विषय आज भी उतना ही जटिल है जितना पहले कभी था, मूल रूप से अपनी मानसिकता बदलने की जरूरत है. ज्यादातर लोग भले ही पढ लिखकर खुले विचारों के कहलाते हों पर वही मानसिकता आज भी मौजूद है.

    रामराम.

  11. शादी का रहस्य और जीवन का आनद या अनुभव निहायत व्यक्तिगत होता है जिस पर अगले किसी का कमेन्ट उसका अनुभव होगा न की एक निर्विकार सत्य ..

  12. anita says:

    बहुत विचित्र सी स्थिति हो जाती है….
    हम खुद को आधुनिक कहते हैं…मगर दिल से आधुनिक हो नहीं पाते ! आज भी हर माता-पिता बेटी को अपनी सामर्थ्य अनुसार बहुत कुछ देते हैं जिसमें बेटी के ससुराल वालों के लिए भी चीज़ें होतीं हैं ! वो सब ‘नेग’ के नाम पर सारी रस्मों का निर्वाह करना होता है, इसे नकार नहीं सकते !
    रही संबंधों की बात! वो बहुत तेज़ी से बदल रहे हैं…! बेटे की स्थिति ऐसे में सबसे नाज़ुक होती है क्योंकि उसे अपने घर वालों व पत्नी के बीच संतुलन बनाए रखना होता है! रही बहू की बात तो… अगर वो ज़रा समझदारी व धैर्य से काम ले तो बहुत कुछ आसान हो सकता है! सास-ससुर को भी उन्हें थोड़ी Space देनी चाहिए ! समझदारी की अपेक्षा दोनों तरफ से होती है ! मगर अक्सर ये देखने को मिलता है…जहाँ सास सीधी होती है, वहाँ बहू तेज़ निकलती है और जहाँ बहू सीधी-सादी होती है, वहाँ सास…… 🙁
    ~सादर!!!

  13. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल रविवार 10-फरवरी-13 को चर्चा मंच पर की जायेगी आपका वहां हार्दिक स्वागत है.

  14. पहले एक उत्साह रहता था, नये सदस्य को अपने परिवेश में तनिक कष्ट न होने देने का। हर कोई प्रयास करता था। अब पता नहीं कहाँ चला गया..

  15. Ratan Singh says:

    धैर्य रखने वाली आपकी सलाह १००% सही है ऐसी हालात वाले बहुत से परिवार देखें है जिन्होंने धैर्य रखा फायदे में रहे और जिन्होंने आपा खोया उन्होंने सब कुछ खोया |

  16. आपकी रचना संवेदनात्मक रुप से काफ़ी संश्लिष्ट और गहरी अनुभूति की अभिव्यक्ति है। हां, मतभेद हो सकते हैं, लेकिन इन सच्चाइयों से इंकार भी नहीं किया जा सकता।

  17. Dr kiranmalajain says:

    यह बहुत ही विस्तार का विषय है,इसमें संस्कार ,संस्कृति ,परम्परा ,सभ्यता ,सहिष्णुता सारे ही रंग है debate दहेज पर जा कर अटक गई जो शायद ग़लत हो गया। मुझे तो लगता है कि आज की लड़कियाँ ज़्यादा smart है,वे complete package है,पति,पिता,सास ,ससुर सबको ख़ुश रखते हुए,अपने job और बच्चों को भी अच्छे से समंभाल रही है,परिवार में सारे सदस्य अगर एक दूसरे को समझे तो सब ख़ुशी ख़ुशी रह सकते है ।रीती रिवाज के नाम पर लड़की वालों का शोषण तो हमेशा होता है इसमें कोई दो राय नहीं है ,पहले संयुक्त परिवार होते थे लड़कियाँ घर पर रह कर घर का काम ही करती थी,पति के काम पर जाने के बाद परिवार को वक़्त देती थी,पर अब उन्हे भी पति के बराबर या उससे भी ज़्यादा समय बाहर रहकर भी घर सम्भालना पड़ता है ,उसमें पति का रोल व परिवार के सहयोग व असहयोग पर सारी ख़ुशियाँ या दुख टिके है ।लड़कियाँ पढ़ लिख कर अपने माता पिता पर भी बोझ नहीं बनना चाहती शायद इसलिये,या यूँ माने कि इन परम्पराओं के बारे में उसे ज़्यादा जानकारी ही नहीं है इसलिए वह interest ही नहीं लेती है ।सारी बातों का सार वही है सब अपनी अपनी जगह सही है ,धैर्य और विश्वास रखें ,सबसही हैं सही ही रहेगा हम लोग भी over react नहीं करें सबको unconditional love चाहिये जो हम देतें रहैं और पाते रहै

  18. स्वरुप बदल रहा है समाज बदल रहा है .. इस बदलाव को स्वीकार करना होगा जितना माता पिता को उतना ही पुत्र-पुत्रवधू को … पुत्र या पुत्री, अपने अपने परिवार में सभी देखते हैं परंपरा कैसी चल रही है ओर ये जानते भी हैं की उसे क्या चाहिए शादी के बाद …

  19. शुक्रिया मोहतरमा आपकी महत्वपूर्ण टिपण्णी का .मैंने आपकी इस पोस्ट पर पूर्व में भी टिपण्णी की थी .श्याद स्पेम बोक्स डकार गया .कृपया चेक करें .

