अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

बाहर के दायरों से घर तक

Written By: AjitGupta - Mar• 30•15

कल आँधी का प्रबल वेग था, घर की गेलेरी पत्तों से इस तरह अटी पड़ी थी जैसे पतझड़ ने आज ही अपना सम्‍पूर्ण चोला उतारा हो। पूजा को फोन लगाया कि आज कुछ जल्‍दी आ जाए, जिससे चारों तरफ फैले पत्ते अपने दायरे में सिमट जाए। लेकिन उसने फोन नहीं उठाया, सोचा अब जब आएगी, आएगी, कुछ देर और रहने दो इन पत्तों को मेरे घर में। फिर भी वह मेरी आशा के विपरीत जल्‍दी ही आ गयी और 10 बजे तक सारा घर पत्ते विहीन हो गया। कामवालियों की समय के प्रति दृष्टि को देखते हुए मैंने घर की सफाई के लिए दो महिलाओं को रख लिया था। जैसे ही एक घण्‍टे से अधिक समय होने लगता है इन्‍हें लगता है कि काम ज्‍यादा हो रहा है। इस मुसीबत से निजात पाने के लिए ही मैंने यह कदम उठाया था। अब मैं बड़े शान से कह सकती हूँ कि मेरे यहाँ अन्‍दर वाली और बाहर वाली है। अन्‍दर वाली सुबह जल्‍दी ही आ जाती है तो दोनों का ही काम 10 बजे तक पूरा हो जाता है। इन दोनों के कामों को देखना और साथ में चाय नाश्‍ते बनाने का भी यही समय होता है तो सुबह 7 बजे से 10 बजे तक समय कहाँ दौड़ता चला जाता है, खबर ही नहीं लगती। घर की जिम्‍मेदारियों से मैं नयी-नयी ही रूबरू होने लगी हूँ, इस दुनिया में इतना अपनापन भी है, मैंने कभी अनुभव नहीं किया था। जैसे ही नाश्‍ते का काम पूरा हुआ, सोचा अब थोड़ी देर सुस्‍ता लूं फिर कम्‍प्‍यूटर को अपनी हाजिरी दूंगी। लेकिन तभी दरवाजे पर खट-खट हुई, खोला तो पूजा खड़ी थी। मैंने पूछा काम हो गया, वह बोली कि हाँ। फिर बड़े ही अधिकार से बोली कि आप कुछ देर बैठो ना। अभी दो दिन पहले भी ऐसे ही मेरे पास आकर बैठ गयी थी। पूजा मुश्किल से 20-25 साल की होगी, बतियाने की उम्र से गुजर रही है और उसे लगा कि शायद मैं अकेली हूँ तो इनके मन का बोझ ही हल्‍का करती चलूँ। मैं भी उसके कहने से यांत्रिक से बाहर बिछे सोफे पर बैठ गयी।

अभी कुछ दिनों पहले की ही तो बात है, एक कार्यक्रम के निमित्त एक शहर जाना था। आयोजकों ने बहुत ही मान-मनुहार से बुलाया था, सफर की सारी कठिनाइयों को एक तरफ रखकर मैं वहाँ जा पहुंची थी। कार्यक्रम में वही घिसी-पिटी बाते थी कि आप अपना समय निकालकर हमारे यहाँ आयीं, हम आपके आभारी हैं। हम आज केवल आपको ही सुनना चाह रहे हैं। सोच रही थी कि वास्‍तव में ही मेरे विचारों की कद्र करना जानते हैं। लेकिन जब विचार रखने का समय आया तब आयोजक भी जा चुके थे और जो बढ़-चढ़कर विचार सुनने की बात कह रहे थे वे भी नदारत थे। अपनी बात किससे कहूँ और अब क्‍या कहूँ, समझ नहीं आ रहा था। एक कृत्रिम दुनिया मेरे सामने थी, जिसमें अपनापन कहीं नहीं था। स्‍टेज पर सजाने के लिए जैसे फूलदान की आवश्‍यकता रहती है वैसे ही आयोजकों को मुख्‍य अतिथि आदि की जरूरत रहती है। क्षणिक रूप से आपको खुश करने के लिए तालियां भी होती हैं और एकाध सच्‍चा प्रशंसक भी पास आकर आपकी तारीफ कर जाता है, इससे ज्‍यादा कुछ नहीं। पूजा को मेरे विचार पता नहीं हैं ना वह मेरे बारे में जानती है, वह अभी दस दिन पहले ही मेरे यहाँ काम पर आयी है लेकिन वह इतना जानती है कि यह जो महिला है अकेली रहती है और इसे भी किसी से बात करने की चाहत तो होती ही होगी। दो मिनट में जितनी आत्‍मीयता उससे हुई उतनी ही आत्‍म-विच्‍युति उस कार्यक्रम में हुई। वहाँ के बाद भी और पहले भी कई जगह जाने का अवसर मिला है लेकिन अपनापन कहीं अनुभूत नहीं हुआ। जिस जीवन के पीछे बचपन से लेकर आज तक दौड़ लगायी और जिस घर के आनन्‍द को हमेशा अपने से दूर रखा आज उसकी सच्‍चाई समझ आने लगी है। आनन्‍द कहाँ हैं, और मैं इसे कहाँ खोज रही थी, कुछ-कुछ समझ आने लगा है।

