प्रत्येक व्यक्ति पृथक होकर स्वतंत्र होना चाहता है क्यों? शायद वह स्वयं की सत्ता चाहता है। किसी का प्रतिबंध नहीं, किसी का अनुशासन नहीं, किसी की दखलंदाजी नहीं, बस स्वयं की सत्ता। देश से लेकर समाज और समाज से लेकर परिवारों में स्वतंत्रता और सत्ता की चाहत दिखायी देती है। अभी 29 अक्तूबर को हैदराबाद में थी, सारा शहर तैलंगाना के विरोध में खड़ा था। लेकिन कुछ राजनैतिक लोग, जिन्हें स्वयं की सत्ता की ईच्छा जागृत हो गयी है वे अपना राज्य अलग बसाना चाहते हैं। दस वर्ष पूर्व भी हैदराबाद जाना हुआ था, वहाँ परिवर्तन और विकास दिखायी दे रहा था लेकिन उसके बाद पृथक होने की चाह ने विकास के सारे ही रास्ते रोक दिए हैं। जिस प्रकार परिवार में जब बेटे-बहु को पृथक चूल्हा जलाना होता है और उनकी मंशा जब तक पूर्ण नहीं होती तब तक परिवार में सुख के दिन दिखायी नहीं देते। बस क्लेश ही क्लेश रहता है। इसी प्रकार जब किसी भी प्रदेश में पृथकता की बात आती है तब भला विकास की बात कौन करेगा? आनन्द थम जाता है और क्लेश अपनी जगह बना लेता है। हैदराबाद की जनता पृथकता नहीं चाहती लेकिन कुछ सत्ता-प्रेमी नेता पृथकता में ही अपना भविष्य तलाशते हैं।
समाज की भी यही स्थिति है। चुनावों के समय इसकी जितनी दुर्गति होती है शायद अन्य समय इतनी कभी नहीं होती। भारत का एक सम्पूर्ण समाज, जो एक ही संस्कृति से आबद्ध है। चुनाव आने पर विभिन्न संस्कृतियों वाले, विभिन्न धर्मों वाले और विभिन्न जातियों वाले बन जाते हैं। परिवार परिवार में कटुता पैदा हो जाती है। भारत में एक ही परिवार में वैष्णव भी हैं, आर्यसमाजी भी हैं, जैन भी है और न जाने कितने विचारों के लोग हैं। वे कभी आपस में नहीं टकराते लेकिन चुनावों में जब कहा जाता है कि मेरी जाति वाले को टिकट दो तो ही हम वोट देंगे तब परिवार में भी वैमनस्य दिखायी देने लगता है। लेकिन अपनी अपनी सत्ता को स्थापित करने के लिए जातियों में बंटना और फिर पृथकता का संदेश देना एक दूसरे के प्रति वैमनस्य उत्पन्न करने से अधिक कुछ नहीं है। आज सामाजिक संगठन, धार्मिक संगठन भी इसी सत्ता प्राप्ति का खेल खेल रहे हैं। कुछ लोगों की सत्ता की भूख ने न जाने कितने सामाजिक और कितने ही धार्मिक संगठन खड़े कर दिए हैं। यदि उनकी गतिविधियों पर निगाह दौड़ाएं तो पता लगेगा कि सभी का अन्तिम लक्ष्य राजनीति ही है। सत्ता में अपना वर्चस्व कैसे स्थापित करें और अपने वोटों का किस प्रकार उपयोग करें बस यही एकमात्र उद्देश्य दिखायी देता है।
सत्ता की चाहत व्यक्ति व्यक्ति तक जा पहुंची है। परिवारों में भी इसके दर्शन सास-बहु के झगड़ों में दिखायी देते हैं। अक्सर लोग कहते हैं कि महिला ही महिला की दुश्मन होती है। जबकि ऐसा नहीं है, यह केवल सत्ता की लड़ाई है। सास अपनी सत्ता बनी रहे इसके लिए बहु पर शासन करना चाहती है और बहु अपनी सत्ता को बनाने के लिए अनुशासन भंग करती है। पिता-पुत्र में भी यही टकराव देखा जाता है। पिता 80 वर्ष के हैं और पुत्र 60 का, लेकिन फिर भी परिवार में पुत्र की अहमियत नहीं है, तो टकराव होगा ही। पति और पत्नी के रिश्तों में भी यही सत्ता दिखायी देती है। पति सोचता है कि मेरी सत्ता स्थापित हो और पत्नी सोचती है कि मेरी सत्ता हो। इसी सत्ता प्रेम से जुड़े हैं पृथकता के तार।
