बस दो मिनट के खाद्य पदार्थों ने जैसे हमारे शरीर को रोगी बना दिया है वैसे ही दो मिनट के लेखन और पठन ने हमारी मानसिकता को विकृत किया है। कुछ दिनों से मुझे स्वयं पर क्रोध आने लगा है, न जाने कैसे-कैसे असभ्य शब्द दिमाग में अपनी जगह बनाने में सफल हो रहे हैं। कोई समाचार सुना या देखा, प्रतिक्रिया स्वरूप अचानक ही असभ्य भाषा धक्का मारकर आगे निकलने का प्रयास करने लगती है, बहुत कठिनाई होती है इन शब्दों को पीछे धकेलने में। हाथ में मोबाइल है, सारा दिन फेसबुक पर कुछ न कुछ पढ़ा जाता है। यहाँ अधिकतर असभ्य भाषा का प्रयोग हो रहा है और वे ही शब्द हमारे मन-मस्तिष्क में जगह बना रहे हैं। हम भी उस तोते की तरह होते जा रहे हैं जो डाकू के घर रह रहा है और बस गालियां ही सुन रहा है। मेरे लिये यह दशा निश्चय ही सोचने वाली है। मेरी जिन्दगी में मैंने कभी भी शब्दों का दुरूपयोग नहीं किया। अपने दुश्मन के समक्ष भी ऐसे शब्द नहीं बोले जिससे उसके दिल को ठेस पहुँचे। यदि कभी ऐसा हुआ भी है तो बहुत मजबूरी में ही हुआ होगा। एक-एक शब्द को तौल-तौल कर प्रयोग करना मेरी आदत है लेकिन अब देख रही हूँ कि मेरे शब्दों का ही अपहरण होने लगा है। जैसे हमारी दुनिया ही बदल गयी हो। दो मिनट के खाद्य पदार्थ जैसे धीमे जहर के रूप में आपके शरीर को विकृत कर रहे हैं वैसे ही ये शब्द हमारी मानसिकता को विकृत कर रहे हैं। इनसे बचना ही होगा।
मुझे हमारे परिवार की एक होली याद है, उस होली में हमारे जीजाजी ने सभी को भांग खिला दी। अब जिसका जैसा व्यवहार था, उसने वैसा ही प्रदर्शन करना शुरू कर दिया। हम यह भी देखते हैं कि शराब पीकर लोग कैसा व्यवहार करते हैं, कोई गाली-गलौच करता है, कोई मारपीट करता है तो कोई और कुछ करता है। ऐसे ही शायद शब्दों की भी लीला है, जैसा सुनते हैं या पढ़ते हैं, मन पर असर जरूर करते हैं। इसलिए जब आपके मन पर असर होने लगे तब समाधान का मार्ग ढूंढ लेना चाहिए। मुझे लग रहा है कि फेसबुक से दूर हो जाना चाहिए। या फिर उन लोगों से तो अवश्य ही दूरी बना लेनी चाहिए जो असभ्य और अमर्यादित भाषा का प्रयोग कर रहे हैं। ब्लाग लेखन में इतनी अमर्यादा नहीं है, यहाँ कुछ भाषा के प्रति सभ्यता शेष है।
एक बात और भी आती है कि हम इन सभी से दूर हो जाएं और गम्भीर लेखन और गम्भीर पठन की ओर ही लौट जाएं, लेकिन यह समाधान ऐसा ही है जैसे हम दुनिया जहान से कटकर हिमालय चले जाएं। इसलिए अधिक से अधिक गम्भीर पठन की ओर ध्यान देने का निश्चय किया है, ब्लाग पर अधिक ध्यान देंगे, फेसबुक पर कम। साहित्यकारों की संगोष्ठी में जाना गुटबाजी में फंसना जैसे ही है, वहाँ भी अनावश्यक आलोचनाएं हैं। इसलिए सोच रही हूँ कि शान्ति से जीवन निकालने के लिए असभ्यता और गुटबाजी को तो दूर कर ही दिया जाए। आज अचानक ही विचार आया और अचानक ही समाधान भी मिल गया। देखें कब तक निभा पाती हूँ।
बिल्कुल सही कहा आपने
ब्लॉग्स अभी तक असभ्यता, फूहडता और गाली-गलौच से बचे रहे हैं। (एक-आध अपवाद को छोडना पडेगा)
फेसबुक पर नंगई की कोई सीमा नहीं रह गई है
अन्तर सोहिल जी, फेसबुक ने सारी मर्यादाएं भंग कर दी हैं। इसलिए इनसे स्वयं को बचाना अनिवार्य हो गया है। आभार आपका।