बचपन में रसोई में माँ काम कर रही होती थी, हम शौकिया तौर पर वहाँ चले जाते थे। यदि उस समय पिताजी वहाँ आ गए तो तूफान आ जाता था, तुम रसोई में क्‍या कर रही हो? तुम अपनी पढ़ाई करो। हाथ में कभी स्‍वेटर आ जाता बुनने के लिए तो फिर तो मेरी खैर नहीं। वे कहते कि ये सारे काम पैसे देकर कराए जा सकते हैं लेकिन ज्ञान स्‍वयं को ही अर्जित करना होता है। इसलिए जब तब आवश्‍यक ना हो तब तक रसोई आदि के कामों से दूर रहो। ना में‍हदी में रूचि लेने दी और ना ही मांडने में। त्‍योहार मनाने का उत्‍साह क्‍या होता है कभी जाना ही नहीं। मन में एक धारणा सी बनती चली गयी कि हम बाहर के काम के लिए बने हैं और स्‍वयं को पुरुषोचित कार्यों में ही झोंक दिया। पहले नौकरी की तो भी घर के काम के लिए नौकरानी प्राथमिकता से रखी गयी और बाद में सामाजिक कार्यों में अपना योगदान दिया तब भी नौकरानी पूरा समय रही। घर की भी एक अलग दुनिया होती है, वहाँ बाहर जैसा कृत्रिम प्रेम नहीं है, यहाँ तो छोटे-छोटे सुख-दुख हैं। इन छोटे-छोटे सुख-दुखों को दूर करने वाले केवल हम ही होते हैं और जब हम इन छोटी-छोटी खुशियों को दूसरों को दे पाते हैं तब हम अचानक ही सबके लिए माँ बन जाते हैं। इस सुख का बाहर कहीं नामोनिशान नहीं है। मैं किसी के लिए भी लाख अच्‍छा करती लेकिन वह मेरी नींव खोदने में ही लगा रहता, यदि उसकी जरूरत मुझसे पूरी होती है तो मेरे चारों तरफ होता नहीं तो वह इतना पराया बन जाता जैसे कभी आमना-सामना भी नहीं हुआ हो।