    आज हम एक गत्यात्मक समाज में चले आयें हैं .सब कुछ तेज़ी से बदल रहा है .एक्सप्लोसिव सामग्री को साथ साथ रखने के अपने खतरे हैं .घर की शांति भंग हो सकती है अलबत्ता अगर बुजुर्ग

    वैसे

    ही रहने को तैयार हैं जैसे सरकार में अपने मौन सिंह तब कोई दिक्कत नहीं है .एक बात और घर में ,घर के हित में हर माह एक निश्चित हिस्सा अपनी मौजूदा आय का ,पेंशन आदि का यदि है तो

    ज़रूर

    खर्च करें .आपका योगदान रहे घर को किसी भी बिध चलाने में .सब कुछ चल जाएगा बस मुखिया बनने का मुगालता न पालें .

    आई आम दी फादर आफ सो एन सो बनके रहें –

    होश के लम्हे ,नशे की कैफियत समझे गए हैं ,

    फ़िक्र के पंछी ज़मीं ,के मातहत समझे गए हैं ,

    नाम था अपना ,पता भी ,दर्द भी इज़हार भी ,

    पर –

    हम हमेशा दूसरों की मार्फ़त समझे गए हैं .

    वक्त की दीवार पे पैगम्बरों के लफ्ज़ भी तो बे ,

    खयाली में घसीटे दस्तखत समझे गए हैं .

  20. rashmiravija says:

    कुल वधु वगैरह का नहीं पता पर अब फिर से सास-ससुर की पूछ बढ़ने लगी है ,और जब उनकी जरूरत पड़ेगी तो सम्मान,प्यार भी देना ही पड़ेगा , स्वार्थवश ही सही।
    आजकल ज्यादातर लडकियां नौकरी करने वाली होती हैं। और बच्चे के जन्म के बाद नौकरी, बच्चे,घर संभालना मुश्किल होता है।ऐसे समय में सास-ससुर की याद आती है और वे ख़ुशी ख़ुशी पोते/पोतियों के लालन-पालन में सहयोग भी करते हैं।

  21. धीरज और समझदारी रिश्तों को जोड़े रख सकती है बिना गाँठ के , मगर ऐसा संभव कम ही होता है !

  22. मुझे तो लगता है विवाह के बाद वधू घर के एक सदस्य के रूप में सहज रूप से रहे.वह घर के माहौल में एडजस्ट हो रही है थोड़ा समय लगेगा,बहुत कुछ परिस्थितियों पर निर्भर करता है.परस्पर स्नेह और सम्मान बहुत सी समस्यायें उठने ही नहीं देता,अगर उसे यह विश्वास हो कि सब में उसके लिये अपनत्व है. अब लड़कियाँ समझदार होती हैं और मौका आने पर अपने को सिद्ध भी करती हैं.ऐसा मेरा अनुभव रहा है .

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  23. बहू और बेटी में अंतर करके हम बहू का एडजेस्टमेंट और जटिल कर देते हैं जो उचित नहीं लगता |दूसरी बात यह है की शादी के पहले ही लड़की को मानसिक रूप से शादी के बाद दूसरे परिवार से ताल मेल बैठाने की शिक्षा माँ पापा को देना चाहिए ना की अलग रहने की शिक्षा देनी चाहिए |
    आशा

  24. Daizy says:

    Pahle jamane me beti bida karte hue pita kahte thay meri beti ko apni beti samajhiyega. Aaj hum bahu ko beti samajhtay hain to bahu ke mata pita te kahte hain ki hamari beti aapki beti to nahi ban jayegi. Mera ek experince likhti hoon mothers day per meri bahu mujhe wish nahi karti thi or mai is baat se naraj ho gai or bete se kaha ki bahu ne mujhe mothers day per wish nahi kiya Bete ne bahu se baat karvayi bahu bahut hi ache andaj me boli ki mothers day specially kyon mummy her. Din hi mothers day hai. Mujhe laga theek bat hai. Itfak se agle hi saal meri bahu ne bete ko mothers day per hi janam dia. Mai or uskay mata pita wahin thay. Ward me jab bahu ne mujhe dekha to kuch nahi bola or apni maa ko dekhte hi boli happy mothers day. Uski maa ke baar baar kahne per usne mujhe bi kah dia happy mothers day mummy. Jawab to de dia maine lekin dil dukh gsya. Bardasht nshi hui mujhe ye baat 1-2 din baad gusse me maine ye baat kah di ki mothers day per mujhe wish karne isay problem hui to turant bahu ne kaha ki han nahi karna chahti thi apko wish aap meri maa nahi ho. Ghahre shabad dil me her samay ghav karte hain. Akeli baithi baithi uske her shabad per ghanto aasoon bahati hoon ki is din ke liye beta byahtsy hain or aidi par likhi bahu latay hain jise jara sa bi samay nahi laga maa ka dil dukhane me. Aaj ke samaj ki vidambana hai ye bete beti ki parvarish me antar na ho aisa kaha gays lekin usko baron se baat karne ki tameej hi na sikhai jai iska ye matlab nahee. Sasural se aajkal ki larki ko koi matlab nahi bus unke bete se matlab hai. Bari baat to uskay mata pita wahin thay jab unki beti mujhe jawab de rahi thi maine turant uskay pita se kaha dekho kiase jawab de rahi hai apki beti kya yahee tameej sikhai hai. Ma pita dono ne bajai beti ko samjhane ke kahne lagay theek hi to hai beti to wo hamari hi rahegi iske slawa bi itni baten bole ki shayad ek vidhva maa ke liye kafi tha. Kya yahi samaj rah gaya hai aaj ka. Mai to kahti nahi karni chahiye aise maa baap ko apni betuon ki shadi jinhone doosre ghar ko apnana hi nai hai. Kyon barbad karte hain wo doosron ka ghar. Apne ghar me bahu nahi rakh patay beti ko doosray ghar me basne nahi datay.

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