भारत की संस्कृति परिवारवादी संस्कृति है अर्थात हम समूह में विश्वास करते हैं जबकि पश्चिम के उन्नत देशों में व्यक्तिवादी संस्कृति है, वे स्वयं के विकास में विश्वास रखते हैं। इसलिए हमारे यहाँ पृथकता के स्थान पर सामूहिकता की बात की जाती है। हम अनेकता में भी एकता के सूत्र तलाशकर सभी को एकता का मंत्र देते हैं लेकिन जब व्यक्तिवाद हावी होता है तब एकता के सूत्रों के स्थान पर अनेकता के सूत्र खोजे जाते हैं। हमारी इसी पृथकता की चाहत ने हमें हजारों वर्षों से आक्रमण सहने पड़े हैं। हम सत्ता के लिए छोटे-छोटे लालच में आ जाते हैं। स्वतंत्रता के समय भी जब अंग्रेज देश की सभी 565 रियासतों को स्वतंत्र घोषित कर गए तब अनेक राजा सत्ता के लिए पृथक होने पर आमादा हो गए। लेकिन वे जब असुरक्षित हुए तब उन्हें अपनी भूल समझ आयी कि सामूहिकता में ही सुरक्षा है। लेकिन हम कभी भी इतिहास से सबक नहीं लेते। शायद हमारी नसों में ही सत्ता-प्रेम घुल गया है, हम किसी भी कीमत पर सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं और इसके लिए पृथकता का सिद्धान्त अपना लेते हैं। कभी हम जाति के नाम पर संगठन खड़ा करते हैं, कभी प्रदेश के नाम पर तो कभी भाषा और धर्म के नाम पर। फिर इन्हीं संगठनों को छोटे-छोटे संगठनों में बदल देते हैं क्योंकि तब कुछ नवीन लोगों को नेतृत्व की चाह उत्पन्न हो जाती है और उन्हें संतुष्ट करने के लिए फिर टूटन प्रारम्भ हो जाती है। शायद नेतृत्व और सत्ता की भूख हमारे अन्दर जन्मजात है। इसे लोकतंत्र ने अधिक हवा दी है। अब प्रत्येक व्यक्ति सत्ता चाहता है। राजशाही में आमजन सत्ता की कल्पना नहीं करता था केवल राजपरिवार ही अपनी सत्ता के लिए रियासतों में बंटते जाते थे। लेकिन वर्तमान में तो सत्ता की भूख प्रत्येक व्यक्ति में बलवती होती जा रही है, राम जाने यह कब और कहाँ जाकर रूकेगी या रूकेगी भी या नहीं।
ये एक फैशन स हो गया है राजनीति का … पहले सेंसटिव वादे करो चुनाव से पहले … फिर दूसरे चुनाव के पास आते ही उनके बिल पेश करो जिससे खून खराबा ओर बढे … इसे कहते हैं सत्ता का खुनी खेल …
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
साझा करने के लिए आभार।
कहा जाता था कि प्रेम और जंग में सब जायज़ है.. अब कहना चाहिए कि भारतीय राजनीति में सब जायज़ है.
सबके निजी स्वार्थ हैं..और उस से आगे बढ़कर वे देखना नहीं चाहते …येन केन प्रकारेण..सत्ता हथिया कर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं.
बढ़िया आलेख
जियो और जीने दो ही सारे सुखों की चाबी है , घर परिवार हो या राजनीति
शक्ति के लिये जुड़ना चाहता है, मुक्ति के लिये स्वतन्त्र होना चाहता है, जीव-प्रकृति का शाश्वत द्वन्द्व है यह।
शायद सत्ता का खेल ही ऐसा है, बहुत ही विचारणीय आलेख.
रामराम.
आप सभी का आभार।
Blogger dr kiran mala jain said…
गरमा गरम बहसें ,कहीं खो गई है ।आजकल तो घर हो या बाहर बहुत सोच समझ कर बोलना पड़ता है ,बहुत फौरमल हो गई है बातें ,सामने वाले को क्या
पंसद आयेगा वही बोलना पड़ता है ,नहीं तौ संमबंध ख़राब होने का डर ,बिल्कुल अपनों से भी पहले सोच कर हिम्मत करके कुछ बोला जाता है ,वो ज़माने गये बिन्दास जो मनमे आया बोला कोइ चिंता नहीं ,शाम को फिर साथ बैठे है एक दूसरे के बिना चैन नहीं ।थोड़ा बोलते ही उपदेश लगता है
आजकल ।सबसे मज़ेदार बात सब बहस और बतियाने के लिय तरस रहे है ।
November 1, 2013 at 3:37 PM Delete