जिन लोगों ने भी मेवाड़ के वनांचल देखें हैं, वे इनकी खूबसूरती के कायल हुए बिना नहीं रह सकते। उदयपुर के आसपास पहाड़ी क्षेत्र है और यहाँ आज भी घने जंगल हैं। पहाड़ों के बीच बल खाती नदियां जगह-जगह देखने को मिल जाती हैं। कहीं तालाब हैं तो कहीं बांध बनाकर पानी को शहरों के लिए उपलब्ध कराया जाता है। कल ऐसे ही वनांचल में जाने का अवसर मिला। बाघेरी बांध से लगा हुआ क्षेत्र है, गाँव का नाम है बड़ा भानुजा। इस गाँव में एक श्रद्धास्थल भी है। नाम है करधर बावजी। चारों तरफ पहाड़ों से घिरा स्थान है। अभी बरसात प्रारम्भ नहीं हुई थी इसलिए झरने और नदियां तो देखने को नहीं मिली लेकिन पहाड़ों का सौंदर्य भी अवर्णनीय था। जंगल कट गए हैं इसलिए सघनता कम हुई है लेकिन सर्पाकार सड़कों पर चलने का अपना ही आनन्द होता है। हम भी गूगल महाराज की सेवा लेते हुए करधर बावजी के स्थान पर आराम से जा पहुंचे। वहाँ परसादी का आयोजन था। मन्दिर अभी बन ही रहा था, लेकिन परसादी करने की समुचित व्यवस्था थी। वहीं के एक पहाड़ पर श्रद्धालुओं ने एक आश्रम भी बना रखा था और वहाँ हेलीपेड भी था।
वहाँ शनिवार को ही परसादी का आयोजन होता है इसलिए इसी दिन अधिक भीड़ रहती है। एक साथ कई आयोजन हो रहे थे। प्रकृति की गोद में जाकर आयोजन करना भला किसे अच्छा नहीं लगता! लेकिन प्रकृति को बनाये रखना भी तो हमारा ही कर्तव्य होता है। उस अछूती प्रकृति को श्रद्धा के नाम पर कलुषित करने के लिए लोगों का मजमा लगा ही रहता है। ना तो प्रशासन को और ना ही श्रद्धास्थल के पदाधिकारियों को इस बात की चिन्ता है कि प्रसादी के नाम पर प्रकृति को नष्ट करने की मुहिम परवान चढ़ रही है। खाने के लिए पत्तल-दोनों प्रयोग में लिए जाते हैं जो प्लास्टिक कोटेड होते हैं तथा गिलास तो प्लास्टिक के ही होते हैं। सारा ही कचरा पहाड़ियों पर फेंक दिया जाता है। मुझे लगता है कि शीघ्र ही वहाँ कचरे के ढेर लग जाएंगे। इतने सुन्दर स्थान को हम अपनी नासमझी से बर्बाद कर देंगे।
उदयपुर आकर मैं दुखी थी, तभी एक कृषि वैज्ञानिक जो रिश्ते में मेरा भाई लगता है, मेरे घर आया। मैंने अपना दुख उसे बताया। उसने एक घटना सुनाई। जालोर के पास कोई श्रद्धा केन्द्र बना, उसके लिए सारी ही जातियों का वहाँ जमावड़ा हुआ। सभी ने प्रसादी की और सारे ही गाँव वालों को कई दिनों तक भोजन कराया। अन्त में वहाँ इतनी लपसी ( गुड़ का मीठा दलिया ) बच गयी कि उसे ट्रक्टरों में भरकर आसपास के सारे ही गाँवों के गड्ढों में डाल दिया गया। गाय-भैसों ने उसे बड़ी मात्रा में खा लिया। लापसी खाने के बाद वह पेट में फूलती है, तो उन जानवरों के पेट में भी फूलना शुरू हुआ और जानवरों का मरना प्रारम्भ हुआ। संख्या सैकड़ों में जा पहुंची तब प्रशासन सचेत हुआ। लेकिन इस प्रसादी ने सैकड़ों जानवरों के जीवन को समाप्त कर दिया था। इसलिए हम प्रसादी के नाम पर प्रकृति के साथ अनजाने में ही जो खिलवाड़ करते हैं, उसे रोकना चाहिए। हमें भी समझदार होना पड़ेगा। हम चाहे पिकनिक मनाने जाएं या प्रसादी करने, हमें कचरे का प्रबंधन करना ही पड़ेगा।
हे भगवान, बिना सोचे समझे हम क्या कर बैठते हैं।
सचमुच एक बड़ा ही संवेदनशील मुद्दा है.. और रक्षा में ह्त्या वाली घटना पढकर तो रौंगटे खड़े हो गए!!
श्रद्धा के नाम पर हम कितना अनर्थ कर जाते हैं….
लगभग सभी पर्यटन और तीर्थस्थलों की यही स्थिति है इस और हमारा ध्यान जाता ही नहीं चिंतनीय
उत्ततदायित्व न लेने की हमारी मानसिकता देश, समाज और प्रकृति को बहुत हानि पहुँचाती है।
अपनी झोंक में कितना अविचारी हो जाता है इन्सान ,और अपना कूड़ा कहीं भी फेंकने को अपना अधिकार समझता है ,नदियों के किनारे ,पहाड़ो,,सड़कों पर . हर जगह से दूषण फैला रखा है ..,ट्रेनों ,स्टेशनों ,और सार्वजनिक स्थानों के शौचालयों का जो हाल किया जाता है वह
तो…अब क्या-क्या कहें ..!
भगवान् को खुश करने में हम कितना कुछ बर्बाद करते हैं ..
तिरुमाला देवस्थानम में देख आये कचरा प्रबंधन , लाखों की भीड़ होती है प्रतिदिन , मगर साफ़ सफाई जबरदस्त .हर स्थान पर कचरा पात्र रखे हुए है , सफाई कर्मचारी लगे ही रहते हैं .
वाणी जी, हमें सारे ही धार्मिक स्थलों को इसी प्रकार स्वच्छ रखना होगा।
सही कहा आपने, यही हाल रोहतांग का भी है. वहां अगर आप बर्फ़ पर फिसलने कि सोचें तो पहले देखलें, क्योंकि प्लास्टिक के अलावा बीयर इत्यादि की कांच फ़ूटी हुई बोतले भी पडी हुई रहती जो नुक्सान पहुंचा सकती है.
शायद हम कचरे का निपटान स्वयं करना सीखें तो बेहतर है आखिर सरकार के भरोसे क्यों बैठें? हमें स्वयं देखना चाहिये कि खाने पीने के बाद कचरे को नियत स्थान पर ही फ़ेंके, बहुत ही सुंदर आलेख.
रामराम.
लगभग सभी पर्यटन और तीर्थस्थलों की यही स्थिति है .
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ये सच में हमारी समाजिक आदत बनती जा रही है आंख बंद करके सुविधाओं का उपयोग करो..उसके नुकसान की परवाह न करो…
सच बहुत ही अच्छा मुद्दा उठाया है आपने प्रशासन कुछ करे या न करे मगर यदि हमें इन सुंदर प्रकृतिक स्थलों का मज़ा आगे भी उठाना है तो हमें ही कुछ करना होगा। विचारणीय प्रस्तुति
अच्छा मुदाता उठाया है आपने .. और हमें खुद ही जागृत होना होगा … प्रशासन हर माम्मे में दखल नहीं दे पाता … पर अगर ग्राम, पंचायत स्तर पर ऐसी बातों के प्रभाव को बताया जाए तो शायद समस्या का समाधान है …