अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

भिखारी परायों के दर पर

Written By: AjitGupta - Dec• 13•18

आर्कमिडीज टब में नहा रहा था, अचानक वह यूरेका-यूरेका बोलता हुआ नंगा ही बाहर भाग आया, वह नाच रहा था क्योंकि उसने पानी और वस्तु के भार के सिद्धान्त को समझ लिया था, न्यूटन सेव के पेड़ के नीचे बैठा था, सेव आकर धरती पर गिरा और उसने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त को समझ लिया था। छोटी-छोटी घटनाओं से वैज्ञानिक प्रकृति के रहस्यों को समझ लेते हैं, ऐसे ही समाज-शास्त्री भी छोटी घटनाओं से मनुष्य की मानसिकता को समझते हैं और तदनुरूप ही अपने समाज को ढालते हैं। सारे राजनैतिक घटनाक्रम के चलते कल एक घटना ने मेरी भी सोच को केन्द्रित किया और हमारे समाज की मानसिकता समझने का प्रयास हुआ। कल मेरी नौकरानी का फोन आया कि वह आज नहीं आएगी, पड़ोस की नौकरानी भी नहीं आयी। दोनों ही आदिवासी थी लेकिन मेरी दूसरी नौकरानी आदिवासी नहीं थी, वह आयी। मैंने ध्यान नहीं दिया कि क्यों नहीं आयी, लेकिन बातों ही बातों में पता लगा कि वह दूसरे शहर की किसी दरगाह पर गयी हैं। मुझे आश्चर्य हुआ कि दरगाह  पर क्यों! पता लगा कि हर साल जाते हैं। हमारे देश का तथाकथित हिन्दू समाज भीख मांगने का कोई भी मौका नहीं छोड़ता फिर वह भीख अपनों से मांगने की बात हो या दूसरों से। उसे  पता लगना चाहिये की यहाँ मन्नत मांगने से कुछ मिल जाता है, फिर वह शर्म नहीं करता। अजमेर दरगाह तो इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। आज हम दूसरों के सामने हाथ पसार रहे हैं, कल उनकी बात मानने लगते हैं और फिर कब स्वयं को बदल लेते हैं पता ही नहीं चलता। यदि बदलते भी नहीं हैं तो उनकी ओर से आ रहे खतरे को तो नजर-अंदाज कर ही देते हैं। हमारे छोटे-छोटे लालच हमें अपने समाज से दूर ले जाते हैं और शनै:-शनै: समाज की शक्ति कम होने लगती है। हम समझ ही नहीं पाते कि राजा कौन हो, इस बात से कोई अन्तर पड़ता है। वे तो स्वयं को भिखारी की श्रेणी में रखते हैं तो कौन राजा हो इससे क्या अन्तर!

इसके विपरीत किसी भी अल्पसंख्यक समाज को किसी दूसरे सम्प्रदाय के दर पर दस्तक देते कभी नहीं देखा गया। क्या गरीबी वहाँ नहीं है? मुस्लिम और ईसाई तो बहुत गरीब हैं, लेकिन क्या मजाल कभी किसी हनुमानजी.या देवी के मन्दिर में दिखायी दिये हों! वे भी तो मन्नत मांगते ही होंगे! लेकिन वे अपनों से ही मन्नत मांगते हैं इसलिये कभी दूसरों से प्रभावित नहीं होते। उनका लक्ष्य, उनके समाज ने निर्धारित कर दिया है, केवल अपना विस्तार। जबकि हमारे समाज ने हमारा कोई लक्ष्य निर्धारित ही नहीं किया है, सभी ने लंगर लगाकर और मन्नत का धागा बांधना तो सिखा दिया लेकिन स्वाभिमान नहीं सिखाया। तुम्हारे हाथ में ही सारी सम्पत्ती है, यह नहीं सिखाया। हाथ कर्म करने के लिये होते हैं, भीख मांगने के लिये नहीं, यह नहीं सिखाया। भीख भी मांगनी पड़े तो अपनों से मांगों, परायों से नहीं, यह नहीं सिखाया। यही कारण है कि चुनावों में एक पव्वा भारी पड़ जाता है, रसोई गैस-बैंक में खाता-घर-भामाशाह कार्ड के सामने। जैसे लोगों को मूल से अधिक सूद प्यारा होता है वैसे ही स्थायी धन से भीख प्यारी हो जाती है। ईसा पूर्व का उदाहरण उठाकर देख लें या बाद के, अनगिनत बार ऐसा हुआ है कि दूसरे देश की सेनाएं बिना लड़े ही युद्ध जीत गयी! क्योंकि हम परायों और अपनों में भेद ही नहीं कर पाए। एक छोटा सा लालच हमें अपनी सेना के विरोध में खड़ा कर देता है और फिर सर धड़ से अलग हो जाता है यह जानते हुए भी लालच नहीं छूटता। यही है हमारे समाज की मानसिकता। इसी मानसिकता का लाभ दुनिया उठा रही है, लेकिन हम इस मानसिकता को समझकर भी नहीं समझना चाहते क्योंकि हम भी काम करना नहीं चाहते। समाजों के नाम पर, हिन्दुत्व के नाम पर अनेक संगठन बन गये लेकिन वे अपने नाक के नीचे हो रहे इस मतान्तरण को देख ही नहीं पा रहे हैं, देख भी रहे हैं तो कुछ करते नहीं बस राजनैतिक दाव-पेंच में ही उलझे रहना चाहते हैं कि कौन मुख्यमंत्री हो, जो हमारे कहने से चले। पाँच साल से अभी और पांच साल पहले नजदीक से देखा है एक समर्थ मुख्यमंत्री को इन्हीं ताकतों ने कैसे-कैसे बदनाम किया और उसे हराकर ही दम लिया। जनता तो भीख पर पल रही है, उसे देश के खतरे से लेना-देना नहीं, लेकिन जो देश के खतरे को बता-बताकर लोगों को डराते रहते हैं, वे अपनी मुठ्ठी का व्यक्ति ढूंढते हैं। राजस्थान में तो हँसी आती है, कुछ लोग ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे जिसे कभी संघ ने ही तड़ी पार किया था और ऐसी मुख्यमंत्री को हटाना चाहते थे जो जनता के दिलों में बसती थी। एक ने भीख का लालच देकर सत्ता हथिया ली और दूसरे ने अपनों पर ही वार करके सत्ता खो दी। मुझे पोरवराज को हराना है, इसलिये मैं एलेक्जेण्डर से संधि करूंगा, इसी विद्वेष और लालच की मानसिकता को समझने की जरूरत है। भिखारी मानसिकता को अपने दरवाजे तक सीमित रखने के प्रयास की जरूरत है।

You can follow any responses to this entry through the RSS 2.0 feed. You can leave a response, or trackback from your own site.

Leave a Reply