अजित गुप्ता का कोना

साहित्‍य और संस्‍कृति को समर्पित

शेष स्मृति चिह्न है नाभि

Written By: AjitGupta - Oct• 08•16

संतान के जन्म के साथ ही हम माँ से संतान को अलग करने के लिये नाभिनाल को काट देते हैं लेकिन नाभि का चिह्न हमें याद दिलाता है कि हमारा शरीर किसी सांचे में रहकर ही निर्मित हुआ है। नाभि-दर-नाभि पीढ़ियों का निर्माण होता है और अदृश्य कड़ियां विलुप्त होती जाती हे, बस रह जाती है तो यह केवल नाभि। हम अपने माता-पिता की सप्त धातुओं यथा रस, रक्त, मांस, मज्जा आदि से निर्मित होकर अपने व्यक्तित्व को बनाते हैं और फिर नवीन व्यक्तित्व को गढ़ने के लिये कदम बढ़ा देते हैं। यही जीवन है। हम जिन कड़ियों से बने हैं वे हमारे अंदर विलीन हो जाती है, एकरस हो जाती है, केवल हमारे आचरण में ही इनकी झलक मिल पाती है। बस हिसाब शेष रह जाता है कि नाक माँ जैसी है और ठोड़ी पिता जैसी है, बोलता है तो पिता की झलक आती है और हँसता है तो माँ दिखायी देती है। ऐसे ही बनते हैं हम सब।
हम सब का व्यक्तित्व तीन हिस्सों में बंटा होता है और उसका निर्माण भी तीन हिस्सों में ही होता है। एक फल जब पकता है तब हम कहते हैं कि किस बीज से बना है, इसका खुद का निर्माण कैसा हुआ है और क्या इसका बीज फलदायी होगा? इसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति तीन तरह से निर्मित होता है। पहला हिस्सा होता है उसके माता-पिता दूसरा होता है स्वयं का निर्माण और तीसरा होता है उसने किस व्यक्तित्व का निर्माण किया अर्थात संतान। हम इन तीनों से यावत्जीवन बंधे रहते हैं। किसी एक को भी अपने से अलग करने पर हमारा जीवन बिखर जाता है। हम पूर्ण तभी रहते हैं जब हमारे अंदर इन तीनों का वास हो।
हमारा व्यक्तित्व हमारे माता-पिता से निर्मित होता है, हमारा स्वभाव का एक हिस्सा उनके जीन्स से ही बनता है, कहीं न कहीं हमारे अन्दर हमारे माता-पिता परिलक्षित होते ही हैं। शिक्षा, काल, परिस्थिति से हमारा वह व्यक्तित्व बनता है जो सर्वसामान्य को दिखायी देता है, जिसे हम अपने बुद्धि से प्राप्त होना बताते हैं। जबकि इसमें भी हमारे माता-पिता का ही अंश रहता है। जब हमारा व्यक्तित्व का निर्माण हो जाता है तब हम अपने जीवन साथी के साथ मिलकर अपनी संतान के व्यक्तित्व को आकार देते हैं। इसलिये जो हमारे अन्दर है उसी अंश को हम अपनी संतान को देते हैं और हमारी संतान में वह परिलक्षित भी होता है।
जीवन की ये तीनों कड़ियाँ जब तक साथ रहती हैं जीवन सुगम बना रहता है। लेकिन कड़िया बिखरने पर जीवन एकाकी हो जाता है। हम कहते हैं कि हमारे माता-पिता और संतान से आत्मीय सम्बंध हैं अर्थात् हमारी आत्मा के समान ही हमें अपने माता-पिता और संतान के दुख-दर्द की अनुभूति होती है। इसलिये ये तीनों अलग-अलग शरीर होते हुए भी एक प्राण होते हैं। इस आत्मीयता की अनुभूति प्रेम के प्राकट्य से होती है, जितना प्रेम और सम्मान हम इन सम्बंधों को देते हैं उतनी ही आत्मीयता की अनुभूति बनी रहती है लेकिन यदि हमने प्रेम और सम्मान के भाव को समाप्त कर दिया तब अनुभूति का भाव भी तिरोहित होता चला जाएगा। जिस दिन आत्मीयता की अनुभूति समाप्त हो जाएगी उसी दिन हमारा व्यक्तित्व भी बिखर जाएगा। हमारे अन्दर मैं का भाव प्रबल होने लगेगा और हम का भाव निर्बल होने लगेगा। मैं किसी से निर्मित हूँ यह भाव खो जाएगा और केवल यह भाव रह जाएगा कि मैंने किसी को बनाया है। अहंकार के आगे सब कुछ तिरोहित हो जाएगा।
हमारे यहाँ हर पल अपने व्यक्तित्व निर्माता को स्मरण किया जाता रहा है हम अपने माता-पिता को अपने नाम के साथ जोड़कर याद करते हैं जैसे – दशरथ नंदन राम, कौशल्या नंदन राम, वासुदैव कृष्ण या देवकी नंदन कृष्ण। वर्तमान में भी कई जगह अपने पिता का नाम संयुक्त करके ही अपना नाम लिखा जाता है, जैसे नरेन्द्र दामोदर दास मोदी। हम अपने व्यक्तित्व से चाहे कैसे भी अपने माता-पिता का नाम हटा दें लेकिन प्रकृति ने इसे अमिट बनाया है। जैसे नाभिनाल काटने के बाद भी नाभि का चिह्न हमेशा हमारे शरीर पर रहता है वैसे ही हमारे व्यक्तित्व में हमारे माता-पिता और हमारी संतान का व्यक्तित्व मिला होता है। हम इनसे दूरी तो बना सकते हैं लेकिन इन्हें समाप्त नहीं कर सकते हैं। अब तो विज्ञान ने भी सिद्ध कर दिया है कि जीन्स हमेशा बने रहते हैं। इसलिये भूत-वर्तमान-भविष्य की तरह है हमारा व्यक्तित्व।

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