मैं जब भी अपनों के बीच होती हूँ, मन करता है ढेर सारी बाते करूँ। वापस से बचपन के हर क्षण को याद करूं। बातें-बातें और बातें बस पुरातन की, जो क्षण रेत की तरह हमारे हाथ से फिसल गये है, उनसे जीने का आनन्द लूँ, लेकिन ऐसा होता नहीं। लगने लगा है कि वर्तमान ने इतिहास को पीछे धकेल दिया है। हमारा विगत वर्तमान के दम्भ में दबकर रह जाता है। हर व्यक्ति के पास इतना ज्ञान आ गया है कि वह ज्ञान देने के लिये लोग ढूंढ रहा है, बस जैसे ही अपने लोग मिले कि ज्ञान की पोटली खुलने लगती है और बचपन मासूम सा बनकर कोने में जा खड़ा होता है। जानने निकले थे बचपन के गलियारों को, लेकिन बेचारा बचपन ज्ञान के बोझ तले दबकर रह जाता है। कभी राजनीति का मोहरा बन जाता है तो कभी सम्प्रदाय विशेष का। परिवार की मासूमियत ज्ञान की भेंट चढ़ जाती है। जिस कलकल करती नदी को ढूंढने निकली थी, जिसमें गोता लगाकर बचपन की सीपियाँ बीनने का चाँव था, वहाँ गन्दगी बहकर आ रही थी। हाथ डालने का मन नहीं हुआ और अपनों के बीच भी परायों सा लगने लगा। काश किसी ने प्रेम का पाठ भी पढ़ा होता।
आज ज्ञान के बोझ तले न जाने कितने परिवार दब गये हैं। अपना-अपना ज्ञान लिये एक दूसरे पर वार करते लोग घर-घर में दिखायी दे जाते हैं। लोग कहते हैं कि बड़ों के पास बैठो, ज्ञान मिलेगा, लेकिन यहाँ तो कुछ लोग तेजाब का फोआ लेकर खड़े हैं। बस जैसे ही योग्य व्यक्ति मिले और चिपका दो उसके। जितना ज्ञान दुनिया में बढ़ रहा है, उतनी ही दूसरे के प्रति घृणा भी बढ़ रही है। तो क्या ज्ञानविहीन व्यक्ति ही ज्यादा श्रेष्ठ हैं? उलझ गयी हूँ मैं, क्या स्वयं को श्रेष्ठ बताने के लिये दूसरे को निकृष्ट बताना जरूरी है? दुनिया को जानने निकली हूँ मैं, लेकिन सब जगह भूसे का ढेर है, जो उड़ता है और आँखों में धूल झोंकता हैं, उस भूसे के ढेर में प्रेम की सूई दिखायी देती नहीं।
प्रेम की सूई दिखायी देती नहीं
Written By: AjitGupta
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Aug•
31•16
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