घर की दुनिया कितनी अपनी सी है। घर का कोना-कोना आपका होता है, दीवारें लगता है जैसे आपको बाहों में लेने के लिए आतुर हों। इस अपने घर में पूर्ण स्‍वतंत्र हैं, चाहे नाचिए, चाहे गाइए या फिर धमाचौकड़ी मचाइए, सब कुछ आपका है। बाहर की दुनिया में ऐसा सम्‍भव नहीं है। पूजा दस मिनट ही मेरे पास आकर बैठी थी लेकिन मन की भाषा बतियाना ही होता है, उसने सहज भाव से समझा दिया था। मेरा कद क्‍या है, उसका कद क्‍या है, इस बात से इतर बस मन की चाहते क्‍या है, बस यही दुनिया का सुख है। बड़े-बड़े मंचों पर बैठकर भी किसी ने मन से बड़ा नहीं माना, बस दिखावे के अतिरिक्‍त कुछ नहीं था इस दुनिया में लेकिन आज अपने बराण्‍डे में रखे छोटे से सोफे पर बैठकर और नीचे फर्श पर बैठी पूजा का यह कहना कि आप अकेले हो तो मैंने सोचा कि आपसे कुछ देर बात ही कर लूं! जिसके पास पल-पल का हिसाब है, न जाने कितने घरों में काम निबटाना है लेकिन वह दस मिनट का समय मेरे लिए निकाल लेती है वह भी दरवाजा खुलवाकर कहती है कि बैठो कुछ समय मेरे पास। जब मुझे लगा कि घर की स्‍वामिनी ऐसे ही पलों में शायद जगत-जननी बन जाती है और उसका यहीं आनन्‍द उसे काम करने में मदद करता है। यह दुनिया छोटी है लेकिन प्‍यार भरी है। वह दुनिया बहुत बड़ी है लेकिन ईर्ष्‍या भरी है। अपने छोटे से घर के हर कोने को तलाश रही हूँ जहाँ न जाने कितनी यादे अकेले में बैठकर मुझे याद कर रही थी। अब मैं जीने लगी हूँ, अब मैं बाते करने लगी हूँ और अब मैं बिना कहे ही औरों के मन को पढ़ने लगी हूँ। अब अपने घर में वे सभी बाहर निकल आए हैं जो कभी साथ रहते थे। बाहर की दुनिया में महिलाओं को कितना तो घर छोड़कर बाहर निकलने को कहती थी लेकिन कितना प्रभाव पड़ता था मेरी बातों का? आज जाना कि घर के सुख के आगे कुछ नहीं है। बाहर कितनी ही पूजा मिली होंगी, कितने ही घण्‍टों मन की बात भी की होगी लेकिन वे सारी बाते कहीं न कहीं स्‍वार्थ साधने या कृत्रितमा की भेंट चढ़ गयी। यहाँ मन की बात नहीं कही गयी, बस किसी ने दस्‍तक दी, किसी अनपढ़ युवती ने बता दिया कि तुम अकेले हो। जिन्‍हें सीख देने के लिए घर से दूर समाज के बीच काम करने की राह पकड़ी थी आज वही सीख मुझे दे गयी। घर में मन की बाते दीवारों से भी की जा सकती हैं लेकिन बाहर बड़े-बड़े मंचों पर भी नहीं। बाहर सारे लोग दौड़ रहे हैं, एक दूसरे के आगे निकलने को दौड़ रहे हैं और घर में सब एक दूसरे की छांव ढूंढ रहे हैं। पूजा के पास समय नहीं है फिर भी वह एकान्‍त की भाषा पढ़कर समय देना जान गयी है और बाहर की दुनिया अनजाने में ही एकान्‍त देना जान गयी है।

 

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8 Comments

  1. Dr. Sushil Gupta says:

    A Fantastic Story, So Real Picture Of Society & Events Organisers, So Practical ! – Dr. Sushil Gupta, President, Anant Sahitya Sangeet Manch, Chandigarh.

  2. AjitGupta says:

    सुशील जी आपका स्‍वागत है, यह कहानी आपको पसन्‍द आयी इसके लिए आभारी भी हूँ।

  3. यह दुनिया छोटी है लेकिन प्‍यार भरी है। वह दुनिया बहुत बड़ी है लेकिन ईर्ष्‍या भरी है।
    @ अनुभूति से निकले स्वर स्वीकार्य होते हैं।
    घर और घर के कोने-कोने से जुडी यादों को जीवंत कर दिया आपने। आपका यूँ बातें करना एकाकीपने में मिलने वाले विरहजन्य तनाव व क्लेश से मुक्त करता है।

  4. Dr Kiran Mala jain says:

    बहुत प्यारा लेख ,मुझे कुछ साल पहले की घटना याद आरही है ,मेरे यहाँ कभी कभी सब्ज़ी वग़ैरह लाने वाली ऐक महिला ऐक रोज़ अपना क़रीबन ८ -१० महीने के बच्चे को लेकर आई और मेरे पास बैठ कर बोली लो इसे खिलाओ ,आपके बच्चे तो बाहर है ,पोते पोतियों को कब खिलाओगे ,इतना प्यारा सा गोल मोल सा बच्चा उसने मेरी गोद मे रख दिया ।मुझे लगता है मन की कोमल भावनाओं को जिन्हें हम अनपढ कहते है वे ही ज़्यादा समझते है ।

  5. तभी तो कहते हैं बिन घरनी भूतों का डेरा!!!

  6. अपने आसपास ऐसे कितने लोग बिखरे हैं …बस दो पल को रूक कर देखने की जरूरत है …. ..

  7. pallavi says:

    शायद इसलिए ही कहते है कि चाहे छोटा हो या बड़ा पर “अपना घर अपना ही होता है”। फिर चाहे बात सर छिपाने कि हो , रहने खाने या बतियाने की हो या खामोशीयों की अपने घर जैसा सुकून और आराम और कहीं मिल ही नहीं सकता। यूं रहने को तो लोग झोपड़ी से लेकर पाँच सितारा होटल में भी रह लेते हैं। मगर अपने घर जैसी शांति दुनिया के किसी ओर कोने में नहीं मिलती/ ना मिल सकती है।

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